माँ की पलकों की छाँव: एक बेटे के पश्चाताप की कहानी

 माँ की पलकों की छाँव: एक बेटे के पश्चाताप की कहानी

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'माँ'—यह सिर्फ़ एक शब्द नहीं, एक एहसास है। एक ऐसी छाँव जिसके तले हम ज़िंदगी के हर तूफ़ान से सुरक्षित महसूस करते हैं। लेकिन कभी-कभी हम अपनी ही दुनिया में इतने खो जाते हैं कि उस छाँव की ठंडक को भूल जाते हैं। यह कहानी है ऐसे ही एक बेटे, आदित्य की। यह कहानी है अपनी माँ की पलकों की छाँव की, और उस एहसास की जिसने उसे उसकी सबसे बड़ी दौलत की क़ीमत सिखाई।

आदित्य मुंबई के एक पॉश इलाके में रहने वाला एक कामयाब कॉर्पोरेट वकील था। उसकी दुनिया बड़े-बड़े सौदों, देर रात तक चलने वाली पार्टियों और भागदौड़ भरी ज़िंदगी से भरी थी। उसके पास सब कुछ था—पैसा, रुतबा और एक खूबसूरत परिवार।

लेकिन इस चकाचौंध भरी दुनिया के पीछे एक और दुनिया थी जो धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही थी—उसकी माँ, श्रीमती शारदा की दुनिया।

शारदा जी अपने छोटे से गाँव से अपने बेटे के पास रहने आई थीं। वह एक सीधी-सादी, स्नेही महिला थीं। उसका दिल अपने बेटे, बहू रिया और पोती पीहू के लिए समर्पित था। लेकिन वह इस बड़े शहर के तौर-तरीकों और यहाँ की भागदौड़ को समझ नहीं पा रही थी। वह अक्सर अपने घर की बालकनी में चुपचाप बैठी अपने गाँव के पुराने दिनों को याद करती रहती थी।


यह एक आम भारतीय परिवार का संघर्ष था, जहाँ एक पीढ़ी अपनी जड़ों से जुड़ी रहना चाहती थी, जबकि दूसरी पीढ़ी सफलता की इतनी ऊँचाई पर पहुँच गई थी कि नीचे देखना भी बर्दाश्त नहीं कर सकती थी।


आदित्य अपनी माँ से बहुत प्यार करता था, लेकिन उसके पास उनके लिए समय नहीं था। वह सुबह जल्दी निकल जाता और देर रात लौटता। जब भी उसकी माँ उससे बात करने की कोशिश करती, वह अक्सर अपने फ़ोन या लैपटॉप में व्यस्त रहता।


"माँ, अभी नहीं। मैं एक ज़रूरी ईमेल भेज रहा हूँ," वह कहता।


उसकी पत्नी रिया भी अपने सामाजिक जीवन में व्यस्त रहती थी। हालाँकि वह अपनी सास का सम्मान करती थी, लेकिन उनके बीच एक अनकही दूरी थी। यह एक ग़लतफ़हमी थी, शायद उसकी सास उसे पसंद नहीं करती थीं। कहानी में नया मोड़ तब आया जब आदित्य की कंपनी ने उसे "साल का सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी" का पुरस्कार दिया। घर पर एक भव्य पार्टी रखी गई, जिसमें शहर के जाने-माने लोग शामिल हुए।

पार्टी के बीच में, शारदा अपनी पोती पीहू के लिए घर का बना गाजर का हलवा लेकर आई। वह सीधे आदित्य के बॉस के पास गई और मासूमियत से बोली, "सर, मिठाई ले लीजिए। मेरे बेटे को बहुत पसंद है।"

अपने दोस्तों के साथ खड़ा आदित्य शर्म से लाल हो गया। उसे लगा कि उसकी "गाँव वाली" माँ ने उसके "उच्च वर्गीय" दोस्तों के सामने उसे अपमानित किया है।

पार्टी खत्म होने के बाद, उसने पहली बार अपनी माँ से ऊँची आवाज़ में बात की।

"माँ, आपको यह सब क्यों करना पड़ा? आप समझती क्यों नहीं कि यह मेरा ऑफिस है, मेरा गाँव नहीं!"

शारदा स्तब्ध रह गई। उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसने कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप अपने कमरे में चली गई।


उस रात उस घर में कोई नहीं सोया।


अगली सुबह, जब आदित्य उठा, तो उसने अपनी माँ को अपना सामान समेटते देखा।


"माँ, आप... कहाँ जा रही हैं?" उसने घबराकर पूछा।


"मैं अपने गाँव वापस जा रही हूँ, बेटा," उसकी आवाज़ में कोई गुस्सा नहीं था, बस एक गहरा दर्द था। "शायद मैं तुम्हारे इस बड़े शहर के लायक नहीं। मैं तुम्हारी पलकों के नीचे छाँव बनने आई हूँ, तुम्हारी आँखों में चुभने वाला काँटा नहीं।"


ये शब्द आदित्य के दिल में तीर की तरह चुभ गए। यह एक बेटे का आत्म-साक्षात्कार था। पहली बार उसे एहसास हुआ कि उसने क्या खोया है।


वह दौड़कर अपनी माँ के पैरों में गिर पड़ा। "माँ, मुझे माफ़ कर दो! मैं अंधा हो गया था। मैं सफलता के पीछे इतना भागा कि भूल गया कि तुम ही मेरी सबसे बड़ी दौलत हो।"


वह रो पड़ा, "बचपन में जब मैं रातों को डरता था, तो तुम मुझे अपनी पलकों की छाँव में सुलाती थीं। जब मैं बीमार होता था, तो तुम सारी रात जागकर मेरा सिर सहलाती थीं। और आज, जब मुझे तुम्हारे आशीर्वाद की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी, मैंने तुम्हें दुख पहुँचाया।"

रिया, जो यह सब देख रही थी, अपने आँसू नहीं रोक पाई। उसने आगे बढ़कर अपनी सास का हाथ थाम लिया। "हमें माफ़ कर दो माँ। हम बस तुम्हें समझ नहीं पाए।"

शारदा जी ने अपने बेटे और बहू को गोद में उठाकर गले लगा लिया। उस एक आलिंगन में सारे गिले-शिकवे, सारी दूरियाँ धुल गईं।

यह कहानी हमें सिखाती है कि माँ की पलकों की छाँव दुनिया का सबसे सुरक्षित और अनमोल स्थान है। हम कितने भी बड़े हो जाएँ, कितने भी सफल हो जाएँ, हमें उस छाँव की ज़रूरत हमेशा रहती है।

उस दिन के बाद, आदित्य की ज़िंदगी बदल गई। अब वह काम से जल्दी घर आता, अपनी माँ के साथ बैठकर बातें करता। रिया अपनी सास के साथ खाना बनाती और उनसे पुरानी कहानियाँ सुनती।


उन्होंने सीखा कि सच्ची खुशी बड़ी-बड़ी पार्टियों में नहीं, बल्कि अपने परिवार के साथ बिताए छोटे-छोटे पलों में है। और सबसे बड़ी कामयाबी तब होती है जब हमारे माता-पिता हमारी वजह से मुस्कुराते हैं।

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