पिताजी की मुस्कान: बेटे की मेहनत का असली मोल

 

पिताजी की मुस्कान: बेटे की मेहनत का असली मोल

बनारस के एक पुराने मोहल्ले में, जहाँ आज भी घरों की छतों पर सुबह की धूप के साथ पापड़ सूखते थे, वहाँ केशव अपने परिवार के साथ रहता था। उसके पिताजी, श्री रामभरोसे जी, एक सरकारी स्कूल के रिटायर्ड मास्टर थे। उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी ईमानदारी और सिद्धांतों पर जी थी। उनकी दुनिया छोटी थी, पर उसमें संतोष था।

यह कहानी है एक बेटे की मेहनत की, और उस एक पल की, जिसने उसे उसकी मेहनत का असली मोल समझाया।

केशव एक होनहार और महत्वाकांक्षी लड़का था। उसने अपने पिता को हमेशा सीमित साधनों में परिवार चलाते देखा था। उसने मन ही मन ठान लिया था कि वह इतना पैसा कमाएगा कि अपने माँ-बाप को दुनिया की हर खुशी दे सके।

इंजीनियरिंग करने के बाद, उसे मुंबई में एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई। वह दिन-रात काम करता, प्रमोशन पाता और पैसे बचाता। वह हर महीने घर पर एक मोटी रकम भेजता। उसने अपने पुराने घर की मरम्मत करवाई, एसी लगवाया और अपनी माँ, कमला जी, के लिए हर आधुनिक सुविधा का इंतज़ाम कर दिया।

पर जब भी वह अपने पिताजी से फोन पर बात करता, तो एक अजीब सी दूरी महसूस करता।

"और बेटा, सब ठीक है?" रामभरोसे जी पूछते।

"हाँ पिताजी, सब बढ़िया है। मैंने इस महीने बोनस के पैसे भेजे हैं, माँ के लिए एक नई वाशिंग मशीन ले लेना," केशव उत्साह से कहता।

"ठीक है बेटा... अपना ध्यान रखना," रामभरोसे जी की आवाज़ में खुशी से ज़्यादा एक खामोशी होती थी।

केशव को यह बात समझ नहीं आती थी। उसे लगता था कि वह एक अच्छा बेटा होने का हर फर्ज़ निभा रहा है। वह पैसे भेज रहा है, घर की ज़रूरतें पूरी कर रहा है, और क्या चाहिए?

इस कहानी के एक और किरदार हैं, केशव की छोटी बहन, नेहा। वह अपने पिता के दिल के बहुत करीब थी और उनकी अनकही बातों को भी समझ लेती थी।

तीन साल बीत गए। केशव ने मुंबई में अपनी मेहनत से एक छोटा सा फ्लैट खरीद लिया। उसने सोचा कि वह अपने माँ-बाप को एक बड़ा सरप्राइज देगा। वह उन्हें हमेशा के लिए अपने पास, मुंबई बुला लेगा।

जब वह घर पहुँचा, तो उसके हाथ में फ्लैट के कागज़ात थे।

"माँ, पिताजी, अब आपको इस छोटे से घर में रहने की ज़रूरत नहीं। मैंने मुंबई में अपना घर ले लिया है। अब हम सब साथ रहेंगे," उसने बड़े गर्व से कहा।

उसकी माँ की आँखों में खुशी के आँसू थे, पर रामभरोसे जी चुप थे। उनके चेहरे पर कोई खास भाव नहीं था।

"क्या हुआ, पिताजी? आप खुश नहीं हैं?" केशव ने थोड़ी निराशा से पूछा।

"नहीं बेटा, खुश क्यों नहीं हूँ," उन्होंने धीरे से कहा। "बस... यह घर... यहाँ तुम्हारी दादी की यादें हैं, तुम्हारा बचपन है। इसे कैसे छोड़ दूँ?"

केशव को गुस्सा आ गया। "पिताजी, आप हमेशा पुरानी बातों में ही अटके रहते हैं। मैं आपके आराम के लिए यह सब कर रहा हूँ, और आप हैं कि..."

बात वहीं अधूरी रह गई।

उस रात, नेहा अपने भाई के पास आई। "भाई," उसने कहा, "आप पिताजी को कभी समझ ही नहीं पाए। उन्हें आपके पैसों या इस फ्लैट की ज़रूरत नहीं है।"

"तो फिर उन्हें क्या चाहिए?" केशव ने झुंझलाहट में पूछा।

"आपका समय," नेहा ने शांति से जवाब दिया। "वह बस यह चाहते हैं कि उनका बेटा उनके पास बैठे, उनसे दो बातें करे, उनके साथ एक कप चाय पिए।"

अगले दिन, केशव का मन बहुत भारी था। वह सुबह-सुबह छत पर चला गया। उसने देखा कि उसके पिताजी अपनी पुरानी, टूटी हुई आरामकुर्सी पर बैठे, दूर गंगा की ओर देख रहे थे। वह कुर्सी उनके पिताजी की थी, और रामभरोसे जी रोज़ सुबह उसी पर बैठते थे।

केशव चुपचाप गया और ज़मीन पर उनके पैरों के पास बैठ गया। सालों बाद, बाप-बेटे यूँ एक साथ खामोशी में बैठे थे।

"पिताजी," केशव ने हिम्मत करके कहा, "मुझे माफ कर दीजिए। मैं यह समझने में बहुत देर कर दी कि आपको क्या चाहिए।"

रामभरोसे जी ने कुछ नहीं कहा। बस अपना एक हाथ अपने बेटे के सिर पर रख दिया।

"बचपन में," केशव ने कहना जारी रखा, "जब आप स्कूल से आते थे, तो आप और मैं इसी कुर्सी पर बैठकर संतरे खाते थे। आपको याद है?"

पहली बार, केशव ने अपने पिता की आँखों में एक चमक देखी।

"हाँ बेटा... याद है," उनकी आवाज़ में एक नमी थी। "तू हमेशा सारे बीज मेरे कुर्ते पर थूक देता था।"

यह सुनकर दोनों हँस पड़े। सालों बाद, वह हँसी उस घर के आँगन में गूँजी।

उस दिन, केशव ने कोई बड़ी घोषणा नहीं की। उसने बस एक छोटा सा काम किया। वह बाज़ार गया और एक नई, आरामदायक लकड़ी की कुर्सी खरीदकर लाया। उसने पुरानी कुर्सी को हटाया और उसकी जगह वह नई कुर्सी रख दी।

शाम को, जब रामभरोसे जी छत पर आए और उन्होंने वह नई कुर्सी देखी, तो वे बस देखते रह गए।

"यह..."

"यह आपके लिए है, पिताजी," केशव ने कहा। "ताकि जब आप यहाँ बैठें, तो आपकी पीठ में दर्द न हो।"

रामभरोसे जी उस कुर्सी पर बैठे। वह बिल्कुल आरामदायक थी। उन्होंने अपनी आँखें बंद कीं, और उनके चेहरे पर एक गहरी, सुकून भरी मुस्कान फैल गई। यह कोई साधारण मुस्कान नहीं थी। यह एक पिता के गर्व, संतोष और अपने बेटे से मिले अनकहे प्यार की मुस्कान थी।

उस एक पिताजी की मुस्कान को देखकर केशव को लगा कि उसे आज अपनी बेटे की मेहनत का असली मोल मिल गया है। वह मोल किसी फ्लैट के कागज़ात या बैंक बैलेंस में नहीं, बल्कि अपने पिता की आँखों की उस चमक और उस सुकून भरी मुस्कान में था।



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