बेरोज़गारी से जूझता युवक: सपनों और जिम्मेदारियों के बीच एक संघर्ष

 

बेरोज़गारी से जूझता युवक: सपनों और जिम्मेदारियों के बीच एक संघर्ष 
Berojgar

डिग्रियों का बोझ उठाए, आँखों में उम्मीदें लिए, और जेब में कुछ सिक्कों की खनक के साथ, हर साल लाखों युवा भारत के छोटे शहरों से बड़े शहरों की ओर पलायन करते हैं। यह कहानी है ऐसे ही एक बेरोज़गारी से जूझते युवक, आकाश, की। यह कहानी है उसके सपनों, उसके संघर्ष और उस परिवार की, जिसकी उम्मीदें उस पर टिकी थीं।

आकाश, इलाहाबाद के एक मध्यमवर्गीय परिवार का होनहार बेटा था। उसके पिता, श्री रवि प्रकाश जी, एक रिटायर्ड क्लर्क थे, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी की जमा-पूँजी अपने बेटे की इंजीनियरिंग की पढ़ाई में लगा दी थी। उसकी माँ, शारदा जी, एक साधारण गृहिणी थीं, जिनकी दुनिया अपने बेटे के आस-पास ही घूमती थी।

इंजीनियरिंग में गोल्ड मेडल के साथ पास होने के बाद, आकाश को यकीन था कि उसे तुरंत एक अच्छी नौकरी मिल जाएगी। पर हकीकत उसकी उम्मीदों से कहीं ज़्यादा कठोर थी।

यह एक आम भारतीय युवक का संघर्ष था, जो अच्छी शिक्षा के बावजूद नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहा था।

वह दिल्ली आया, एक छोटे से किराए के कमरे में रहने लगा और इंटरव्यू देने का सिलसिला शुरू हुआ। दिन बीतते गए, महीने बीतते गए, पर हर जगह से उसे एक ही जवाब मिलता - "हम आपको कॉल करेंगे।"

धीरे-धीरे, उसकी सारी बचत खत्म होने लगी। अब वह अपने दोस्तों से उधार लेकर काम चला रहा था। रात में जब वह घर फोन करता, तो अपनी आवाज़ में झूठी खुशी भरकर कहता, "हाँ माँ, सब ठीक है। बस, एक-दो अच्छी कंपनियाँ हैं, बात चल रही है।"

वह अपने माता-पिता को अपनी सच्चाई बताकर उन्हें परेशान नहीं करना चाहता था।

कहानी में एक और किरदार है, आकाश की छोटी बहन, प्रिया। प्रिया अपने भाई के बहुत करीब थी और उसकी हर अनकही बात समझ जाती थी।

एक दिन, जब प्रिया ने अपने भाई से वीडियो कॉल पर बात की, तो उसने देख लिया कि आकाश कितना कमजोर और परेशान लग रहा है।

"भाई, आप ठीक तो हो न?" उसने चिंता से पूछा।

"हाँ गुड़िया, मैं बिल्कुल ठीक हूँ," आकाश ने मुस्कुराने की कोशिश की।

"झूठ मत बोलो, भाई," प्रिया की आवाज़ nghẹn ngat हो गई। "मैंने देख लिया है, आपने कितने दिनों से ठीक से खाना भी नहीं खाया है।"

उस रात, आकाश बहुत रोया। उसे पहली बार अपनी लाचारी पर, अपनी बेरोज़गारी पर गुस्सा आया। उसे लगने लगा कि वह अपने परिवार की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया।

गलतफहमी की दीवार तब और ऊँची हो गई, जब एक दिन उसके पिता ने उसे फोन किया।

"बेटा," उन्होंने एक सख्त, पर कांपती आवाज़ में कहा, "बहुत हो गया। अब वापस आ जा। यहाँ कोई छोटी-मोटी दुकान खोल लेंगे। कम से कम अपनी आँखों के सामने तो रहेगा।"

आकाश को लगा कि उसके पिता को उस पर बिल्कुल भरोसा नहीं है। "पापा, आप भी मुझ पर शक कर रहे हैं?" उसने गुस्से में कहा और फोन काट दिया।

उस दिन, बाप-बेटे के बीच की दूरी और भी बढ़ गई।

कहानी में मोड़ तब आया, जब एक सुबह, आकाश के मकान मालिक ने उसे किराया न देने पर घर खाली करने को कह दिया। उस दिन, आकाश पूरी तरह से टूट गया। वह हताश होकर एक पार्क में बैठा था, जब उसकी माँ का फोन आया।

"बेटा, तू कहाँ है? तेरी आवाज़ क्यों ऐसी लग रही है?"

आकाश अब और झूठ नहीं बोल पाया। उसने रोते-रोते अपनी माँ को सारी सच्चाई बता दी।

फोन के दूसरी तरफ एक पल की खामोशी थी। फिर उसकी माँ ने बड़ी हिम्मत से कहा, "बस इतनी सी बात? तू चिंता मत कर। मैं हूँ न।"

अगले दिन, आकाश के बैंक खाते में कुछ पैसे आए। उसने हैरान होकर अपनी बहन को फोन किया।

"प्रिया, यह पैसे...?"

प्रिया रोने लगी। "भाई, माँ ने अपने शादी के कंगन बेच दिए।"

यह सुनकर आकाश के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। यह एक माँ का त्याग था, जिसने अपने बेटे के टूटे हुए आत्मविश्वास को फिर से जोड़ने के लिए अपनी सबसे कीमती चीज़ कुर्बान कर दी थी।

उसे अपने पिता की कठोरता का कारण भी समझ आया। वे उस पर शक नहीं कर रहे थे, वे तो बस अपने बेटे को और तकलीफ में नहीं देख सकते थे।

उस एक पल में, आकाश के अंदर एक नई आग जली। यह आग अब सिर्फ नौकरी पाने की नहीं, बल्कि अपने परिवार के हर त्याग का मान रखने की थी।

उसने उन पैसों से अपना किराया दिया और एक आखिरी बार, पूरी ताकत से तैयारी करने में जुट गया। उसने फैसला किया कि वह सिर्फ बड़ी कंपनियों के पीछे नहीं भागेगा, बल्कि एक छोटे स्टार्टअप में भी काम करने को तैयार है, जहाँ उसे सीखने का मौका मिले।

कुछ हफ्तों बाद, उसे एक छोटी, पर इनोवティブ टेक स्टार्टअप में नौकरी मिल गई। तनख्वाह बहुत ज़्यादा नहीं थी, पर काम में चुनौती और सीखने का जुनून था।

एक साल बाद, उसी स्टार्टअप ने एक ऐसा इनोवेटिव प्रोडक्ट बनाया, जिसने मार्केट में धूम मचा दी। आकाश उस प्रोजेक्ट का लीड इंजीनियर था। उसे रातों-रात पहचान मिली और बड़ी-बड़ी कंपनियों से ऑफर आने लगे।

जब वह पहली बार सफल होकर अपने घर लौटा, तो उसके हाथ में कोई महंगा तोहफा नहीं, बल्कि अपनी माँ के लिए वैसे ही सोने के कंगन थे, जैसे उन्होंने बेचे थे।

उसने वह कंगन अपनी माँ के हाथों में पहनाए और उनके पैरों में गिर पड़ा।

फिर वह अपने पिता के पास गया। "पापा, मैं आपका भरोसा नहीं तोड़ूँगा।"

रवि प्रकाश जी ने अपने बेटे को गले से लगा लिया। "मुझे तुम पर हमेशा से भरोसा था, बेटा। मैं तो बस तुम्हारे संघर्ष से डर गया था।"

यह कहानी हमें सिखाती है कि बेरोज़गारी का संघर्ष सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरे परिवार का होता है। पर जब परिवार का নিঃस्वार्थ प्रेम और त्याग एक ढाल बनकर हमारे साथ खड़ा होता है, तो कोई भी मुश्किल हमें तोड़ नहीं सकती। सफलता शायद देर से मिले, पर मिलती ज़रूर है।

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