छोटे शहरों की ज़िंदगी: जड़ों की खुशबू और सपनों की उड़ान

 

छोटे शहरों की ज़िंदगी: जड़ों की खुशबू और सपनों की उड़ान
shahar

छोटे शहरों की ज़िंदगी की अपनी एक अलग ही लय होती है। यहाँ रिश्ते गहरे होते हैं, समय थोड़ा धीरे चलता है, और सपनों की उड़ान अक्सर उम्मीदों की एक छोटी सी खिड़की से ही शुरू होती है। यह कहानी है ऐसी ही एक ज़िंदगी की, और एक ऐसे लड़के, आरव, की, जो बड़े शहर की चकाचौंध में अपनी जड़ों की खुशबू को लगभग भूल ही गया था।

यह कहानी है आरव की, उसकी माँ, सरिता जी, की और उसके बचपन के दोस्त, मोहन, की।

आरव, बरेली जैसे एक छोटे शहर का लड़का था, जिसकी आँखों में मुंबई जाकर एक बड़ा फिल्म डायरेक्टर बनने का सपना था। उसका दोस्त, मोहन, उसके बिल्कुल विपरीत था। मोहन को अपने शहर, अपनी छोटी सी किताबों की दुकान और अपने परिवार के साथ ही खुश रहना पसंद था।

"यार, तू यहीं सड़ता रह जाएगा," आरव अक्सर मोहन से कहता। "असली ज़िंदगी तो मुंबई में है - ग्लैमर, पैसा, और मौके।"

"असली ज़िंदगी तो यहाँ है, आरव," मोहन मुस्कुराकर जवाब देता। "जहाँ माँ के हाथ का खाना है, और शाम को दोस्तों के साथ चाय की चुस्कियाँ हैं।"

आरव अपनी माँ, सरिता जी, से बहुत प्यार करता था, पर उसे उनकी सादगी और छोटे शहरों की ज़िंदगी वाली सोच थोड़ी पिछड़ी हुई लगती थी।

आखिरकार, आरव मुंबई चला गया। उसने बहुत संघर्ष किया, और सालों की मेहनत के बाद, वह एक जाना-माना विज्ञापन फिल्म निर्माता बन गया। अब उसके पास वह सब कुछ था, जिसका उसने सपना देखा था - एक शानदार अपार्टमेंट, एक महंगी गाड़ी, और ग्लैमर की दुनिया में एक बड़ा नाम।

वह अब बरेली बहुत कम आता था। जब भी आता, तो उसे अपने पुराने घर में घुटन महसूस होती। उसे लगता कि यह शहर और यहाँ के लोग बहुत पीछे रह गए हैं।

यह एक आम गलतफहमी थी, जो अक्सर बड़े शहरों में रहने वाले लोग अपने छोटे शहरों के बारे में पाल लेते हैं।

कहानी में मोड़ तब आया, जब आरव अपनी ज़िंदगी के सबसे बड़े प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था। उसे एक बड़ी कंपनी के लिए एक विज्ञापन फिल्म बनानी थी, जिसका विषय था - 'घर'। वह महंगे से महंगे सेट बना रहा था, बड़े-बड़े एक्टर्स के साथ काम कर रहा था, पर उसकी फिल्म में वह 'आत्मा', वह 'भावना' नहीं आ पा रही थी, जिसकी क्लाइंट को तलाश थी।

वह हफ्तों तक परेशान रहा। उस पर अपनी नौकरी खोने का दबाव था। वह चिड़चिड़ा और हताश हो गया।

एक रात, जब वह पूरी तरह से हार चुका था, तो उसने अनजाने में ही अपनी माँ को फोन कर दिया।

"माँ," उसकी आवाज़ में एक अनकही थकान थी।

"क्या हुआ, बेटा? तेरी आवाज़ क्यों ऐसी लग रही है?" सरिता जी ने चिंता से पूछा।

आरव ने उसे अपनी सारी परेशानी बता दी।

सरिता जी ने बस इतना कहा, "बेटा, तू घर वापस आ जा। कुछ दिनों के लिए।"

"माँ, आप नहीं समझेंगी! यहाँ मेरा करियर दाँव पर लगा है," आरव झुंझलाकर बोला।

"मैं समझ रही हूँ," सरिता जी ने शांति से कहा। "शायद तू ही कुछ भूल गया है। बस एक बार आ जा।"

अगले दिन, आरव बेमन से बरेली पहुँचा। घर पहुँचते ही, आँगन में लगे मोगरे की खुशबू ने उसका स्वागत किया। उसकी माँ ने उसके पसंदीदा आलू के पराठे बनाए थे। उस स्वाद में, उस खुशबू में, कुछ ऐसा था जिसने आरव के थके हुए मन को एक अजीब सा सुकून दिया।

शाम को, वह अपने दोस्त मोहन की किताबों की दुकान पर गया। दुकान छोटी थी, पर वहाँ एक अलग ही शांति थी। मोहन बच्चों को कहानियाँ सुना रहा था, और बच्चे खिलखिलाकर हँस रहे थे।

"तो आ गए बड़े डायरेक्टर साहब," मोहन ने उसे देखकर मुस्कुराते हुए कहा।

उस रात, दोनों दोस्त छत पर बैठे पुरानी बातें करते रहे। उन्होंने अपने स्कूल के दिन याद किए, अपनी शरारतें याद कीं। आरव ने देखा कि मोहन की ज़िंदगी में भले ही पैसा और ग्लैमर न हो, पर एक गहरा संतोष और खुशी थी, जो उसके पास नहीं थी।

उसे छोटे शहरों की ज़िंदगी का वह पहलू नज़र आया, जिसे वह हमेशा अनदेखा करता रहा था - रिश्तों की गहराई, छोटी-छोटी खुशियाँ और एक बेफिक्र सुकून।

अगली सुबह, जब आरव सोकर उठा, तो उसने देखा कि उसकी माँ चुपचाप अपने पुराने, हाथ से बुने हुए स्वेटर को उधेड़ रही हैं।

"यह क्या कर रही हो, माँ?" उसने पूछा।

"यह स्वेटर छोटा हो गया है," उन्होंने कहा। "पर इसका ऊन अभी भी मजबूत है। मैं इसी ऊन से तेरे लिए एक नया स्वेटर बुनूँगी। चीज़ें पुरानी हो जाती हैं, बेटा, पर अगर जड़ें मजबूत हों, तो उनसे हमेशा कुछ नया और सुंदर बनाया जा सकता है।"

यह शब्द नहीं, एक दर्शन था।

आरव को जैसे अपनी फिल्म का आइडिया मिल गया। यह एक बेटे का आत्म-बोध था।

उसने अपना महंगा कैमरा निकाला और अपने ही घर को, अपने ही शहर को शूट करना शुरू कर दिया। उसने अपनी माँ के हाथों को शूट किया, जो प्यार से खाना बना रही थीं। उसने मोहन की दुकान पर हँसते हुए बच्चों को शूट किया। उसने उन तंग गलियों और पुराने घरों को शूट किया, जिनसे वह कभी भागना चाहता था।

वह समझ गया था कि 'घर' का मतलब महंगी दीवारें और फर्नीचर नहीं होता। 'घर' का मतलब होता है माँ का प्यार, दोस्तों का साथ और अपनी जड़ों की वह खुशबू, जो कहीं और नहीं मिलती।

जब वह अपनी यह नई फिल्म लेकर मुंबई लौटा, तो उसके क्लाइंट हैरान रह गए।

"यह... यह अद्भुत है, आरव!" उन्होंने कहा। "इसमें वह भावना है, जिसकी हमें तलाश थी।"

वह विज्ञापन फिल्म एक बहुत बड़ी सफलता बनी।

यह कहानी हमें सिखाती है कि हम अपने सपनों को पूरा करने के लिए कितने भी ऊँचे क्यों न उड़ जाएँ, हमें अपनी जड़ों को कभी नहीं भूलना चाहिए। छोटे शहरों की ज़िंदगी हमें वह सादगी, वह अपनेपन और वह भावनात्मक गहराई देती है, जो बड़े शहरों की चकाचौंध में अक्सर खो जाती है। असली प्रेरणा महंगे सेट पर नहीं, बल्कि माँ के आँगन और दोस्तों की चाय की चुस्कियों में ही छिपी होती है।

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