जादुई किताब: एक परिवार की खोई हुई खुशियों की कहानी
कभी-कभी, जादू किसी छड़ी या मंत्र में नहीं, बल्कि उन चीज़ों में छिपा होता है जिन्हें हम रोज़ देखते हैं, पर समझ नहीं पाते। यह कहानी है ऐसी ही एक जादुई किताब की, जिसने किसी को सोना या महल तो नहीं दिया, पर एक परिवार की खोई हुई हँसी और खुशियाँ ज़रूर लौटा दीं।
यह कहानी है वर्मा परिवार की।
श्री आलोक वर्मा, एक बैंक मैनेजर, अपनी पत्नी, मीना, और अपने दस साल के बेटे, आरव, के साथ एक बड़े से, सुंदर घर में रहते थे। बाहर से देखने पर, यह एक परफेक्ट परिवार लगता था - अच्छा घर, अच्छी नौकरी, होशियार बच्चा। पर उस घर की दीवारों के अंदर एक खामोशी बसती थी।
आलोक जी काम के बोझ तले इतने दबे रहते थे कि उनके पास अपने परिवार के लिए समय ही नहीं था। मीना, एक गृहिणी, दिन भर घर के कामों में उलझी रहती और अकेलेपन से जूझती। और आरव, वह अपने महंगे खिलौनों और वीडियो गेम्स की दुनिया में अकेला था। यह एक आधुनिक भारतीय परिवार का संघर्ष था, जहाँ सब एक साथ होकर भी एक-दूसरे से बहुत दूर थे।
कहानी में मोड़ तब आया, जब आरव के दादाजी, जो गाँव में रहते थे, कुछ दिनों के लिए उनके पास रहने आए। दादाजी अपने साथ एक पुराना, चमड़े की जिल्द वाला संदूक भी लाए थे।
एक रात, जब आरव अपने कमरे में वीडियो गेम खेल रहा था, तो दादाजी उसके पास आए।
"आरव बेटा," उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "क्या तुम एक असली जादू देखना चाहोगे?"
आरव ने बेमन से अपने गेम से नज़रें हटाईं।
दादाजी ने अपने संदूक से एक पुरानी, हाथ से बनी किताब निकाली। उसका कोई शीर्षक नहीं था, बस उसके कवर पर एक सुंदर सा पेड़ बना हुआ था।
"यह है जादुई किताब," दादाजी ने एक रहस्यमयी आवाज़ में कहा। "इसमें हर उस इंसान की कहानी है, जो इसे पढ़ता है।"
आरव को यह सब बचकाना लगा, पर दादाजी के मन के लिए, उसने किताब ले ली।
"पर इसमें तो कुछ लिखा ही नहीं है, दादाजी। इसके पन्ने तो खाली हैं," आरव ने हैरानी से कहा।
"यही तो जादू है, बेटा," दादाजी मुस्कुराए। "यह किताब तब तक खाली रहती है, जब तक तुम इसमें अपनी कहानी नहीं भरते। तुम्हें बस अपनी आँखें बंद करनी हैं, और अपने परिवार के साथ बिताए किसी सबसे प्यारे पल को याद करना है।"
उस रात, आरव ने कोशिश की। उसने अपनी आँखें बंद कीं और उस दिन को याद किया, जब पिछले साल उसके जन्मदिन पर, उसके पापा पहली बार ऑफिस से जल्दी घर आए थे और पूरा परिवार एक साथ बाहर घूमने गया था।
जैसे ही उसने उस पल को याद किया, एक चमत्कार हुआ।
उसने देखा कि किताब के खाली पन्ने पर धीरे-धीरे एक तस्वीर उभर रही है - वही पार्क, वही झूला, और वही हँसता-खेलता परिवार।
आरव हैरान रह गया।
अगले दिन, उसने यह बात अपनी माँ, मीना, को बताई। मीना को भी यकीन नहीं हुआ, पर अपने बेटे की खुशी के लिए, उसने भी कोशिश की। उसने अपनी शादी के उस दिन को याद किया, जब आलोक ने पहली बार उसका हाथ थामा था। देखते ही देखते, किताब के अगले पन्ने पर उनकी शादी की एक धुँधली सी तस्वीर बन गई।
अब यह किताब माँ और बेटे के लिए एक खेल बन गई। वे रोज़ रात को एक साथ बैठते, अपनी पुरानी, भूली-बिसरी यादों को ताज़ा करते और उस किताब के पन्नों को अपनी खुशियों से भरते।
इस प्रक्रिया में, कुछ ऐसा हुआ जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। वे एक-दूसरे से बातें करने लगे, हँसने लगे। घर की खामोशी टूटने लगी।
पर आलोक जी अब भी इस सब से दूर थे। वह देर रात घर आते और सुबह जल्दी चले जाते।
एक रात, मीना ने वह किताब आलोक के सिरहाने रख दी। "कभी फुर्सत मिले, तो इसे खोलकर देखिएगा। शायद आपको भी कोई जादू दिख जाए।"
उस हफ्ते, आलोक को काम के सिलसिले में दूसरे शहर जाना पड़ा। होटल के अकेले कमरे में, जब उसे अपने परिवार की याद आई, तो उसने अनमने ढंग से वह किताब खोली।
वह खाली पन्नों को पलटता गया, और फिर उसकी नज़र उन तस्वीरों पर पड़ी जो आरव और मीना ने बनाई थीं। उसने अपने बेटे के बचपन की वह तस्वीर देखी, अपनी शादी की वह तस्वीर देखी। हर तस्वीर के साथ, मीना ने एक छोटी सी पंक्ति लिख दी थी - "वह दिन, जब हम एक साथ थे।"
यह पढ़कर आलोक का दिल भर आया। उसे एहसास हुआ कि वह पैसा कमाने और सफलता पाने की दौड़ में कितना आगे निकल गया है, और उसका परिवार कितना पीछे छूट गया है। उसे अपनी पत्नी का अकेलापन और अपने बेटे का सूनापन पहली बार महसूस हुआ। यह एक पति और पिता का आत्म-बोध था।
उसने तुरंत अपना फोन उठाया और घर पर कॉल किया।
"मीना," उसकी nghẹn ngat आवाज़ में कहा, "मुझे माफ कर दो। मैं एक अच्छा पति और एक अच्छा पिता नहीं बन पाया।"
उसने किताब का एक खाली पन्ना खोला और अपनी आँखें बंद कीं। उसने अपने बचपन के उस दिन को याद किया, जब उसके पिताजी उसे पहली बार मेला दिखाने ले गए थे और उसके लिए एक बाँसुरी खरीदी थी।
अगले दिन, जब आलोक घर लौटा, तो उसके हाथ में कोई महंगा तोहफा नहीं, बल्कि एक छोटी सी, लकड़ी की बाँसुरी थी, आरव के लिए।
उस शाम, पूरा वर्मा परिवार अपने आँगन में बैठा था। आलोक बाँसुरी बजा रहा था, आरव हँस रहा था, और मीना उन दोनों को देखकर मुस्कुरा रही थी।
दादाजी दूर से यह सब देख रहे थे।
"तो तुम्हें मिल गई अपनी कहानी?" उन्होंने आरव से पूछा।
आरव ने वह जादुई किताब उठाई। अब वह लगभग भर चुकी थी। "हाँ, दादाजी। और मुझे जादू का राज़ भी पता चल गया।"
"क्या है राज़?"
"यह किताब जादुई नहीं है, दादाजी," आरव ने कहा। "जादू तो हमारे अपने अंदर है, हमारी यादों में है। यह किताब तो बस एक बहाना है, हमें एक-दूसरे के पास लाने का, अपनी खुशियों को फिर से जीने का।"
दादाजी मुस्कुराए। उनकी जादुई किताब ने अपना काम कर दिया था।
यह कहानी हमें सिखाती है कि ज़िंदगी की भाग-दौड़ में, हम अक्सर अपने सबसे कीमती खजाने, यानी अपने परिवार और उनके साथ बिताए हुए पलों को भूल जाते हैं। असली जादू किसी किताब में नहीं, बल्कि उन छोटे-छोटे पलों को एक साथ बैठकर फिर से जीने में है।
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