हमारे पितृ देव: एक अनकहा आशीर्वाद
शर्मा परिवार में हर साल पितृ पक्ष का श्राद्ध बड़े विधि-विधान से होता था। घर के मुखिया, श्री विश्वनाथ शर्मा, एक रिटायर्ड सरकारी अफसर थे। उनके लिए यह सिर्फ एक रस्म नहीं, बल्कि अपने पूर्वजों, विशेषकर अपने पिता, के प्रति सम्मान व्यक्त करने का एक गहरा माध्यम था। उनके बेटे, आदित्य और रोहन, जो अब बड़े शहरों में काम करते थे, इन परंपराओं को बस एक छुट्टी और परिवार के साथ मिलने का मौका समझते थे।
आदित्य, जो एक मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर था, इन सब को अंधविश्वास मानता था। वह अक्सर कहता, "पापा, यह सब क्या है? कौओं को खाना खिलाने से दादाजी तक कैसे पहुँच जाएगा? इससे अच्छा है कि हम किसी गरीब को दान कर दें।"
विश्वनाथ जी बस मुस्कुरा देते और कहते, "बेटा, यह सिर्फ कौओं को खिलाना नहीं है। यह यादों को सींचना है। यह अपनी जड़ों से जुड़े रहने का एक तरीका है।"
इस साल, श्राद्ध के दिन, कुछ ऐसा हुआ जिसने आदित्य की सोच को हमेशा के लिए बदल दिया।
उस दिन, विश्वनाथ जी ने पूरे विधि-विधान से पूजा की, ब्राह्मणों को भोजन कराया और फिर छत पर जाकर कौओं के लिए भोजन रखा। हर साल की तरह, कुछ ही मिनटों में कौओं का एक झुंड आ गया और भोजन खाने लगा।
उसी समय, आदित्य की कंपनी से एक ज़रूरी फोन आया। एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट, जिस पर वह महीनों से काम कर रहा था, अचानक किसी तकनीकी खराबी के कारण खतरे में पड़ गया था। आदित्य का बॉस उस पर चिल्ला रहा था। आदित्य का चेहरा तनाव से सफेद पड़ गया। उसे लगा कि उसका करियर दाँव पर लग गया है।
फोन रखने के बाद, वह परेशान होकर छत पर टहलने लगा। उसकी नज़र कौओं पर पड़ी और उसके मुँह से निकला, "अगर आप सच में दादाजी के दूत हो, तो मेरी यह मुसीबत हल कर दो!" यह उसने मज़ाक में कहा था, पर उसके दिल में एक अनजाना सा डर था।
ठीक उसी समय, एक कौआ उड़कर आया और उसके कंधे पर बैठ गया। आदित्य चौंक गया। कौआ कुछ पल बैठा रहा, फिर उसने अपनी चोंच से आदित्य के कुर्ते की जेब में रखी एक कलम निकाली और उसे नीचे गिरा दिया। इसके बाद वह उड़ गया।
आदित्य को यह बहुत अजीब लगा। उसने नीचे झुककर कलम उठाई। यह वही कलम थी जो उसके दादाजी ने उसे दसवीं में टॉप करने पर उपहार में दी थी। उसने सालों से इस कलम का इस्तेमाल नहीं किया था, पर आज सुबह कुर्ता पहनते समय यह कलम पता नहीं कैसे उसकी जेब में आ गई थी।
वह कलम को हाथ में लिए सोच ही रहा था कि अचानक उसके दिमाग में बिजली की तरह एक विचार कौंधा। प्रोजेक्ट में जो तकनीकी खराढ़ी आ रही थी, उसका समाधान बिल्कुल वैसा ही था जैसा एक बार दादाजी ने उसे गणित का एक मुश्किल सवाल हल करते समय सिखाया था - "जब सीधा रास्ता न दिखे, तो समस्या को छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़कर देखो।"
आदित्य दौड़कर नीचे गया और अपने लैपटॉप पर बैठ गया। उसने उसी पुराने तरीके से समस्या को देखना शुरू किया, और घंटों की मशक्कत के बाद, उसने वह खराबी ढूँढ़ निकाली जिसे उसकी पूरी टीम नहीं ढूँढ़ पा रही थी। उसने तुरंत समाधान अपने बॉस को भेजा, और कुछ ही देर में जवाब आया - "बहुत बढ़िया, आदित्य! तुमने कंपनी को एक बड़े नुकसान से बचा लिया!"
आदित्य की आँखों में आँसू थे। वह वापस छत पर गया। कौए अब जा चुके थे, पर उसे लगा जैसे उसके दादाजी वहीं खड़े मुस्कुरा रहे हैं।
उस दिन उसे समझ आया कि हमारे पितृ देव किसी मूर्ति या तस्वीर में नहीं रहते। वे हमारी यादों में, हमारे संस्कारों में और हमारे डीएनए में बसते हैं। श्राद्ध सिर्फ एक कर्मकांड नहीं है, यह उन यादों और उन सीखों को फिर से जीने का एक दिन है जो हमारे पूर्वजों ने हमें दी हैं। वह कलम, दादाजी का सिखाया हुआ तरीका, और उस कौए का अजीब व्यवहार - यह सब शायद एक संयोग हो सकता था, पर आदित्य के लिए यह एक संकेत था।
उस शाम, जब पूरा परिवार आँगन में बैठा था, आदित्य अपने पिता के पास गया और उनके पैर छुए। "पापा, आप सही थे। हमारे पितृ हमसे दूर नहीं गए हैं। वे एक आशीर्वाद की तरह हमेशा हमारे साथ हैं, हमें बस उन्हें महसूस करने की ज़रूरत है।"
विश्वनाथ जी ने अपने बेटे को गले से लगा लिया। उनकी आँखों में संतोष के आँसू थे।
उस दिन के बाद, आदित्य के लिए श्राद्ध सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि अपने दादाजी के साथ एक मुलाक़ात का दिन बन गया। वह समझ गया था कि पितरों का आशीर्वाद किसी बाहरी दुनिया से नहीं आता, वह हमारे अंदर से ही आता है, बस हमें अपनी जड़ों को याद रखने की ज़रूरत होती है।
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