गाँव की हवेली का राज़

 

गाँव की हवेली का राज़

रामपुर गाँव के सिरे पर खड़ी वह पुरानी हवेली, समय के थपेड़ों से जर्जर, एक खामोश पहेली की तरह थी। उसकी टूटी हुई खिड़कियाँ और दीवारों पर चढ़ी जंगली बेलें, उसे और भी रहस्यमयी बनाती थीं। गाँव वालों के लिए वह सिर्फ एक खंडहर नहीं, बल्कि एक डर का प्रतीक थी। कहते हैं, उस हवेली में 50 साल से कोई नहीं गया था। लोगों का मानना था कि वहाँ ठाकुर इंद्रजीत सिंह की आत्मा भटकती है, जिनकी रहस्यमयी मौत उसी हवेली में हुई थी।

यह कहानी है दो जिगरी दोस्तों, कबीर और रोहन की। कबीर, जो शहर से छुट्टियों में अपने गाँव आया था, एक तर्कवादी और साहसी लड़का था। उसे भूत-प्रेत की कहानियों पर हँसी आती थी। वहीं रोहन, जो गाँव में ही पला-बढ़ा था, इन कहानियों को सुनकर डरता तो था, पर अपने दोस्त कबीर के लिए कुछ भी कर सकता था।

"यार कबीर, रहने दे," रोहन ने डरते हुए कहा, जब कबीर ने उस रात हवेली में जाने का प्लान बनाया। "गाँव के लोग डरते थे, कहते थे कि वहाँ से अजीब आवाज़ें आती हैं।"

"अरे, ये सब मन का वहम है, रोहन," कबीर ने हँसते हुए कहा। "आज हम इस राज़ से पर्दा उठाकर ही रहेंगे। तू मेरा दोस्त है न? मेरा साथ नहीं देगा?"

दोस्ती की कसम के आगे रोहन का डर पिघल गया।

आधी रात को, मैं और मेरा दोस्त हवेली के अंदर पहुँचे। चाँदनी रात में हवेली और भी भयानक लग रही थी। हवा की सांय-सांय की आवाज़ जैसे कुछ अनिष्ट होने का संकेत दे रही थी। हवेली का विशाल, लकड़ी का दरवाज़ा बंद था, पर जैसे ही कबीर ने उसे छूने के लिए हाथ बढ़ाया, दरवाज़ा अपने आप चरमराकर खुला... और अंदर घना अंधेरा था।

दोनों ने अपनी टॉर्च जलाई। अंदर हवा में एक अजीब सी सीलन और धूल की गंध थी। दीवारों पर लगे मकड़ी के जाले और चमगादड़ों की फड़फड़ाहट माहौल को और भी डरावना बना रही थी।

"देख, कुछ नहीं है यहाँ," कबीर ने अपनी हिम्मत बँधाते हुए कहा।

वे धीरे-धीरे हवेली के मुख्य हॉल में पहुँचे, जहाँ दीवारों पर कई पुरानी तस्वीरें टँगी थीं। अचानक, एक पुरानी तस्वीर ज़मीन पर गिरी।

दोनों चौंक गए। कबीर ने कांपते हाथों से तस्वीर उठाई। वह धूल से सनी थी। उसने अपनी शर्ट से उसे साफ किया। टॉर्च की रोशनी में जो दिखा, उससे कबीर के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

तस्वीर में मेरा दोस्त रोहन खड़ा था... लेकिन ये तस्वीर 40 साल पुरानी थी। तस्वीर में रोहन ने वही कपड़े पहने थे जो उसने आज पहने थे, और वह उसी जगह पर खड़ा था जहाँ वह अभी खड़ा था, बस उसके चेहरे पर एक अजीब, अनजानी मुस्कान थी।

"यह... यह कैसे हो सकता है, रोहन?" कबीर ने हकलाते हुए पूछा।

उसने रोहन को देखने के लिए टॉर्च घुमाई। पर रोहन वहाँ नहीं था।

"रोहन! रोहन!" कबीर चीखा। उसकी आवाज़ उस खाली हवेली में गूँजकर रह गई।

तभी, उसे अपने पीछे किसी के हँसने की आवाज़ सुनाई दी। एक ठंडी, भयानक हँसी। मैंने मुड़कर देखा... वो वहाँ नहीं था। पर उसे महसूस हुआ कि कोई है, जो उसे देख रहा है।

डर के मारे कबीर के हाथ से तस्वीर छूट गई। वह पागलों की तरह दरवाज़े की ओर भागा। उसे लगा जैसे पूरी हवेली साँस ले रही है, जैसे दीवारें उसे अपनी ओर खींच रही हैं। वह गिरता-पड़ता किसी तरह हवेली से बाहर निकला और सीधा अपने घर की ओर भागा।

सुबह, हवेली फिर से बंद थी... उसका दरवाज़ा वैसे ही बंद था जैसे सालों से था, उस पर मोटी-मोटी जंजीरें और एक पुराना ताला लगा हुआ था। मानो रात में कुछ हुआ ही न हो।

और मेरा दोस्त रोहन कभी नहीं मिला।

गाँव में कोहराम मच गया। पुलिस आई, खोज हुई, पर रोहन का कोई सुराग नहीं मिला। कबीर ने सबको रात की कहानी बताई, पर किसी ने उसकी बात पर यकीन नहीं किया। सबको लगा कि वह सदमे में है या कोई कहानी गढ़ रहा है।

सालों बाद, कबीर अब एक लेखक बन चुका है। वह आज भी हर साल उस दिन रामपुर गाँव आता है। वह घंटों उस हवेली के बाहर चुपचाप खड़ा रहता है, अपनी आँखों में पश्चाताप और एक अनसुलझी पहेली लिए।

वह जानता है कि उस तस्वीर में क्या था। उस रात हवेली ने उसे नहीं, रोहन को चुना था। शायद रोहन का उस हवेली से कोई पुराना, जन्मों का नाता था। शायद ठाकुर इंद्रजीत सिंह की आत्मा ने उसे अपना साथी बना लिया था।

यह कहानी हमें एक सबक सिखाती है - कि कुछ रहस्य ऐसे होते हैं, जिन्हें न छेड़ा जाए तो ही बेहतर है। कुछ बंद दरवाज़ों के पीछे सिर्फ़ अंधेरा नहीं, बल्कि ऐसी सच्चाईयाँ भी कैद होती हैं, जिन्हें जानने की कीमत बहुत भारी हो सकती है। कबीर ने वह कीमत अपनी दोस्ती खोकर चुकाई थी।

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