भारत के त्योहारों में परिवार: एक दिवाली की अनकही रोशनी
भारत के त्योहारों में परिवार की खुशबू कुछ ऐसी घुलती है, जैसे हवा में दीये की लौ और मिठाइयों की महक। ये त्योहार सिर्फ़ उत्सव नहीं होते; ये जड़ों की ओर लौटने का एक बहाना होते हैं, बिखरे हुए रिश्तों को फिर से जोड़ने का एक मौका होते हैं। यह कहानी है ऐसी ही एक दिवाली की, जिसने एक परिवार को उसके सही मायने याद दिलाए।
यह कहानी है सेवानिवृत्त फौजी, श्री बलवंत सिंह, उनके बेटे, मेजर आरव, और आरव की पत्नी, मीरा, की।
बलवंत सिंह जी अपने उसूलों और अनुशासन के पक्के थे। उनके लिए दिवाली का मतलब था - घर में बनी मिठाइयाँ, आँगन में सजी रंगोली और पूरे परिवार का एक साथ बैठकर लक्ष्मी पूजन करना।
पर उनके बेटे, आरव, जो अब अपनी पत्नी मीरा के साथ पुणे में रहता था, के लिए दिवाली का मतलब बदल चुका था। उसके लिए यह दोस्तों के साथ पार्टी करने, महंगे तोहफे देने और शहर की चकाचौंध में खो जाने का मौका था।
यह दो पीढ़ियों के बीच की एक आम गलतफहमी थी। बलवंत सिंह जी को लगता था कि उनका बेटा अपनी परंपराओं को भूल रहा है, और आरव को लगता था कि उसके पिता आज भी पुराने ज़माने में जी रहे हैं।
इस साल भी, जब दिवाली नज़दीक आई, तो बलवंत सिंह जी ने उम्मीद से फोन किया। "बेटा, इस बार तो आओगे न घर? तुम्हारी माँ ने तुम्हारी पसंदीदा काजू कतली बनाने की तैयारी कर ली है।"
"पापा," आरव ने थोड़ी झिझक के साथ कहा, "इस बार मुश्किल है। ऑफिस में बहुत काम है, और हमने दोस्तों के साथ गोवा का प्लान बना लिया है।"
फोन के दूसरी तरफ एक लंबी, भारी खामोशी छा गई। "ठीक है बेटा, जैसा तुम्हें सही लगे," कहकर बलवंत सिंह जी ने फोन रख दिया। पर उनकी आवाज़ का दर्द आरव के दिल में भी एक छोटी सी फाँस की तरह चुभ गया।
मीरा, जो यह सब सुन रही थी, ने अपने पति से कहा, "आरव, यह ठीक नहीं है। अंकल-आंटी पूरे साल इस दिन का इंतज़ार करते हैं। भारत के त्योहारों में परिवार का साथ ही तो असली रौनक होती है।"
"मीरा, तुम नहीं समझोगी," आरव ने थोड़ा चिढ़कर कहा। "वही पुरानी रस्में, वही बोरिंग बातें। कम से कम साल में एक बार तो हमें अपनी मर्ज़ी से जीने का हक़ है।"
मीरा चुप हो गई, पर उसका मन बेचैन था।
दिवाली की शाम, जब आरव और मीरा गोवा के एक शानदार, जगमगाते रिसॉर्ट में थे, जहाँ तेज़ संगीत और पार्टियों का शोर था, तब मीरा ने अपने घर फोन किया।
फोन उसकी सास ने उठाया। उनकी आवाज़ में एक अनकही उदासी थी। "हाँ बेटा, कैसी हो?"
"हम ठीक हैं, माँजी। आप लोग कैसे हैं? पूजा हो गई?"
"हाँ, हो गई," उन्होंने एक ठंडी साँस भरकर कहा। "तुम्हारे अंकल ने आज तुम्हारी बचपन की एक तस्वीर निकाली थी। जब तुम छोटे थे, तो तुम ही घर का सबसे बड़ा पटाखा हुआ करते थे... तुम्हारी हँसी के बिना घर बहुत सूना है।"
यह सुनकर मीरा के आँसू निकल आए। उसने फोन रखा और आरव को सब कुछ बताया।
आरव खामोश हो गया। उस शोर भरी पार्टी में, उसे अचानक अपने घर की शांति, अपनी माँ के हाथ की बनी मिठाइयों की खुशबू और अपने पिता का वह अनुशासित, पर गहरा प्यार याद आने लगा। उसे एहसास हुआ कि वह जिसे 'बोरिंग' समझ रहा था, वही तो उसकी ज़िंदगी की सबसे कीमती विरासत है। यह एक बेटे का आत्म-बोध था।
"तुम ठीक कहती थी, मीरा," उसने कहा। "हम गलत हैं। असली दिवाली यहाँ नहीं, घर पर है।"
उसी रात, उन्होंने अगली सुबह की पहली फ्लाइट बुक की।
अगले दिन, जब वे अपने पुराने घर के दरवाज़े पर पहुँचे, तो घर में एक अजीब सा सन्नाटा था। आँगन में कुछ बुझे हुए दीये पड़े थे।
उन्होंने देखा कि उनके पिता, बलवंत सिंह जी, चुपचाप अपनी फौजी यूनिफॉर्म को देख रहे थे, जो उन्होंने सालों से सँभालकर रखी थी।
"पापा..." आरव ने धीरे से आवाज़ दी।
बलवंत सिंह जी ने मुड़कर देखा। अपने बेटे-बहू को अचानक सामने देखकर उनकी आँखें भर आईं।
"तुम... तुम लोग?"
"हमसे गलती हो गई, पापा," आरव ने आगे बढ़कर अपने पिता के पैर छू लिए। "हम अपनी सबसे बड़ी दौलत को ही भूल गए थे।"
बलवंत सिंह जी ने उसे उठाकर कसकर गले से लगा लिया। सालों का दबा हुआ स्नेह, सारी शिकायतें, उस एक आलिंगन में बह गईं।
उस दिन, उस घर में 'बड़ी दिवाली' के अगले दिन, असली दिवाली मनी। मीरा और उसकी सास ने मिलकर फिर से मिठाइयाँ बनाईं। आरव ने अपने पिता के साथ मिलकर पूरे घर को दीयों से सजाया।
यह एक परिवार का त्याग और प्रेम था, जहाँ बच्चों ने अपनी पार्टी छोड़ी और माँ-बाप ने अपना अहंकार।
यह कहानी हमें सिखाती है कि भारत के त्योहारों में परिवार का साथ किसी भी पार्टी या जश्न से बढ़कर होता है। ये त्योहार हमें मौका देते हैं अपनी जड़ों की ओर लौटने का, अपनी गलतियों को सुधारने का और उन रिश्तों की रोशनी को फिर से जलाने का, जो समय की धूल में धुंधले पड़ गए हैं। असली उत्सव महंगे तोहफों में नहीं, बल्कि एक साथ बैठकर बिताए गए कुछ अनमोल पलों में होता है।
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