कबूतर और उसके बच्चों की दिल को छू लेने वाली कहानी
दिल्ली की एक पुरानी, भीड़-भाड़ वाली कॉलोनी में, जहाँ इमारतों के जंगल में आसमान का एक छोटा सा टुकड़ा ही नज़र आता था, वहाँ चौथे माले पर अवस्थी परिवार का फ्लैट था। यह कहानी है उस फ्लैट की बालकनी की, और उस बालकनी में रहने वाले एक छोटे से कबूतर परिवार की।
श्रीमती शारदा अवस्थी, एक रिटायर्ड स्कूल टीचर, को कबूतरों से सख्त नफरत थी। "कितनी गंदगी फैलाते हैं ये!" वह अक्सर अपने पति, श्री बृजमोहन जी, से शिकायत करतीं। "पूरी बालकनी खराब कर देते हैं।"
बृजमोहन जी शांत स्वभाव के थे। वह अपनी पत्नी को समझाते, "रहने दो, शारदा। बेजुबान हैं, कहाँ जाएँगे।"
एक दिन, शारदा जी ने देखा कि उनके एसी के बाहरी यूनिट और दीवार के बीच की छोटी सी जगह में, एक कबूतर ने घोंसला बना लिया है। उसमें दो छोटे-छोटे, सफेद अंडे भी थे। यह देखकर उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया।
"अब यह हद हो गई!" उन्होंने अपने बेटे, रोहित, को आवाज़ दी। "रोहित, इस घोंसले को यहाँ से हटाओ!"
रोहित, जो एक संवेदनशील और दयालु लड़का था, ने जब उस घोंसले को देखा, तो उसका दिल पसीज गया। माँ कबूतर अपनी बड़ी-बड़ी, मासूम आँखों से उसे ऐसे देख रही थी, मानो कह रही हो, 'प्लीज, मेरे घर को मत तोड़ो।'
"माँ, प्लीज रहने दीजिए," रोहित ने विनती की। "अंडे हैं इसमें। एक बार बच्चे निकलकर उड़ जाएँ, फिर हम हटा देंगे।"
बहुत ना-नुकुर के बाद, शारदा जी मान तो गईं, पर उन्होंने शर्त रख दी, "ठीक है। पर सफाई रोज़ तुम करोगे।"
उस दिन के बाद, वह बालकनी रोहित की ज़िम्मेदारी बन गई। और अनजाने में ही, अवस्थी परिवार उस कबूतर और उसके बच्चों की ज़िंदगी का हिस्सा बन गया।
रोहित रोज़ सुबह माँ कबूतर के लिए दाना और पानी रखता। वह घंटों दूर से उस घोंसले को देखता रहता। उसने देखा कि कैसे माँ और पिता कबूतर बारी-बारी से अंडों को सेंकते हैं। कैसे वे एक-दूसरे से अपनी भाषा में बातें करते हैं।
कुछ हफ्तों बाद, उन अंडों में से दो छोटे-छोटे, पंखहीन बच्चे निकले। उनकी चोंच हमेशा खुली रहती और वे अपनी माँ के आने का इंतज़ार करते।
अब माँ कबूतर की असली परीक्षा शुरू हुई। वह सुबह तड़के ही दाने की खोज में निकल जाती और दिन भर मेहनत करके अपने बच्चों के लिए भोजन लाती। वह खुद कम खाती, पर अपने बच्चों की चोंच में दाना डालने के बाद उसकी आँखों में एक अजीब सी संतुष्टि होती।
शारदा जी, जो पहले उस बालकनी में झाँकना भी पसंद नहीं करती थीं, अब छिप-छिपकर उस कबूतर परिवार को देखने लगी थीं। उन्होंने देखा कि एक दिन तेज़ आँधी और बारिश आई। माँ कबूतर ने अपने पंखों को फैलाकर अपने बच्चों को पूरी तरह से ढक लिया। वह खुद बारिश में भीगती रही, तूफ़ान से लड़ती रही, पर अपने बच्चों पर एक बूँद भी नहीं आने दी।
उस रात, उस माँ कबूतर के त्याग को देखकर शारदा जी का पत्थर दिल पिघल गया। उनकी आँखों में आँसू आ गए। उन्हें उस बेजुबान परिंदे में अपनी छवि दिखाई दी। उन्हें याद आया कि कैसे उन्होंने भी रोहित के बीमार होने पर रात-रात भर जागकर उसके सिर पर पट्टियाँ रखी थीं।
यह एक माँ की ममता की कहानी थी, जिसकी कोई प्रजाति नहीं होती।
अगली सुबह, जब रोहित दाना रखने बालकनी में गया, तो उसने देखा कि वहाँ पहले से ही एक कटोरी में दाना और पानी रखा हुआ है। उसने हैरानी से अपनी माँ की ओर देखा।
शारदा जी मुस्कुराईं। "बेचारे, दिन भर मेहनत करते हैं। थोड़ा आराम मिल जाएगा।"
उस दिन के बाद, शारदा जी उस कबूतर परिवार की सबसे बड़ी संरक्षक बन गईं। वह अब उन्हें 'गंदगी फैलाने वाले' नहीं, बल्कि 'नन्हे मेहमान' कहती थीं।
धीरे-धीरे, बच्चे बड़े होने लगे। उनके पंख निकलने लगे। अब वे घोंसले से बाहर निकलकर फुदकने लगे थे। एक दिन, माँ कबूतर ने अपने एक बच्चे को उड़ना सिखाने की कोशिश की। वह उसे बालकनी की रेलिंग पर ले गई और उसे पंख फड़फड़ाने का इशारा किया। पर बच्चा डर रहा था।
माँ ने उसे चोंच से हल्का सा धक्का दिया। बच्चा लड़खड़ाया और नीचे ज़मीन की ओर गिरने लगा।
"अरे!" शारदा जी और रोहित, जो यह सब देख रहे थे, एक साथ चीख पड़े।
लेकिन ज़मीन पर गिरने से ठीक पहले, बच्चे ने अपने पंख खोले और पहली बार उड़ान भरी। वह थोड़ी देर हवा में डगमगाया और फिर सीधा जाकर सामने वाले पेड़ पर बैठ गया। माँ कबूतर भी उसके पीछे उड़कर गई और उसे प्यार से सहलाने लगी।
यह दृश्य देखकर शारदा जी की आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे।
यह कहानी हमें सिखाती है कि माँ का प्यार सिर्फ़ पालना-पोसना नहीं है। यह अपने बच्चों को मजबूत बनाना और उन्हें ऊँचे आसमान में उड़ने के लिए तैयार करना भी है, भले ही इसके लिए उन्हें थोड़ा कठोर क्यों न बनना पड़े।
कुछ दिनों बाद, वह बालकनी खाली हो गई। कबूतर और उसके बच्चे अपनी नई दुनिया में उड़ चुके थे। बालकनी अब साफ थी, पर शारदा जी को वह खालीपन काट रहा था।
उस शाम, उन्होंने अपने पति से कहा, "सुनिए जी, बालकनी बहुत सूनी लग रही है। कल बाज़ार से पक्षियों के लिए एक दाना-पानी का बर्तन ले आएँगे।"
बृजमोहन जी मुस्कुराए। उनकी पत्नी ने आज ज़िंदगी का एक बहुत बड़ा सबक सीखा था - कि हर जीव में एक ही ईश्वर का अंश है, और हर माँ की ममता एक जैसी ही पवित्र होती है।
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