टूटी चप्पल का सपना: एक पिता के त्याग की अनकही कहानी
कभी-कभी ज़िंदगी के सबसे बड़े सपने, सबसे मामूली चीज़ों में छिपे होते हैं। यह कहानी है ऐसे ही एक सपने की, एक टूटी चप्पल के सपने की। यह कहानी है एक पिता के निःस्वार्थ प्रेम की, एक बेटे की अधूरी ख्वाहिश की, और उस एक एहसास की, जो हमें रिश्तों का असली मोल सिखाता है।
यह कहानी है दस साल के मनु की, और उसके पिता, रामभरोसे की।
रामभरोसे, एक छोटे से गाँव में रहने वाले एक गरीब मोची थे। उनकी पूरी दुनिया गाँव के पुराने बरगद के पेड़ के नीचे रखी एक छोटी सी पेटी थी, जिसमें उनके औजार और लोगों की टूटी-फूटी चप्पलें होती थीं। उनकी आमदनी इतनी कम थी कि घर का खर्च चलाना भी एक रोज़ की जंग थी।
मनु, उनका इकलौता बेटा, एक होनहार और समझदार लड़का था। वह जानता था कि उसके पिता कितनी मेहनत करते हैं। वह कभी किसी चीज़ की ज़िद नहीं करता था। पर इस साल, उसके मन में एक सपना पल रहा था।
गाँव के स्कूल में स्वतंत्रता दिवस पर एक दौड़ प्रतियोगिता होने वाली थी। मनु दौड़ने में बहुत तेज़ था, और वह इस दौड़ को जीतना चाहता था। पर उसकी चप्पलें... वे पुरानी, घिसी हुई और कई जगह से टूटी हुई थीं, जिन्हें उसके पिता ने कई बार सिल दिया था।
"बापू," उसने एक दिन डरते-डरते कहा, "क्या मुझे दौड़ के लिए नए जूते मिल सकते हैं? मास्टरजी कह रहे थे कि नंगे पैर दौड़ने से चोट लग सकती है।"
रामभरोसे ने अपने बेटे के चेहरे की ओर देखा। उसकी आँखों में एक गहरी उम्मीद थी। फिर उन्होंने अपनी खाली जेब को टटोला। उनका दिल बैठ गया। नए जूतों का मतलब था, कम से कम सौ रुपये, जो उनके लिए एक बहुत बड़ी रकम थी।
"देखते हैं, बेटा," उन्होंने एक फीकी मुस्कान के साथ कहा।
यह एक पिता और पुत्र के बीच का मौन संवाद था। बेटा अपनी ख्वाहिश बता रहा था, और पिता अपनी लाचारी छिपा रहा था।
उस रात, रामभरोसे सो नहीं पाए। उन्हें अपने बेटे की उम्मीद भरी आँखें बार-बार याद आ रही थीं।
इस कहानी की एक और किरदार है, मनु की माँ, जानकी। वह जानती थी कि उसके पति और बेटे, दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही हैं।
"सुनिए जी," उसने रात में कहा, "बच्चे का मन है। तोड़िए मत। घर में थोड़े से चावल और हैं, कुछ दिन हम एक वक्त खाकर भी गुज़ारा कर लेंगे।"
"नहीं, जानकी," रामभरोसे ने कहा। "मैं अपने बच्चे का पेट काटकर उसका सपना पूरा नहीं करूँगा।"
अगले कुछ दिन, रामभरोसे ने दोगुनी मेहनत की। वह सुबह जल्दी अपनी दुकान खोलते और देर रात तक काम करते। वह लोगों के घरों में जाकर भी काम माँगने लगे। उनकी आँखों में नींद की कमी और शरीर में थकान थी, पर दिल में बस एक ही धुन थी - अपने बेटे के लिए नए जूते खरीदने हैं।
प्रतियोगिता से एक दिन पहले, रामभरोसे ने अस्सी रुपये जोड़ लिए थे। पर बीस रुपये अभी भी कम थे। वह निराश होकर घर लौट रहे थे, तभी उनकी नज़र गाँव के लाला की दुकान पर पड़ी। लाला अपनी दुकान बंद कर रहा था।
"लाला जी," रामभरोसे ने झिझकते हुए कहा, "क्या बीस रुपये उधार मिल सकते हैं? कल ही लौटा दूँगा।"
लाला ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और तिरस्कार से कहा, "तुम्हारी हैसियत है लौटाने की? जाओ, यहाँ से।"
उस एक पल में, रामभरोसे का स्वाभिमान टूट गया। वह भारी मन से घर की ओर चल दिए।
घर पहुँचकर, उन्होंने देखा कि मनु अपनी टूटी चप्पल को ही बार-बार देख रहा था, मानो उसी से कोई चमत्कार की उम्मीद कर रहा हो।
यह देखकर, रामभरोसे ने एक फैसला किया।
वह चुपचाप घर के पीछे गए, जहाँ उन्होंने अपनी पत्नी की शादी की एक पुरानी, टूटी हुई संदूकची रखी थी। उस संदूकची के नीचे, उन्होंने एक छोटी सी, कपड़े की पोटली छिपाकर रखी थी। उस पोटली में चाँदी का एक पुराना सिक्का था - जो उनके अपने पिता ने उन्हें आशीर्वाद के रूप में दिया था। वह उनकी सबसे कीमती विरासत थी।
उनकी आँखें भर आईं, पर उन्होंने अपने आँसू पोंछे और उस सिक्के को लेकर सीधे लाला की दुकान पर पहुँचे।
"लाला जी," उन्होंने कहा, "यह सिक्का रखकर मुझे सौ रुपये दे दीजिए। कल जब मेरा बेटा दौड़ जीतेगा, तो इनाम के पैसों से मैं इसे छुड़ा लूँगा।"
अगली सुबह, जब मनु सोकर उठा, तो उसने अपने सिरहाने एक छोटा सा डिब्बा रखा देखा। उसने उसे खोला, तो उसकी आँखें खुशी से चमक उठीं। उसमें लाल रंग के, सुंदर से कैनवास के जूते थे।
"बापू!" वह खुशी से चिल्लाता हुआ अपने पिता से लिपट गया।
रामभरोसे मुस्कुराए, पर उनकी मुस्कान के पीछे एक गहरा दर्द छिपा था।
दौड़ के मैदान में, मनु ने जब वह नए जूते पहने, तो उसे लगा जैसे उसके पैरों में पंख लग गए हों।
दौड़ शुरू हुई। मनु अपनी पूरी ताकत से भागा। जब वह दौड़ रहा था, तो उसे सिर्फ फिनिश लाइन नहीं दिख रही थी, उसे दिख रहा था अपने पिता का थका हुआ चेहरा, उनकी उम्मीदें और उनका अनकहा त्याग।
और वह जीत गया।
जब मास्टरजी ने इनाम के एक सौ एक रुपये उसके हाथ में रखे, तो मनु ने वे पैसे नहीं लिए।
"मास्टरजी," उसने कहा, "क्या आप मेरे साथ लाला जी की दुकान तक चलेंगे?"
जब वे दुकान पहुँचे, तो रामभरोसे भी वहीं थे, अपना सिक्का छुड़ाने का इंतज़ार कर रहे थे।
मनु ने इनाम के पैसे लाला को दिए और कहा, "लाला जी, यह लीजिए। और मेरे बापू का सिक्का वापस कर दीजिए।"
फिर वह अपने पिता की ओर मुड़ा। उसकी आँखों में आँसू थे। "बापू, मुझे माफ कर दीजिए। मेरे एक छोटे से सपने के लिए, आपने अपनी सबसे कीमती चीज़ दाँव पर लगा दी।"
उसने वह नए जूते उतारे और अपने पिता के हाथ में रख दिए। "मेरे लिए इन जूतों से ज़्यादा कीमती आपका वह आशीर्वाद का सिक्का है। मैं अपनी टूटी चप्पल में ही खुश हूँ।"
उस दिन, रामभरोसे ने अपने बेटे को कसकर गले से लगा लिया। उनकी आँखों से खुशी और गर्व के आँसू बह रहे थे।
यह कहानी हमें सिखाती है कि हमारे माँ-बाप हमारे छोटे-छोटे सपनों को पूरा करने के लिए कितने बड़े-बड़े त्याग कर देते हैं, जिनका हमें कभी पता भी नहीं चलता। टूटी चप्पल का सपना सिर्फ एक जूते का सपना नहीं था, यह एक पिता के निःस्वार्थ प्रेम और एक बेटे की समझदारी की कहानी थी, जिसने हमें सिखाया कि असली जीत दौड़ में नहीं, बल्कि रिश्तों की कद्र करने में है।
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