दामाद और ससुराल का प्यार: एक दिलचस्प किस्सा

 

दामाद और ससुराल का प्यार: एक दिलचस्प किस्सा

अहमदाबाद के पुराने शहर में, जहाँ हर गली एक कहानी कहती थी, वहाँ केशव का ससुराल था। केशव, दिल्ली का एक पढ़ा-लिखा, आधुनिक सोच वाला लड़का था। उसकी शादी इस पुराने शहर की लड़की, मीरा से हुई थी, जो एक ऐसे परिवार से थी जहाँ परंपराएँ हवा में घुली थीं। केशव के लिए उसका ससुराल एक दूसरी दुनिया जैसा था - जहाँ आज भी आँगन में बैठकर बातें होती थीं, जहाँ हर रिश्ते का एक अलिखित नियम था।

यह दामाद और ससुराल के प्यार की कहानी तब दिलचस्प हो गई, जब केशव को अपनी कंपनी के एक प्रोजेक्ट के लिए तीन महीने अहमदाबाद में रुकना पड़ा। उसके ससुर, जिन्हें सब 'बापूजी' कहते थे, ने ज़ोर देकर कहा, "होटल में क्यों? यह भी तो तुम्हारा ही घर है।"

केशव थोड़ा झिझका, पर मान गया।

शुरू के कुछ दिन बड़े अजीब थे। बापूजी, एक कम बोलने वाले, अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। सासू माँ, जिन्हें सब 'बा' कहते थे, की दुनिया उनकी रसोई और पूजा घर तक ही सीमित थी। केशव को लगता था कि वह एक मेहमान है, जिसे बस औपचारिकता के लिए रखा गया है।

एक दिन, केशव अपने लैपटॉप पर देर रात तक काम कर रहा था। अचानक उसके कमरे का दरवाज़ा धीरे से खुला। बापूजी हाथ में दूध का एक गिलास लिए खड़े थे। उन्होंने कुछ कहा नहीं, बस गिलास मेज पर रखा और चले गए। केशव हैरान रह गया। उसके अपने पिता ने भी कभी उसके लिए ऐसा नहीं किया था। यह एक छोटी सी घटना थी, पर इसने केशव के दिल में एक बीज बो दिया।

धीरे-धीरे, केशव ने उस घर की खामोशी को पढ़ना सीख लिया। उसने देखा कि बापूजी हर सुबह चुपचाप उसके जूतों पर पॉलिश कर देते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि 'ऑफिस जाने वाले लड़के के जूते चमकने चाहिए।' उसने महसूस किया कि बा' हर दिन उसकी पसंद की सब्ज़ी बनाती थीं, यह जानने के लिए कि दिल्ली में उसकी माँ क्या बनाती है, उन्होंने मीरा को कई बार फोन किया था।

यह ससुराल का प्यार शब्दों का मोहताज नहीं था। यह छोटी-छोटी हरकतों में छिपा था - बिना कहे दिए गए दूध के गिलास में, चमकते हुए जूतों में, और पसंद के खाने में।

कहानी में असली मोड़ तब आया, जब बापूजी की पुरानी दुकान पर मुसीबत आ गई। नगर निगम ने सड़क चौड़ी करने के लिए कई पुरानी दुकानों को तोड़ने का नोटिस दे दिया, जिसमें बापूजी की सालों पुरानी कपड़ों की दुकान भी शामिल थी। बापूजी टूट गए। वह दुकान सिर्फ़ उनकी रोज़ी-रोटी नहीं, बल्कि उनकी पहचान थी, उनके पिता की विरासत थी।

घर में एक मायूसी छा गई। बापूजी ने खाना-पीना छोड़ दिया और चुपचाप एक कोने में बैठे रहते।

उस रात केशव सो नहीं पाया। उसने देखा कि कैसे एक खामोश आदमी अंदर ही अंदर घुट रहा है। उसने फैसला किया कि वह सिर्फ़ एक दामाद नहीं, बल्कि एक बेटा बनकर सोचेगा।

अगले दिन, केशव ऑफिस नहीं गया। उसने बापूजी की दुकान के सारे पुराने कागज़ात निकाले, नगर निगम के चक्कर काटे, और शहर के सबसे अच्छे वकील से मिला। उसने ऑनलाइन याचिका शुरू की, जिसमें शहर की विरासत को बचाने की अपील की गई। उसने मोहल्ले के सारे दुकानदारों को इकट्ठा किया और उन्हें संगठित किया।

बापूजी यह सब चुपचाप देख रहे थे। वे हैरान थे कि जिस 'दिल्ली वाले लड़के' को वे बाहरी समझते थे, वह उनकी लड़ाई को अपनी लड़ाई बनाकर लड़ रहा था।

तीन हफ्तों की अथक मेहनत के बाद, नतीजा आया। जन-दबाव और कानूनी दलीलों के कारण, नगर निगम ने अपना फैसला बदल दिया और दुकानों को तोड़ने की बजाय सड़क का नक्शा बदलने पर सहमति जताई।

जिस दिन यह खबर आई, उस दिन घर में दिवाली जैसा माहौल था। बा' ने आरती की थाली घुमाई, पर इस बार भगवान के लिए नहीं, केशव के लिए।

रात में, जब केशव अपने कमरे में जा रहा था, बापूजी ने उसे रोका। उनकी आँखों में आँसू थे। उन्होंने केशव का हाथ पकड़ा और बस इतना कहा, "तुम दामाद नहीं, बेटा हो। मेरे अपने बेटे ने भी शायद इतना नहीं किया होता।"

यह वाक्य केशव के लिए किसी भी पुरस्कार से बड़ा था। उस दिन दामाद और ससुराल का रिश्ता एक नई परिभाषा पा चुका था। केशव समझ गया था कि प्यार और अपनापन जताने के लिए खून का रिश्ता होना ज़रूरी नहीं है। कभी-कभी, एक शांत ससुर के पॉलिश किए हुए जूते, दुनिया के किसी भी 'आई लव यू' से ज़्यादा कीमती होते हैं।

जब तीन महीने बाद केशव दिल्ली लौट रहा था, तो वह सिर्फ़ एक प्रोजेक्ट पूरा करके नहीं, बल्कि एक दूसरा परिवार पाकर लौट रहा था - एक ऐसा परिवार, जहाँ प्यार बोला नहीं जाता, बस निभाया जाता है।

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