बेटी का मान: एक पिता के बदले हुए स्वाभिमान की कहानी

 

बेटी का मान: एक पिता के बदले हुए स्वाभिमान की कहानी
Beti ka man

'मान' और 'सम्मान' - ये दो शब्द अक्सर भारतीय परिवारों में बेटियों की ज़िंदगी की दिशा तय करते हैं। पर कभी-कभी, इन शब्दों के सही अर्थ को समझने में एक पूरी ज़िंदगी लग जाती है। यह कहानी है ऐसे ही एक पिता, चौधरी बलवंत सिंह, की। यह कहानी है उनकी बेटी के मान की, और उस एक घटना की, जिसने उनके 'खानदानी मान' की परिभाषा को हमेशा के लिए बदल दिया।

चौधरी बलवंत सिंह, हरियाणा के एक बड़े गाँव के सरपंच थे। उनकी मूँछें और उनकी ज़मीन, यही उनकी पहचान थी, यही उनका स्वाभिमान था। उनके दो बच्चे थे - एक बेटा, सूरज, जो उनकी आँखों का तारा था, और एक बेटी, रिया, जिसे वह प्यार तो करते थे, पर हमेशा एक 'ज़िम्मेदारी' समझते थे।

यह एक पारंपरिक भारतीय पिता और उसकी बेटी के बीच के रिश्ते की कहानी है, जहाँ प्यार तो है, पर समानता की कमी है।

रिया, एक होशियार और साहसी लड़की थी। वह पढ़-लिखकर एक पुलिस ऑफिसर बनना चाहती थी। पर चौधरी साहब के लिए, उनके खानदान की बहू-बेटियाँ घर की इज़्ज़त होती हैं, जो चारदीवारी के अंदर ही शोभा देती हैं।

"पुलिस की नौकरी?" जब रिया ने पहली बार अपनी इच्छा बताई, तो चौधरी साहब हँसे थे। "यह मर्दों का काम है। तू घर सँभालना सीख। तेरी शादी के लिए अच्छे-अच्छे रिश्ते आ रहे हैं।"

यह एक बेटी के सपनों और पिता की ज़िद के बीच का संघर्ष था। रिया का साथ देती थी उसकी माँ, सावित्री, जो खुद कभी पढ़ नहीं पाई थीं, पर अपनी बेटी को उड़ते हुए देखना चाहती थीं।

"जी," वह अक्सर अपने पति से कहतीं, "हमारी छोरी में हिम्मत है। एक मौका तो देकर देखिए।"

पर चौधरी साहब टस से मस नहीं हुए।

कहानी में मोड़ तब आया, जब गाँव में ज़मीनी विवाद को लेकर दो गुटों में झगड़ा हो गया। बात इतनी बढ़ गई कि लाठियाँ और गोलियाँ तक चल गईं। उसी भगदड़ में, चौधरी साहब का बेटा, सूरज, बुरी तरह से घायल हो गया। उसे कुछ गुंडों ने घेर लिया था और वे उसे जान से मारने पर तुले थे।

चौधरी साहब, जो अपनी उम्र और बीमारी के कारण अब उतने मजबूत नहीं रहे थे, असहाय होकर अपने बेटे को पिटते हुए देख रहे थे। गाँव का कोई भी आदमी डर के मारे आगे आने की हिम्मत नहीं कर रहा था।

तभी, किसी ने सोचा भी नहीं था, वह हुआ।

रिया, जो घर के अंदर से यह सब देख रही थी, अपनी जान की परवाह किए बिना, हाथ में एक मोटी सी लाठी लेकर बाहर भागी। उसने एक शेरनी की तरह उन गुंडों पर हमला कर दिया। उसकी आँखों में न डर था, न आँसू। बस एक आग थी - अपने भाई को बचाने की आग।

उसने ऐसी बहादुरी से लड़ाई की कि गुंडे भी हैरान रह गए। इसी बीच, किसी ने पुलिस को फोन कर दिया। पर जब तक पुलिस पहुँची, तब तक रिया ने अकेले ही उन गुंडों को खदेड़ दिया था।

पूरा गाँव स्तब्ध होकर यह दृश्य देख रहा था।

चौधरी बलवंत सिंह अपनी जगह पर जड़ हो गए थे। उनकी आँखों के सामने उनकी 'नाजुक' सी बेटी नहीं, बल्कि एक दुर्गा खड़ी थी। जिस बेटी को वह घर की चारदीवारी में कैद रखना चाहते थे, आज उसी ने उनके खानदान की इज़्ज़त और उनके बेटे की जान बचाई थी।

यह एक बेटी के मान का वह रूप था, जिसे उन्होंने कभी पहचाना ही नहीं था।

जब सब शांत हुआ, तो रिया दौड़कर अपने घायल भाई के पास गई और उसे सँभालने लगी।

उस शाम, जब गाँव की पंचायत बैठी, तो चौधरी साहब अपनी सरपंच की कुर्सी से उठे। उनकी आँखों में आज अहंकार नहीं, बल्कि एक गहरा पश्चाताप था।

"भाइयों," उन्होंने एक nghẹn ngat आवाज़ में कहा, "मैं आज तक अपनी मूँछों और अपनी ज़मीन को ही अपना मान समझता रहा। मैं सोचता था कि मेरा बेटा ही मेरा वारिस है, जो मेरे मान को आगे बढ़ाएगा। पर मैं गलत था।"

उन्होंने अपनी बेटी, रिया, को अपने पास बुलाया।

"मेरा असली मान, मेरा असली स्वाभिमान तो मेरी यह बेटी है," उन्होंने रिया के सिर पर हाथ रखकर कहा। "आज इसने मुझे सिखा दिया कि बहादुरी का ताल्लुक मर्द या औरत होने से नहीं, हिम्मत से होता है। इसने न सिर्फ अपने भाई की जान बचाई है, बल्कि इस पूरे गाँव की सोई हुई आत्मा को भी जगाया है।"

उन्होंने सबके सामने घोषणा की, "आज से मेरी बेटी वह सब कुछ पढ़ेगी, जो वह पढ़ना चाहती है। वह पुलिस ऑफिसर बनेगी, और इस गाँव की हर बेटी को अपनी तरह निडर बनाएगी।"

उस दिन, गाँव में एक नई सुबह हुई। एक पिता के बदले हुए विश्वास ने कई बेटियों के सपनों को नए पंख दे दिए।

यह कहानी हमें सिखाती है कि बेटी का मान उसे चारदीवारी में कैद करने में नहीं, बल्कि उसे खुले आसमान में उड़ने की आज़दी देने में है। एक बेटी जब अपने पैरों पर खड़ी होती है, तो वह सिर्फ अपना ही नहीं, बल्कि अपने पूरे परिवार और समाज का सिर गर्व से ऊँचा करती है। चौधरी बलवंत सिंह ने सीखा कि सच्ची शान मूँछों में नहीं, बल्कि उस बेटी की आँखों में होती है, जो निडर होकर अपने परिवार की ढाल बन जाती है।

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