पितृ पक्ष में पितरों के लिए दादी की पूजा विधि: यादों का प्रसाद
हर साल पितृ पक्ष आते ही, हमारे घर का माहौल बदल जाता था। यह बदलाव किसी दुख का नहीं, बल्कि एक गहरी श्रद्धा और स्मृतियों का होता था। इस बदलाव की धुरी थीं हमारी दादी, जिन्हें हम सब 'अम्मा' कहते थे। अम्मा के लिए पितरों के लिए पूजा सिर्फ एक कर्मकांड नहीं, बल्कि अपने बिछड़े हुए प्रियजनों के साथ फिर से जुड़ने का एक माध्यम था। उनकी पूजा विधि किसी शास्त्रीय किताब से नहीं, बल्कि उनके दिल और उनकी यादों से निकलती थी।
यह कहानी है अम्मा की, मेरी माँ (सुजाता) की, और मेरी। यह कहानी है उस पीढ़ी के अंतराल की, जहाँ एक तरफ़ अनुभव और आस्था है, और दूसरी तरफ़ आधुनिकता और सवाल।
मेरी माँ, सुजाता, एक पढ़ी-लिखी और तर्कवादी महिला थीं। उन्हें अम्मा की कई बातें अंधविश्वास लगती थीं। वह श्राद्ध तो करती थीं, पर बस एक कर्तव्य समझकर।
"माँजी," वह अक्सर कहतीं, "यह सब करने से क्या सच में दादाजी तक कुछ पहुँचता है? इससे अच्छा तो हम किसी ज़रूरतमंद को भोजन करा दें।"
अम्मा मुस्कुरातीं। उनकी झुर्रियों में एक गहरी समझ छिपी होती थी। "बेटी, ज़रूरतमंद को भोजन कराना तो सबसे बड़ा धर्म है, और वह हम करते ही हैं। पर यह पूजा पेट भरने के लिए नहीं, आत्मा को तृप्त करने के लिए है। यह हमारे पितरों के लिए एक धन्यवाद है, कि उन्होंने हमें यह जीवन दिया।"
अम्मा की पूजा विधि बहुत अनूठी थी। श्राद्ध के दिन, वह सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठ जातीं। रसोई में घुसने से पहले, वह स्नान करके आँगन में लगे पीपल के पेड़ को जल चढ़ातीं। उनका मानना था कि पितृ पक्ष में हमारे पितर इसी पेड़ पर वास करते हैं।
फिर वह रसोई में जातीं। उस दिन रसोई में लहसुन-प्याज का प्रवेश वर्जित होता था। वह सबसे पहले अपने पितरों की पसंदीदा खीर बनातीं। खीर बनाते समय वह किसी से बात नहीं करती थीं। उनके होंठ धीरे-धीरे हिलते रहते थे, मानो वह कोई मंत्र नहीं, बल्कि अपने ससुर जी (मेरे दादाजी) से बातें कर रही हों। वह बतातीं, "तुम्हारे दादाजी को गाड़ी खीर पसंद थी, जिसमें चावल कम और मेवा ज़्यादा हो।"
इसके बाद वह पाँच तरह की सब्ज़ियाँ बनातीं - हर सब्ज़ी उस पुरखे की पसंद की होती, जिसका उस दिन श्राद्ध होता। मेरी दादी (अम्मा की सास) को उड़द दाल के बड़े बहुत पसंद थे, तो वह ज़रूर बनते।
खाना बनाने के बाद, वह एक बड़ी सी थाली सजातीं। उसमें से पाँच छोटे-छोटे हिस्से निकालकर, जिन्हें 'पंचबलि' कहा जाता था, घर के बाहर अलग-अलग जगहों पर रखतीं - गाय, कुत्ते, कौए, देवता और चींटी के लिए।
अम्मा कहती थीं, "हमारे पितर किसी भी रूप में आ सकते हैं। हमें हर जीव का सम्मान करना चाहिए।"
सबसे मार्मिक क्षण तब आता, जब वह छत पर कौओं के लिए भोजन रखने जातीं। वह भोजन रखकर दूर खड़ी हो जातीं और हाथ जोड़कर इंतज़ार करतीं। उनकी आँखों में एक अजीब सी प्रतीक्षा होती थी।
"अम्मा, आप कौओं का इतनी बेसब्री से इंतज़ार क्यों करती हैं?" मैंने एक बार पूछा था।
उन्होंने कहा, "बेटा, कौए हमारे पितरों के दूत माने जाते हैं। जब वे आकर भोजन ग्रहण करते हैं, तो लगता है जैसे हमारे पितरों ने हमारा प्रसाद स्वीकार कर लिया। एक सुकून मिलता है।"
इस साल, श्राद्ध के दिन, एक अजीब घटना हुई। अम्मा ने पूरी श्रद्धा से भोजन बनाया और छत पर रखा, पर घंटों बीत गए, एक भी कौआ नहीं आया।
अम्मा का चेहरा उतर गया। उनकी आँखों में चिंता और दुख की लकीरें खिंच गईं। "मुझसे कोई भूल हो गई क्या? क्या मेरे पितर मुझसे नाराज़ हैं?" वह बार-बार यही दोहरा रही थीं।
मेरी माँ, सुजाता, को यह सब देखकर बहुत बुरा लगा। उन्हें अम्मा की यह हालत देखी नहीं जा रही थी। उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि यह सिर्फ़ एक अंधविश्वास नहीं, बल्कि एक माँ और एक बहू का अपनी जड़ों से गहरा भावनात्मक जुड़ाव है।
तभी, माँ को कुछ याद आया। उन्होंने मुझे धीरे से कहा, "जा, दौड़कर अपने पापा को बुला ला।"
पापा उस समय अपने कमरे में एक ज़रूरी ऑनलाइन मीटिंग में थे। जब मैंने उन्हें बुलाया, तो वह थोड़ा झल्लाए, "क्या है? अभी मैं व्यस्त हूँ।"
माँ खुद उनके कमरे में गईं। "सुनिए जी," उन्होंने बड़ी नरमी से कहा, "आपकी माँ बाहर बहुत परेशान हैं। आज आपके दादाजी का श्राद्ध है और कोई कौआ नहीं आया। उन्हें लग रहा है कि उनके पितर नाराज़ हैं।"
पापा को अपनी माँ की आस्था का पता था। उन्होंने अपनी मीटिंग बीच में ही छोड़ दी।
वह बाहर आए और अम्मा के पास जाकर बैठ गए। "क्या हुआ, अम्मा?"
"कुछ नहीं बेटा, तू जा अपना काम कर," अम्मा ने अपनी निराशा छिपाने की कोशिश की।
पापा ने उनका हाथ पकड़ लिया। "अम्मा, आपको याद है, जब मैं छोटा था, तो दादाजी मुझे अपने कंधों पर बिठाकर यही छत दिखाते थे। वह कहते थे, 'देख, यह आसमान कितना बड़ा है। हम सब एक दिन यहीं तारे बन जाएँगे और अपने बच्चों को देखते रहेंगे।'"
यह सुनकर अम्मा की आँखें भर आईं।
पापा ने कहना जारी रखा, "अम्मा, दादाजी को कौए के रूप में आने की ज़रूरत नहीं है। वह तो हमेशा यहीं हैं, मेरे अंदर, आपकी यादों में।"
उन्होंने अपनी पत्नी, सुजाता, को इशारा किया। सुजाता वह थाली लेकर आई जो अम्मा ने सजाई थी। पापा ने उस थाली में से एक निवाला उठाया और अपनी माँ, अम्मा, के मुँह में डाल दिया।
"आप ही खा लीजिए, अम्मा," उन्होंने एक nghẹn ngat आवाज़ में कहा। "आपसे बढ़कर हमारे घर में पितरों का स्वरूप और कौन हो सकता है? आपने ही तो हमें उन सब से जोड़े रखा है।"
उस एक पल में, अम्मा की सारी चिंता, सारा दुख धुल गया। उन्होंने रोते हुए अपने बेटे को गले से लगा लिया।
उस दिन, हम सबने सीखा कि पितृ पक्ष में पितरों के लिए पूजा का सबसे बड़ा विधान है - अपने जीवित बड़ों का सम्मान करना। सच्चा प्रसाद वह है जो हम उनकी यादों और उनके दिए हुए संस्कारों को जीवित रखकर बनाते हैं। कौए आएँ या न आएँ, पर अगर हमारे घर के बड़े खुश और संतुष्ट हैं, तो हमारे पितरों का आशीर्वाद हम तक ज़रूर पहुँचता है।
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