भविष्य की झलक: एक पिता की बदली हुई दृष्टि
कभी-कभी, हमें लगता है कि हम अपने बच्चों के लिए जो रास्ता चुन रहे हैं, वही सबसे अच्छा है। हम उनके भविष्य को अपनी उम्मीदों और अनुभवों के साँचे में ढालने की कोशिश करते हैं। पर क्या हो, अगर हमें हमारे ही चुने हुए रास्ते की एक भविष्य की झलक दिख जाए? यह कहानी है ऐसे ही एक पिता, श्री हरिनारायण जी, की।
यह कहानी है उनके बेटे, आरव, की और उस एक घटना की, जिसने एक पिता को अपने ही फैसले पर फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया।
हरिनारायण जी, एक सफल और प्रतिष्ठित वकील थे। उनकी दिल्ली में एक बड़ी लॉ फर्म थी। उनका एक ही सपना था - कि उनका बेटा, आरव, भी एक बड़ा वकील बने और उनकी विरासत को आगे बढ़ाए। उन्होंने आरव के लिए सब कुछ तय कर रखा था - बेस्ट लॉ स्कूल, लंदन में इंटर्नशिप, और फिर उनकी अपनी फर्म में एक शानदार करियर।
पर आरव की दुनिया कानून की किताबों में नहीं, बल्कि कैनवास और रंगों में बसती थी। वह एक प्रतिभाशाली चित्रकार था। उसके हाथ जब ब्रश पकड़ते, तो लगता जैसे वह अपनी आत्मा को कैनवास पर उंडेल रहा हो।
यह एक पिता की उम्मीदों और एक बेटे के जुनून के बीच का संघर्ष था।
"पापा," आरव अक्सर कहता, "मैं वकील नहीं बनना चाहता। मुझे आर्टिस्ट बनना है।"
"कलाकार?" हरिनारायण जी हँसते, पर उनकी हँसी में एक कड़वाहट होती थी। "कलाकारों को कोई नहीं पूछता, बेटा। ज़िंदगी सिर्फ रंगों से नहीं चलती, रुतबे और पैसे से चलती है। मैंने तुम्हारे लिए जो रास्ता बनाया है, वही तुम्हारी भलाई के लिए है।"
इस कहानी की एक और महत्वपूर्ण पात्र है, आरव की माँ, सुजाता। वह अपने पति के स्वभाव को भी जानती थीं और अपने बेटे के सपनों को भी। वह हमेशा बीच का रास्ता खोजने की कोशिश करतीं, पर हर बार असफल रहतीं।
गलतफहमियों की दीवार इतनी ऊँची हो चुकी थी कि अब बाप-बेटे के बीच बात भी बंद हो गई थी।
कहानी में मोड़ तब आया, जब आरव ने लॉ स्कूल की प्रवेश परीक्षा देने से साफ इनकार कर दिया। उस दिन, घर में एक भयानक तूफ़ान आया।
"अगर तुम्हें मेरी बात नहीं माननी," हरिनारायण जी ने गुस्से में कहा, "तो आज से इस घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं। जाओ, और जियो अपनी रंगों वाली ज़िंदगी। पर याद रखना, एक दिन तुम पछताओगे, और तब मेरे पास वापस मत आना।"
आरव, जिसका दिल अपने पिता की बातों से टूट चुका था, चुपचाप अपना एक छोटा सा बैग लेकर घर से निकल गया। यह एक बेटे का त्याग था, अपने सपनों के लिए अपने घर का त्याग।
समय का पहिया घूमा।
दस साल बीत गए।
हरिनारायण जी अब बूढ़े हो चले थे। उनकी लॉ फर्म आज भी सफल थी, पर उनके जीवन में एक गहरा खालीपन था। आरव ने इन दस सालों में कभी उनसे संपर्क नहीं किया। हाँ, वह अपनी माँ से कभी-कभी छिपकर बात कर लेता था। सुजाता जी ने बताया था कि वह बहुत संघर्ष कर रहा है, पर खुश है।
एक दिन, हरिनारायण जी को दिल का दौरा पड़ा। वह अस्पताल में थे, कमजोर और अकेले।
उस शाम, जब वह अपने अस्पताल के कमरे में लेटे थे, तो उन्होंने दरवाज़े पर एक आहट सुनी।
एक नौजवान, जिसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी और आँखों में एक अजीब सी उदासी थी, अंदर आया। वह आरव था। पर यह वह आरव नहीं था, जिसे हरिनारायण जी जानते थे। यह एक थका हुआ, हारा हुआ आरव था।
"पापा," उसने एक टूटी हुई आवाज़ में कहा।
"आरव? तुम... तुम यहाँ कैसे?" हरिनारायण जी ने हैरानी से पूछा।
"मैं हार गया, पापा," आरव उनके पैरों के पास ज़मीन पर बैठ गया और बच्चों की तरह रोने लगा। "आप सही थे। कला से पेट नहीं भरता। मैं एक असफल इंसान हूँ। मेरी सारी पेंटिंग्स धूल खा रही हैं, कोई खरीदार नहीं है। मैं वापस आ गया हूँ, पापा। अब आप जो कहेंगे, मैं वही करूँगा।"
यह सुनकर हरिनारा-यण जी का दिल जैसे किसी ने मुट्ठी में भींच लिया हो। उन्होंने अपने बेटे को हमेशा एक सफल वकील के रूप में देखने का सपना देखा था, पर उसे इस तरह टूटा हुआ और हारा हुआ देखकर, उन्हें अपनी जीत एक हार से भी बदतर लगी।
"उठो, बेटा," उन्होंने कांपते हाथों से उसे उठाया।
तभी, कमरे का दरवाज़ा फिर से खुला।
एक और नौजवान अंदर आया। वह भी बिल्कुल आरव जैसा दिखता था, पर उसकी आँखों में एक आत्मविश्वास और एक अनोखी चमक थी। उसने आते ही अपने पिता को गले से लगा लिया।
"कैसी तबीयत है, पापा?" उसने प्यार से पूछा।
हरिनारायण जी स्तब्ध थे। "तुम... तुम कौन हो?"
वह नौजवान मुस्कुराया। "मैं आरव हूँ, पापा। आपका बेटा।"
हरिनारायण जी ने पहले उस रोते हुए, हारे हुए आरव को देखा, और फिर इस आत्मविश्वासी, सफल आरव को। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था।
"पापा," सफल आरव ने कहा, "यह जो आपके पैरों में बैठा है, यह वह आरव है जो तब बनता, अगर मैं उस दिन आपकी बात मानकर घर से न गया होता। यह आपके डर की, आपकी उम्मीदों के बोझ की परछाई है।"
उसने अपने पिता को एक आर्ट मैगज़ीन दी। उसके कवर पर आरव की तस्वीर थी, और शीर्षक था - "भारत का सबसे प्रतिभाशाली युवा कलाकार"।
"और मैं," उसने कहा, "वह आरव हूँ, जिसने संघर्ष किया, जो भूखा रहा, पर जिसने अपने सपनों का साथ नहीं छोड़ा। और आज, मैं खुश हूँ, पापा। मैं बहुत खुश हूँ।"
हरिनारा-यण जी की आँखें फैल गईं। उन्हें लगा जैसे उन्हें सचमुच भविष्य की एक झलक दिख गई हो - एक वह भविष्य, जो वह अपने बेटे के लिए चाहते थे, और एक वह भविष्य, जो उनके बेटे ने खुद बनाया था।
उस हारे हुए आरव की छवि धीरे-धीरे धुंधली होने लगी और गायब हो गई।
हरिनारा-यण जी की आँखों से आँसू बहने लगे। पर ये आँसू दुख के नहीं, बल्कि एक गहरी समझ और पश्चाताप के थे।
उन्होंने अपने सफल, आत्मविश्वासी बेटे को कसकर गले से लगा लिया। "मुझे माफ कर दे, बेटा। मैं ही गलत था। मैं तुम्हें एक सफल इंसान बनाना चाहता था, पर यह भूल ही गया कि सफलता का मतलब सिर्फ पैसा और रुतबा नहीं, बल्कि मन की खुशी और आत्म-सम्मान भी होता है।"
यह कहानी हमें सिखाती है कि हम अपने बच्चों के लिए रास्ते बना तो सकते हैं, पर उन्हें उन पर चलने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। सच्ची सफलता दूसरों के बनाए रास्तों पर चलने में नहीं, बल्कि अपनी राह खुद बनाने में है। परिवार का आशीर्वाद एक पिंजरा नहीं, बल्कि वह हवा होनी चाहिए, जो हमारे बच्चों के सपनों के पंखों को और ऊँची उड़ान भरने की ताकत दे।
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