अम्मा की परछाई: एक बेटी का अनकहा संघर्ष
सावित्री देवी, जिन्हें पूरा मोहल्ला 'अम्माजी' कहता था, उस पुराने घर की आत्मा थीं। उनकी मौजूदगी सूरज की पहली किरण की तरह थी - शांत, स्थिर और जीवनदायिनी। उनकी बेटी, राधिका, बिल्कुल उनकी परछाई थी। वही बड़ी-बड़ी शांत आँखें, वही धैर्य और वही खामोशी से सब कुछ सह जाने की आदत। लोग अक्सर कहते, "राधिका तो बिल्कुल अपनी अम्मा की परछाई है।"
यह कहानी है एक बेटी की, जो अपनी माँ की परछाई बनकर जीती तो रही, पर अपनी खुद की पहचान खोजने के लिए संघर्ष करती रही।
राधिका का एक छोटा भाई था, नीरज। घर में हमेशा से ही नीरज को ज़्यादा तवज्जो दी जाती थी। वह बेटा था, घर का चिराग था। राधिका ने बचपन से ही अपनी इच्छाओं को अपनी माँ की खामोश आँखों के इशारे पर दबाना सीख लिया था। अगर घर में एक ही सेब होता, तो वह नीरज के हिस्से में आता। अगर नए कपड़े बनते, तो पहले नीरज के लिए बनते। अम्मा कुछ कहती नहीं थीं, पर उनकी हर हरकत में यह अलिखित नियम साफ झलकता था।
राधिका ने कभी शिकायत नहीं की। वह अपनी माँ से बहुत प्यार करती थी और उन्हें किसी भी तरह का दुख नहीं पहुँचाना चाहती थी। उसे लगता था कि एक अच्छी बेटी होने का यही मतलब है - त्याग करना और चुप रहना।
इस कहानी में एक और किरदार है, राधिका की मामी, सुधा जी। सुधा जी एक प्रगतिशील विचारों वाली महिला थीं और वह अक्सर अपनी बहन, सावित्री, को टोकती थीं।
"दीदी," वह कहतीं, "आप राधिका के साथ अन्याय कर रही हैं। बेटे-बेटी में इतना फर्क क्यों? वह भी तो आपकी औलाद है।"
अम्मा बस एक ठंडी साँस भरकर कहतीं, "सुधा, तू नहीं समझेगी। समाज के नियम ऐसे ही हैं। बेटी तो पराया धन होती है, उसे सहना और झुकना ही सीखना पड़ता है।"
समय बीता। राधिका ने अपनी पढ़ाई पूरी की और उसे शहर की एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई। यह उसके जीवन का पहला कदम था, जो उसने अपनी परछाई से बाहर निकलकर उठाया था।
लेकिन अम्मा इससे खुश नहीं थीं। "नौकरी करके क्या करेगी? अब तेरी शादी की उम्र है। अच्छा सा लड़का देखकर घर बसा।"
राधिका ने पहली बार हिम्मत करके कहा, "अम्मा, मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूँ। मैं कुछ बनना चाहती हूँ।"
यह सुनकर अम्मा की आँखों में एक अजीब सी पीड़ा उतर आई, जैसे उनकी अपनी कोई पुरानी, दबी हुई ख्वाहिश जाग गई हो। पर उन्होंने कुछ नहीं कहा।
राधिका शहर चली गई। वह मेहनत करती, पैसे कमाती और हर महीने अपनी तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा घर भेज देती। उसे लगता था कि शायद अब उसकी माँ को उस पर गर्व होगा।
कहानी में मोड़ तब आया, जब नीरज ने एक बिजनेस शुरू करने का फैसला किया और उसमें उसे भारी नुकसान हो गया। घर पर कर्ज चढ़ गया।
उस मुश्किल समय में, राधिका एक चट्टान की तरह अपने परिवार के साथ खड़ी हुई। उसने अपनी सारी जमा-पूँजी अपने भाई को दे दी और बैंक से लोन लेकर घर का कर्ज चुकाया। उसने दिन-रात एक करके काम किया, ताकि परिवार पर कोई आँच न आए।
एक साल बाद, जब सब कुछ ठीक हो गया, तो नीरज की शादी तय हुई। घर में जश्न का माहौल था। राधिका ने अपनी शादी के लिए बचाए हुए सारे पैसे भी भाई की शादी में लगा दिए।
शादी के दिन, जब सब मेहमानों के सामने अम्मा अपने बेटे-बहू को आशीर्वाद दे रही थीं, तो उन्होंने कहा, "मेरा बेटा हीरा है। उसने आज अपने पैरों पर खड़े होकर हमारे खानदान की इज़्ज़त बचा ली।"
यह शब्द राधिका के दिल में तीर की तरह चुभ गए। उसकी माँ ने एक बार भी उसका नाम नहीं लिया। उसका त्याग, उसका संघर्ष, सब कुछ अनदेखा कर दिया गया। वह अपनी माँ की नज़रों में आज भी सिर्फ एक परछाई थी, जिसका अपना कोई वजूद नहीं था।
उस रात, राधिका का सब्र टूट गया। वह अपनी माँ के पास गई, उसकी आँखों में सालों का दबा हुआ दर्द था।
"अम्मा," उसने कांपती आवाज़ में कहा, "मैं आपकी परछाई बनकर थक गई हूँ। क्या मैं आपकी बेटी नहीं हूँ? मेरा त्याग आपको क्यों नहीं दिखता? आपने आज सबके सामने सिर्फ भैया का नाम लिया, जैसे मैंने कुछ किया ही नहीं।"
अम्मा चुपचाप सुनती रहीं। उनकी शांत आँखों से आँसू बहने लगे।
उन्होंने राधिका का हाथ पकड़ा और उसे अपने कमरे में ले गईं। उन्होंने एक पुराना, लकड़ी का संदूक खोला और उसमें से एक डायरी निकाली। वह डायरी अम्मा की थी।
"इसे पढ़," उन्होंने कहा।
राधिका ने डायरी खोली। उसमें अम्मा के अधूरे सपनों की कहानी थी। वह भी पढ़ना चाहती थीं, एक टीचर बनना चाहती थीं। पर उनके पिता ने उनकी शादी जल्दी कर दी थी। डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखा था - "आज मेरी बेटी हुई है। मैं उसे कभी अपनी जैसी ज़िंदगी नहीं जीने दूँगी। मैं उसे इतना मजबूत बनाऊँगी कि उसे किसी सहारे की ज़रूरत न पड़े। मैं उसे त्याग करना सिखाऊँगी, पर इसलिए नहीं कि वह एक लड़की है, बल्कि इसलिए कि त्याग ही इंसान को सबसे मजबूत बनाता है।"
यह पढ़कर राधिका स्तब्ध रह गई।
अम्मा ने रोते हुए कहा, "बेटी, मैं जान-बूझकर तेरे साथ कठोर बनी रही। मैंने हमेशा नीरज को ज़्यादा तवज्जो दी, ताकि तेरे अंदर एक आग जले, कुछ कर दिखाने की आग। मैं चाहती थी कि तू इस घर, इस समाज के नियमों से लड़कर अपनी जगह बनाए। मैं अगर तुझे सिर पर बिठा लेती, तो तू भी मेरी तरह एक कमजोर औरत बनकर रह जाती।"
उन्होंने अपनी बेटी को गले से लगा लिया। "मैं जानती थी कि मेरा हीरा कौन है। पर मैं यह दुनिया को तब दिखाना चाहती थी, जब तू अपनी चमक से सबको अंधा कर दे। मैंने आज सबके सामने तेरा नाम इसलिए नहीं लिया, क्योंकि तेरा कद इतना बड़ा हो चुका है कि उसे मेरे नाम की ज़रूरत नहीं है।"
उस रात, रा-ध-िका को समझ आया कि उसकी माँ की चुप्पी और कठोरता उनका अन्याय नहीं, बल्कि उनका अपनी बेटी को दुनिया से लड़ने के लिए तैयार करने का एक अनूठा तरीका था। वह अम्मा की परछाई नहीं थी, वह तो अम्मा के अधूरे सपनों की जलती हुई मशाल थी।
यह कहानी हमें सिखाती है कि कभी-कभी माँ का प्यार डाँट, उपेक्षा और कठोरता के पर्दे के पीछे छिपा होता है। वह हमें जान-बूझकर मुश्किलों में धकेलती है, ताकि हम तैरना सीख सकें। एक माँ की परछाई बनना शायद एक बेटी की नियति हो, पर उस परछाई से बाहर निकलकर अपनी पहचान बनाना ही उसके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होती है।
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