हार न मानने वाला लड़का: एक अदम्य साहस की कहानी

 

हार न मानने वाला लड़का: एक अदम्य साहस की कहानी

राजस्थान के एक छोटे से गाँव में, जहाँ ज़िंदगी रेत की तरह फिसलती थी और सपने अक्सर धूप में ही जल जाते थे, वहाँ अर्जुन नाम का एक लड़का रहता था। अर्जुन के पिता, जो एक मामूली किसान थे, कुछ साल पहले एक कर्ज के बोझ तले दबकर दुनिया छोड़ गए थे। अब घर में सिर्फ अर्जुन, उसकी माँ, सावित्री, और एक छोटी बहन, प्रिया, थे।

यह कहानी है एक हार न मानने वाले लड़के की, जिसके कंधों पर उम्मीदों से ज़्यादा जिम्मेदारियों का बोझ था।

अर्जुन का सपना था एक एथलीट बनना, एक धावक बनना। वह गाँव की पथरीली पगडंडियों पर नंगे पैर ऐसे दौड़ता था, जैसे हवा से बातें कर रहा हो। उसका स्टैमिना और उसकी गति असाधारण थी। पर गाँव में न कोई कोच था, न कोई सुविधाएँ। उसका सपना एक ऐसा ख्वाब था, जिसे पूरा करने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता था।

"बेटा, यह दौड़-धूप छोड़ दे," गाँव के लोग अक्सर कहते। "दो वक्त की रोटी कमा, वही बहुत है।"

घर की हालत भी दिन-ब-दिन खराब हो रही थी। माँ की आँखों की रोशनी कमजोर हो रही थी और बहन की पढ़ाई का खर्चा भी था। अर्जुन ने अपने सपनों को एक कोने में रख दिया और शहर जाकर एक फैक्ट्री में मजदूरी करने लगा।

वह सुबह से शाम तक मशीनों के बीच पिसता, और रात को थककर चूर हो जाता। पर हर रात, सोने से पहले, वह अपनी पुरानी, फटी हुई जूतियों को देखता और उसकी आँखों में फिर से दौड़ने का सपना जाग उठता।

इस कहानी की सबसे बड़ी ताकत थी अर्जुन की माँ, सावित्री। वह पढ़ी-लिखी नहीं थीं, पर ज़िंदगी के अनुभव ने उन्हें बहुत समझदार बना दिया था। वह अपने बेटे की आँखों में छिपे अधूरे सपनों को पढ़ सकती थीं।

एक रात, जब अर्जुन काम से लौटा, तो उसने देखा कि उसकी माँ अँधेरे में बैठी कुछ सिल रही हैं।

"क्या कर रही हो, माँ?" उसने पूछा।

"तेरे लिए नई बनियान बना रही हूँ, बेटा। दौड़ते समय काम आएगी," सावित्री ने बिना नज़रें उठाए कहा।

अर्जुन का दिल भर आया। "माँ, अब मैं कहाँ दौड़ता हूँ? अब तो ज़िंदगी ही एक दौड़ बन गई है, जिसमें मैं रोज़ हार रहा हूँ।"

सावित्री ने सुई-धागा नीचे रखा और अपने बेटे का हाथ थाम लिया। उनकी आवाज़ में एक अटूट विश्वास था। "बेटा, ज़िंदगी में हार तब होती है, जब हम कोशिश करना छोड़ देते हैं। तू अभी हारा नहीं है। तू बस थक गया है।"

उन्होंने कहा, "कल से तू सुबह जल्दी उठकर दौड़ेगा। मैं तेरा टिफिन बना दूँगी और तेरी बहन तेरी मालिश कर देगी। घर की चिंता मत कर, वह मैं देख लूँगी।"

उस रात, अर्जुन को लगा जैसे उसकी माँ ने उसके मुरझाए हुए सपनों में फिर से जान फूँक दी है।

अगले दिन से, एक नया संघर्ष शुरू हुआ। अर्जुन सुबह चार बजे उठता और शहर की सड़कों पर दौड़ता। फिर वह आठ घंटे फैक्ट्री में काम करता और रात को आकर फिर से कसरत करता। उसकी बहन, प्रिया, अपनी छोटी सी बचत से उसके लिए दूध और केले लाती। और उसकी माँ, सावित्री, रात-रात भर जागकर लोगों के कपड़े सिलतीं, ताकि घर का खर्चा चल सके।

यह एक परिवार का सामूहिक त्याग था, जो एक बेटे के सपने को ज़िंदा रखने के लिए किया जा रहा था।

कहानी में मोड़ तब आया, जब शहर में एक बड़ी मैराथन दौड़ की घोषणा हुई। जीतने वाले को एक बड़ी पुरस्कार राशि और एक स्पोर्ट्स अकादमी में दाखिला मिलने वाला था।

अर्जुन के पास अच्छे जूते नहीं थे, न ही कोई प्रोफेशनल ट्रेनिंग। पर उसके पास उसकी माँ का आशीर्वाद और हार न मानने का जज्बा था।

दौड़ के दिन, जब वह हजारों धावकों के बीच खड़ा था, तो एक पल के लिए उसका आत्मविश्वास डगमगाया। उसके आस-पास सब महंगे स्पोर्ट्स गियर पहने हुए थे, और वह अपनी पुरानी, फटी हुई जूतियों में था।

तभी उसे अपनी माँ की कही बात याद आई - "हार तब होती है, जब हम कोशिश करना छोड़ देते हैं।"

दौड़ शुरू हुई। अर्जुन अपनी पूरी ताकत से भागा। जब उसके पैर जवाब देने लगे, तो उसे अपनी बहन का त्याग याद आया। जब उसकी साँसें उखड़ने लगीं, तो उसे अपनी माँ का विश्वास याद आया।

आखिरी के कुछ किलोमीटर में, वह लगभग गिरने वाला था। उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा रहा था। तभी, उसे भीड़ में एक जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई दी, "भाग, अर्जुन, भाग! तू हारा नहीं है!"

उसने देखा, उसकी माँ और बहन फिनिश लाइन के पास खड़े थे, उनकी आँखों में आँसू थे और वे उसे हिम्मत दे रहे थे।

उस एक पल में, अर्जुन को जैसे कोई दैवीय शक्ति मिल गई। वह अपनी सारी थकान, सारा दर्द भूलकर ऐसे भागा, जैसे आज ज़िंदगी की सबसे बड़ी दौड़ जीतनी हो।

और वह जीत गया।

जब उसने फिनिश लाइन पार की, तो वह ज़मीन पर गिर पड़ा। पर आज उसकी आँखों में हार के नहीं, जीत के आँसू थे।

यह कहानी हमें सिखाती है कि परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों, अगर हमारे अंदर हार न मानने का जज्बा है और हमारे साथ हमारे परिवार का নিঃস্বার্থ प्यार है, तो कोई भी सपना नामुमकिन नहीं है। अर्जुन की जीत सिर्फ उसकी अपनी नहीं थी, वह उसकी माँ के विश्वास, उसकी बहन के त्याग और उसके अपने अदम्य साहस की जीत थी।

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