बहू की चुप्पी: इज़्ज़त और रिश्तों का कच्चा सच

 

 बहू की चुप्पी: इज़्ज़त और रिश्तों का कच्चा सच

त्रिवेदी परिवार की बड़ी बहू, अनन्या, की चुप्पी उस घर की सबसे बड़ी पहेली थी। वह एक पढ़ी-लिखी, सुलझी हुई लड़की थी, जो शहर के सबसे अच्छे कॉलेज में प्रोफेसर थी। घर में वह हर ज़िम्मेदारी निभाती थी, हर रिश्ते का मान रखती थी, पर उसकी आँखों में एक ठहराव था और उसके होठों पर एक ख़ामोशी, जिसे कोई पढ़ नहीं पाता था।

उसके ससुर, रिटायर्ड जज साहब, अनुशासन और 'घर की इज़्ज़त' को सर्वोपरि मानते थे। उनकी नज़र में, अनन्या एक आदर्श बहू थी - शांत, सुशील और आज्ञाकारी। उसकी सास, निर्मला जी, को भी अपनी बहू की इस ख़ामोशी से कोई शिकायत नहीं थी। उनके लिए, कम बोलने वाली बहू घर की शांति के लिए ज़रूरी थी।

यह बहू की चुप्पी तब तक किसी को नहीं खटकी, जब तक घर में छोटी बहू, सिया, बनकर नहीं आई। सिया चुलबुली, बातूनी और ज़िंदगी से भरपूर थी। उसने आते ही घर को अपनी हँसी से भर दिया। लेकिन जल्द ही, उसे अनन्या की चुप्पी एक बोझ की तरह लगने लगी।

सिया अक्सर अनन्या से पूछती, "भाभी, आप इतनी चुप क्यों रहती हो? अपनी राय तो दिया करो।"

अनन्या बस मुस्कुरा देती, पर कुछ कहती नहीं।

रिश्तों का कच्चा सच तब सामने आया, जब जज साहब ने एक दिन खाने की मेज पर घोषणा की कि वे अपनी पैतृक ज़मीन का एक हिस्सा बेचकर अपने छोटे बेटे, यानि सिया के पति, को नया बिजनेस शुरू करने में मदद करेंगे। यह फैसला उन्होंने अकेले ही लिया था।

घर में सब खुश थे, सिवाय अनन्या के। सिया ने देखा कि उस दिन अनन्या की आँखों में सिर्फ़ ख़ामोशी नहीं, एक गहरा दर्द था।

रात में, सिया हिम्मत करके अनन्या के कमरे में गई। "भाभी, क्या बात है? आप इस फैसले से खुश नहीं हैं?"

उस रात, सालों बाद, अनन्या की चुप्पी टूटी। उसकी आवाज़ में कोई शिकायत नहीं, बस एक गहरी थकान थी।

उसने कहा, "सिया, यह घर 'इज़्ज़त' की नींव पर टिका है, 'इंसानियत' की नहीं। जब मैं ब्याह कर आई थी, तो मेरे पिता ने मेरे नाम पर एक छोटी सी ज़मीन का टुकड़ा दिया था, यह सोचकर कि यह मेरी अपनी पहचान होगी, मेरा सहारा होगी।"

उसने एक लंबी साँस ली। "तुम्हारे भैया (अनन्या के पति) को अपना काम शुरू करना था। उस वक़्त घर में पैसे नहीं थे। मैंने अपनी वह ज़मीन बेच दी... यह सोचकर कि यह घर भी तो मेरा है। मैंने किसी को कुछ नहीं बताया, क्योंकि मुझे लगा कि प्यार और अपनेपन के लिए शब्दों की ज़रूरत नहीं होती।"

सिया स्तब्ध रह गई।

अनन्या ने आगे कहा, "आज जब पिताजी ने तुम्हारी मदद करने का फैसला किया, तो मुझे दुख इस बात का नहीं हुआ कि उन्होंने मुझसे पूछा नहीं। दुख इस बात का हुआ कि इतने सालों में किसी ने यह जानने की कोशिश ही नहीं की कि इस घर को बनाने में मेरा क्या योगदान है। मेरी चुप्पी को मेरा संतोष मान लिया गया, मेरे त्याग को मेरा कर्तव्य।"

उसने अपनी नम आँखों से सिया को देखा। "सिया, मैं चुप इसलिए नहीं रहती कि मेरे पास कहने को कुछ नहीं है। मैं चुप इसलिए रहती हूँ क्योंकि इस घर में भावनाओं को सुनने की किसी को आदत नहीं है। यहाँ फैसले लिए जाते हैं, राय नहीं माँगी जाती। यहाँ 'इज़्ज़त' इस बात में है कि बहू कितनी ख़ामोश और सहनशील है। मेरी चुप्पी मेरी कमजोरी नहीं, इस घर की मर्यादा की ढाल है, जिसके पीछे मेरे अनकहे त्याग और मेरे टूटे हुए सपने छिपे हैं।"

उस रात सिया को समझ आया कि एक बहू की चुप्पी का सच कितना कड़वा होता है। यह सिर्फ़ आदत नहीं, बल्कि एक गहरी घुटन का प्रतीक है, जहाँ एक औरत की पहचान और उसके सपनों को 'परिवार की इज़्ज़त' के नाम पर धीरे-धीरे मिटा दिया जाता है।

अगली सुबह, खाने की मेज पर, सिया ने एक नई शुरुआत की। जब जज साहब बिजनेस की बात कर रहे थे, तो सिया ने हिम्मत करके कहा, "पिताजी, यह बहुत अच्छी बात है। पर क्या हम इस बारे में भाभी (अनन्या) की राय भी जान सकते हैं? आख़िरकार, घर के बड़े आर्थिक फैसलों में उनकी समझ हमसे ज़्यादा है।"

उस एक पल के लिए मेज पर सन्नाटा छा गया। जज साहब ने हैरानी से पहले सिया को देखा, फिर अनन्या को। अनन्या की आँखों में आश्चर्य था, पर साथ ही एक हल्की सी उम्मीद की किरण भी।

उस दिन पहली बार, उस घर में किसी ने बहू की राय माँगी थी। यह एक छोटा सा कदम था, लेकिन यह उस घर की सालों पुरानी, खोखली 'इज़्ज़त' की दीवारों में एक दरार डालने के लिए काफ़ी था।

कहानी का अंत इस बात में नहीं था कि अनन्या बोलने लगी, बल्कि इस बात में था कि अब घर के लोगों ने उसकी चुप्पी को सुनना सीख लिया था। उन्होंने यह समझना शुरू कर दिया था कि असली इज़्ज़त ख़ामोश रहने में नहीं, बल्कि हर सदस्य के अनकहे योगदान को सम्मान देने में है।

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