गाँव की बेटी: जड़ों की ताकत और सपनों की उड़ान

 

गाँव की बेटी: जड़ों की ताकत और सपनों की उड़ान
गाँव की बेटी

जिस मिट्टी में हम जन्म लेते हैं, उसकी खुशबू हमारी साँसों में हमेशा बसी रहती है, चाहे हम कितने ही ऊँचे आसमान में क्यों न उड़ जाएँ। यह कहानी है ऐसी ही एक गाँव की बेटी, राधिका, की। यह कहानी है उसकी जड़ों की ताकत और उसके सपनों की उस उड़ान की, जिसने न सिर्फ़ उसकी अपनी ज़िंदगी, बल्कि उसके पूरे गाँव की सोच को एक नई दिशा दी।

राधिका, हरियाणा के एक छोटे से गाँव, रामपुरा, की बेटी थी। उसके पिता, चौधरी धर्मपाल, एक स्वाभिमानी किसान थे, जिनके लिए उनकी ज़मीन और उनके उसूल ही सब कुछ थे। राधिका की माँ, संतोष, एक शांत और ममतामयी महिला थीं, जो अपनी बेटी की आँखों में पलते हर सपने को पढ़ लेती थीं।

यह एक आम भारतीय परिवार के संघर्ष की कहानी है, जहाँ परंपरा और प्रगति के बीच एक बेटी अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही थी।

राधिका बचपन से ही पढ़ाई में अव्वल थी। उसकी आँखों में एक अलग ही चमक थी, एक कुछ कर गुजरने की ललक थी। पर रामपुरा गाँव में, लड़कियों की दुनिया चूल्हे-चौके से शुरू होकर ससुराल पर खत्म हो जाती थी।

"चौधरी साहब," गाँव के लोग अक्सर धर्मपाल जी से कहते, "छोरी सयानी हो गई है, हाथ पीले कर दो। ज़्यादा पढ़ा-लिखाकर क्या करोगी?"

धर्मपाल जी भी इसी सोच में बँधे थे। पर राधिका की माँ, संतोष, अपनी बेटी के सपनों के आगे एक ढाल बनकर खड़ी थीं।

"जी," वह बड़ी विनम्रता से कहतीं, "पढ़ाई कभी बेकार नहीं जाती। हमारी बेटी हमारा नाम रोशन करेगी।"

यह एक माँ का विश्वास था, जो अपनी बेटी की सबसे बड़ी ताकत था।

राधिका ने गाँव के स्कूल से टॉप किया। अब आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाना था, जो धर्मपाल जी के लिए 'खानदान की इज़्ज़त' पर एक दाग की तरह था।

"हमारी छोरियाँ शहर में अकेले नहीं रहतीं!" उन्होंने अपना फैसला सुना दिया।

उस रात, घर में एक गहरा सन्नाटा था। राधिका का दिल टूट चुका था। तभी, उसके ताऊजी, जो शहर में रहते थे और छुट्टियों में गाँव आए हुए थे, ने एक रास्ता निकाला। वह राधिका को अपने साथ शहर ले जाने और अपनी निगरानी में पढ़ाने के लिए तैयार हो गए। बहुत ना-नुकर के बाद, धर्मपाल जी मान तो गए, पर एक शर्त पर।

"याद रखना, राधिका," उन्होंने कहा, "अगर हमारी इज़्ज़त पर कोई आँच आई, तो मैं तुझे कभी माफ नहीं करूँगा।"

राधिका ने अपने पिता की आँखों में देखते हुए एक खामोश वादा किया।

शहर की ज़िंदगी राधिका के लिए एक नई दुनिया थी। यहाँ लड़कियाँ जीन्स पहनती थीं, बेबाकी से अपनी राय रखती थीं, और अपने भविष्य के फैसले खुद लेती थीं। राधिका ने भी खुद को इस दुनिया में ढालना शुरू किया, पर उसने अपनी जड़ों को कभी नहीं छोड़ा। वह आज भी उतनी ही सरल, संस्कारी और अपनी मिट्टी से जुड़ी हुई थी।

उसने दिन-रात एक करके पढ़ाई की और एक बड़ी कृषि कंपनी (AgriTech) में साइंटिस्ट बन गई।

यह एक गाँव की बेटी की सफलता थी, पर उसकी असली लड़ाई तो अब शुरू होनी थी।

जब वह सालों बाद एक सफल महिला बनकर अपने गाँव लौटी, तो उसने देखा कि गाँव में कुछ नहीं बदला है। किसान आज भी सूखे और कर्ज के बोझ तले दबे हुए थे। लड़कियाँ आज भी दसवीं के बाद घर बैठा दी जाती थीं।

उसने अपने पिता, धर्मपाल जी, से कहा, "बापू, मैं अपने गाँव के लिए कुछ करना चाहती हूँ। मैं यहाँ एक छोटा सा 'किसान सहायता केंद्र' खोलना चाहती हूँ, जहाँ मैं किसानों को नई तकनीक और जैविक खेती के बारे में बताऊँगी।"

धर्मपाल जी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। पर गाँव के कुछ लोगों ने इसका विरोध किया।

"एक छोरी हमें सिखाएगी कि खेती कैसे करते हैं?" उन्होंने ताना मारा। "यह शहर में रहकर हमारे गाँव के तौर-तरीके भूल गई है।"

यह एक गलतफहमी थी, जो प्रगति के रास्ते में हमेशा खड़ी हो जाती है।

राधिका ने हार नहीं मानी। उसने किसी से बहस नहीं की। उसने बस अपना काम शुरू कर दिया। उसने सबसे पहले अपने पिता के बंजर पड़े खेत के एक छोटे से हिस्से को चुना।

उसने वहाँ ड्रिप इरिगेशन (टपक सिंचाई) और जैविक खाद का इस्तेमाल किया। उसने किसानों को मिट्टी की जाँच और मौसम के अनुसार फसल चुनने के महत्व के बारे में बताया। शुरू में कोई उसकी बात सुनने को तैयार नहीं था।

वह अकेली ही उस खेत में मेहनत करती रही। उसकी माँ और ताऊजी उसका हौसला बढ़ाते रहे।

छह महीने बाद, एक चमत्कार हुआ।

जिस खेत को सब बंजर समझते थे, वह आज हरी-भरी फसल से लहलहा रहा था। पैदावार गाँव के बाकी खेतों से दोगुनी थी, और लागत आधी से भी कम।

यह देखकर पूरे गाँव की आँखें खुल गईं। वही लोग जो कल तक उस पर हँसते थे, आज उससे सलाह लेने के लिए लाइन में खड़े थे।

उस दिन, धर्मपाल जी ने अपनी बेटी को गले से लगा लिया। उनकी आँखों में आँसू थे। "मुझे माफ कर दे, बेटी," उन्होंने कहा। "मैं तो तुझे सिर्फ अपनी इज़्ज़त समझता रहा, पर तू तो इस पूरे गाँव की ताकत निकली।"

राधिका ने अपने गाँव की तकदीर बदल दी। उसका 'किसान सहायता केंद्र' अब एक बड़ी संस्था बन चुका था, जहाँ न सिर्फ किसानों को मदद मिलती थी, बल्कि लड़कियों को आगे की पढ़ाई और नए हुनर सीखने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता था।

यह कहानी हमें सिखाती है कि एक गाँव की बेटी जब अपने सपनों की उड़ान भरती है, तो वह आसमान में अकेले नहीं उड़ती। वह अपने साथ अपने परिवार, अपने समाज और अपनी जड़ों को भी एक नई ऊँचाई पर ले जाती है। उसकी सफलता सिर्फ उसकी अपनी नहीं, बल्कि हर उस सोच की जीत होती है जो बेटियों को कमजोर समझने की गलती करती है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ