तीन बंदर: एक परिवार की अनकही सच्चाई

 

तीन बंदर: एक परिवार की अनकही सच्चाई
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गांधीजी के तीन बंदर - एक जो बुरा नहीं देखता, एक जो बुरा नहीं सुनता, और एक जो बुरा नहीं बोलता। यह सिर्फ एक सीख नहीं, बल्कि एक दर्शन है। पर जब यही दर्शन एक परिवार के रिश्तों में उलझ जाता है, तो इसके मायने बदल जाते हैं। यह कहानी है ऐसे ही एक परिवार की, जहाँ इन तीन बंदरों ने प्यार और गलतफहमी की एक अनोखी दास्तान लिख दी।

यह कहानी है सेवानिवृत्त शिक्षक, श्री रामस्वरूप जी, और उनके दो बेटों, विवेक और सुमित, की।

रामस्वरूप जी, गांधीजी के सिद्धांतों पर चलने वाले एक आदर्शवादी इंसान थे। उनके घर के मुख्य कमरे में हमेशा गांधीजी के तीन बंदरों की एक छोटी सी मूर्ति रखी रहती थी। वह हमेशा अपने बेटों को सिखाते थे, "बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो। इसी में जीवन का सार है।"

बड़ा बेटा, विवेक, बिल्कुल अपने पिता की परछाई था। वह शांत, आज्ञाकारी और हर बात को अनदेखा कर देने वाला था। वह उस पहले बंदर की तरह था, जो 'बुरा नहीं देखता'। उसे लगता था कि घर की शांति बनाए रखने के लिए, कभी-कभी समस्याओं को देखकर भी अनदेखा कर देना ही समझदारी है।

छोटा बेटा, सुमित, एक विद्रोही और सच्चाई पसंद लड़का था। उसे लगता था कि अन्याय को अनदेखा करना कायरता है। वह हमेशा सच बोलता था, चाहे वह कितना भी कड़वा क्यों न हो।

इस कहानी की एक और महत्वपूर्ण पात्र है, विवेक की पत्नी, अंजलि। अंजलि एक संवेदनशील और स्वाभिमानी महिला थी, जो अपने पति के 'सब कुछ अनदेखा' करने वाले स्वभाव से बहुत परेशान थी।

पारिवारिक संघर्ष की शुरुआत तब हुई, जब रामस्वरूप जी ने अपनी सारी संपत्ति और पुश्तैनी घर विवेक के नाम कर दिया, यह सोचकर कि बड़ा बेटा ही परिवार को सँभालेगा। उन्होंने सुमित को बस थोड़ी सी नकदी देकर उसकी ज़िम्मेदारी पूरी कर दी।

सुमित को यह फैसला बहुत चुभा। "पिताजी, यह अन्याय है!" उसने कहा। "आपने हमेशा हमें बराबरी का पाठ पढ़ाया, पर आज आपने खुद ही भेदभाव कर दिया।"

रामस्वरूप जी ने अपनी आँखें बंद कर लीं, जैसे उन्होंने कुछ सुना ही न हो। 'बुरा मत सुनो' - यह उनका तरीका था मुश्किल सवालों से बचने का।

विवेक, जो वहीं खड़ा था, चुप रहा। उसने अपने भाई की आँखों में दर्द देखा, पर वह कुछ नहीं बोला। 'बुरा मत देखो' - उसने सोचा, घर की शांति के लिए चुप रहना ही बेहतर है।

उस दिन, एक गलतफहमी ने दो भाइयों के बीच एक गहरी खाई खोद दी। सुमित को लगा कि उसके पिता और भाई, दोनों ने मिलकर उसके साथ धोखा किया है। वह गुस्से में घर छोड़कर चला गया।

सालों बीत गए। सुमित ने अपनी मेहनत से शहर में अपना एक छोटा सा काम शुरू कर लिया। वह कभी घर वापस नहीं आया।

इधर, घर में विवेक और अंजलि रहते थे। अंजलि देखती थी कि कैसे विवेक घर की हर समस्या से आँखें मूँद लेता है। जब कभी रिश्तेदार ताने मारते, या कोई पड़ोसी कुछ गलत कहता, विवेक हमेशा कहता, "छोड़ो, अंजलि। हमें क्या लेना-देना। बुरा देखोगे, तो मन में बुराई ही आएगी।"

अंजलि को यह सब देखकर घुटन होती। "आप हमेशा गांधीजी के बंदर क्यों बने रहते हैं?" वह एक दिन रो पड़ी। "कभी-कभी, बुराई को न देखना उसे बढ़ावा देना होता है। सुमित भाई साहब के साथ जो हुआ, वह गलत था, और आप चुप रहे!"

उस दिन, विवेक और अंजलि के रिश्ते में भी एक दरार आ गई।

कहानी में मोड़ तब आया, जब रामस्वरूप जी बहुत बीमार पड़ गए। उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा और डॉक्टर ने बताया कि उन्हें खून की तत्काल ज़रूरत है। उनका ब्लड ग्रुप बहुत दुर्लभ था।

विवेक ने हर जगह फोन किया, पर कहीं से भी खून का इंतज़ाम नहीं हो पा रहा था। वह असहाय और टूटा हुआ महसूस कर रहा था।

उस मुश्किल घड़ी में, अंजलि ने एक बड़ा फैसला किया। उसने अपनी सास की पुरानी डायरी से सुमित का नंबर निकाला और उसे फोन किया।

"सुमित," उसने कांपती आवाज़ में कहा, "पिताजी बहुत बीमार हैं। उन्हें खून की ज़रूरत है।"

फोन के दूसरी तरफ एक लंबी खामोशी थी। फिर सुमित ने बस इतना कहा, "मैं आ रहा हूँ।"

सुमित का ब्लड ग्रुप वही था।

जब सुमित अस्पताल पहुँचा, तो सालों बाद दोनों भाइयों की नज़रें मिलीं। विवेक की आँखों में आज पश्चाताप था, और सुमित की आँखों में दर्द।

सुमित ने चुपचाप खून दिया। जब वह बाहर आया, तो विवेक ने उसके हाथ पकड़ लिए। "मुझे माफ कर दे, सुमित। मैं एक अच्छा भाई नहीं बन पाया।"

"आपने कुछ गलत नहीं किया, भैया," सुमित ने एक कड़वी मुस्कान के साथ कहा। "आप तो बस पिताजी के सिखाए रास्ते पर चल रहे थे - 'बुरा मत देखो'।"

तभी, डॉक्टर ने आकर बताया कि रामस्वरूप जी अब खतरे से बाहर हैं।

कुछ दिनों बाद, जब रामस्वरूप जी घर लौटे, तो उन्होंने अपने दोनों बेटों और बहू को अपने पास बुलाया। वह बहुत कमजोर लग रहे थे, पर उनकी आँखों में आज एक गहरी समझ थी।

उन्होंने कांपते हाथों से उन तीन बंदरों की मूर्ति उठाई।

"मैं हमेशा तुम सबको यह सीख देता रहा," उन्होंने nghẹn ngat गले से कहा। "पर आज मुझे समझ आया कि मैंने खुद ही इसका गलत मतलब निकाला।"

उन्होंने कहा, "'बुरा मत देखो' का मतलब अन्याय को अनदेखा करना नहीं, बल्कि दूसरों में बुराई खोजने की आदत छोड़ना है। 'बुरा मत सुनो' का मतलब सच से कान बंद करना नहीं, बल्कि निंदा और अफवाहों पर ध्यान न देना है। और 'बुरा मत बोलो' का मतलब चुप रहना नहीं, बल्कि कड़वा सच भी प्रेम और सम्मान के साथ बोलना है।"

उन्होंने अपने दोनों बेटों के हाथ अपने हाथों में लिए। "मैंने तुम दोनों के साथ अन्याय किया। विवेक, तुम्हें बोलना चाहिए था। और सुमित, तुम्हें माफ कर देना चाहिए था। आज मेरे ही खून ने मेरी जान बचाकर मुझे मेरी सबसे बड़ी गलती का एहसास कराया है।"

उस दिन, उस घर में रिश्तों का एक नया अध्याय शुरू हुआ। रामस्वरूप जी ने अपनी संपत्ति दोनों बेटों में बराबर बाँट दी। पर उससे भी बड़ी बात, उन्होंने अपने परिवार को वह एकता और संवाद वापस दिया, जो सालों पहले खो गया था।

यह कहानी हमें सिखाती है कि सिद्धांत ज़िंदगी को दिशा देने के लिए होते हैं, रिश्तों को तोड़ने के लिए नहीं। कभी-कभी, घर की शांति बनाए रखने के लिए चुप रहना सबसे बड़ा अशांति का कारण बन जाता है। असली ताकत बुराई को अनदेखा करने में नहीं, बल्कि उसे प्यार और हिम्मत से सामना करने में है।

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