आत्मविश्वास की खोज: एक गृहिणी की अपनी पहचान की कहानी
'आत्मविश्वास' - यह सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि वह अनदेखी ताकत है जो हमें हमारी अपनी नज़रों में मूल्यवान बनाती है। पर अक्सर, भारतीय परिवारों में, एक महिला शादी के बाद अपनी सारी पहचान, सारे सपने और सारा आत्मविश्वास अपने पति और बच्चों के नाम कर देती है। यह कहानी है ऐसी ही एक महिला, प्रिया, की। यह कहानी है उसके आत्मविश्वास की खोज की, और उस सफर की, जिसने उसे सिर्फ एक पत्नी और माँ होने से आगे, 'प्रिया' होने का एहसास कराया।
प्रिया की शादी एक बड़े, संयुक्त परिवार में हुई थी। उसके पति, सुमित, एक सफल बिजनेसमैन थे, जो उससे बहुत प्यार करते थे। उसकी सास, शारदा जी, एक पारंपरिक पर नेक दिल महिला थीं। बाहर से देखने पर, प्रिया की ज़िंदगी बिल्कुल परफेक्ट थी। पर उस परफेक्ट ज़िंदगी के अंदर, प्रिया धीरे-धीरे खुद को खो रही थी।
शादी से पहले, प्रिया एक प्रतिभाशाली कथक नृत्यांगना थी। उसकी आँखों में चमक थी, और उसके पैरों में एक आत्मविश्वास था। पर शादी के बाद, घर की जिम्मेदारियों और एक 'अच्छी बहू' बनने की कोशिश में, उसके घुँघरू कहीं धूल खाने लगे।
यह एक आम भारतीय गृहिणी का संघर्ष था, जो परिवार के लिए अपनी पहचान को कुर्बान कर देती है।
वह अब भी खुश थी, पर उसकी खुशी अब दूसरों की खुशियों में शामिल थी। सुमित की तरक्की, बच्चों के अच्छे नंबर... यही उसकी सफलताएँ थीं। वह भूल ही गई थी कि उसके अपने भी कुछ सपने थे। उसका आत्मविश्वास अब इस बात पर निर्भर करता था कि खाना कितना स्वादिष्ट बना है, या घर कितना साफ है।
इस कहानी में एक और किरदार है, प्रिया की छोटी ननद, नेहा। नेहा एक कॉलेज छात्रा थी, जो अपनी भाभी से बहुत प्यार करती थी और उनकी सबसे अच्छी दोस्त भी थी।
कहानी में मोड़ तब आया, जब शहर में एक बड़े सांस्कृतिक महोत्सव की घोषणा हुई, जिसमें एक नृत्य प्रतियोगिता भी थी।
"भाभी, आप इसमें हिस्सा क्यों नहीं लेतीं?" नेहा ने बड़े उत्साह से कहा, जब उसने प्रिया को अपनी पुरानी तस्वीरों का एल्बम देखते हुए देखा, जिसमें वह मंच पर नृत्य कर रही थी।
प्रिया ने एक फीकी सी मुस्कान के साथ कहा, "अरे नहीं, नेहा। अब कहाँ मुझसे यह सब होगा? सालों हो गए रियाज़ छोड़े हुए। और घर-गृहस्थी से फुर्सत ही कहाँ मिलती है।"
"यह सिर्फ बहाना है, भाभी," नेहा ने ज़िद की। "आप डर रही हैं।"
यह सुनकर प्रिया चौंक गई। क्या वह सच में डर रही थी? हाँ, वह डर रही थी। मंच का सामना करने से, लोगों की नज़रों से, और सबसे ज़्यादा, खुद के असफल हो जाने के डर से। उसका आत्मविश्वास इतना कम हो चुका था कि वह एक कोशिश करने से भी घबरा रही थी।
उस रात, सुमित ने भी उसे समझाया। "प्रिया, नेहा ठीक कह रही है। तुम एक बेहतरीन डांसर हो। तुम्हें एक मौका ज़रूर लेना चाहिए।"
"पर लोग क्या कहेंगे?" प्रिया ने कहा। "सब कहेंगे, इस उम्र में नाचने-गाने का शौक चढ़ा है।"
यह एक गलतफहमी थी, जिसे प्रिया ने खुद अपने मन में पाल लिया था।
अगले दिन, जब प्रिया अपनी सास, शारदा जी, के लिए चाय लेकर गई, तो उन्होंने देखा कि वह एक पुराने संदूक से कुछ निकाल रही हैं। वह एक जोड़ी, पुराने, चाँदी के घुँघरू थे।
"यह मेरे हैं," शारदा जी ने एक धीमी, यादों में खोई हुई आवाज़ में कहा। "मैं भी तुम्हारी तरह नाचना चाहती थी। पर मेरे बाबूजी ने कभी इजाज़त नहीं दी। मेरे सपने हमेशा के लिए इस संदूक में ही बंद होकर रह गए।"
उन्होंने वह घुँघरू प्रिया के हाथों में रख दिए। "मैं जो नहीं कर पाई, वह तुम करो, बेटी। समाज की दीवारों को इतना ऊँचा मत बनाओ कि तुम्हारे सपनों का दम घुट जाए। जाओ, और अपनी कला को फिर से ज़िंदा करो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।"
यह एक सास का त्याग और प्रेरणा थी, जो अपनी बहू में अपने अधूरे सपनों को पूरा होते देखना चाहती थीं।
उस दिन, प्रिया को वह हिम्मत मिली, जिसकी उसे तलाश थी। उसने सालों बाद अपने पैरों में वे घुँघरू बाँधे। शुरू में उसके पैर कांपे, ताल बिगड़ी, पर धीरे-धीरे, उसके शरीर को अपनी पुरानी लय याद आने लगी।
उसने प्रतियोगिता के लिए दिन-रात एक कर दिया। सुमित ने घर की जिम्मेदारियों में उसका हाथ बँटाया, और शारदा जी ने उसे एक गुरु की तरह सही मुद्राएँ और भाव सिखाए। पूरा परिवार उसकी ताकत बन गया।
प्रतियोगिता के दिन, जब प्रिया मंच पर पहुँची, तो एक पल के लिए उसका दिल ज़ोरों से धड़का। पर फिर उसने दर्शकों में बैठे अपने पति, अपनी सास और अपनी ननद के मुस्कुराते हुए चेहरों को देखा।
उस रात, प्रिया ने सिर्फ नृत्य नहीं किया, उसने अपनी आत्मा को मंच पर प्रस्तुत कर दिया। उसके हर भाव में एक गृहिणी का संघर्ष था, एक पत्नी का प्यार था, और एक कलाकार की सालों की दबी हुई तड़प थी।
जब उसका प्रदर्शन खत्म हुआ, तो पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। उसने प्रतियोगिता जीती या नहीं, यह मायने नहीं रखता था। मायने यह रखता था कि आज उसने खुद को जीत लिया था।
जब वह मंच से उतरी, तो उसकी आँखों में जीत के आँसू थे। पर यह आँसू किसी ट्रॉफी के लिए नहीं, बल्कि अपने खोए हुए आत्मविश्वास को फिर से पाने के लिए थे।
यह कहानी हमें सिखाती है कि एक महिला की पहचान सिर्फ उसके रिश्तों से नहीं होती। वह किसी की पत्नी, किसी की माँ, किसी की बहू होने के साथ-साथ, खुद भी कुछ है। आत्मविश्वास की खोज का यह सफर हमें बताता है कि अपने सपनों को फिर से जीने की कोई उम्र नहीं होती। ज़रूरत है तो बस एक कदम उठाने की, और उस परिवार के सहारे की, जो हमें हमारी असली ताकत का एहसास दिलाए।
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