भूले-बिसरे माँ-बाप: एक खामोश इंतज़ार की कहानी
दिल्ली के एक पॉश इलाके में, जहाँ ऊँची-ऊँची इमारतें आसमान से बातें करती थीं, वहाँ एक शानदार फ्लैट में श्री रामनाथ जी और उनकी पत्नी, शारदा जी, रहते थे। उनका फ्लैट बड़ा था, सुंदर था, पर खाली था। दीवारों पर उनके बेटे, समीर, और बहू, प्रिया, की हँसती हुई तस्वीरें थीं, पर वे तस्वीरें अब बस यादें बनकर रह गई थीं।
यह कहानी है उन भूले-बिसरे माँ-बाप की, जिनके बच्चों ने उन्हें हर भौतिक सुख तो दिया था, पर अपना समय नहीं।
समीर, एक मल्टीनेशनल कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट था। वह और उसकी पत्नी, प्रिया, अपनी आठ साल की बेटी, रिया, के साथ अमेरिका में रहते थे। उनकी दुनिया सफलताओं, पार्टियों और एक तेज रफ्तार ज़िंदगी से भरी थी। वे हर महीने अपने माँ-बाप को पैसे भेजते, वीडियो कॉल पर बात करते, पर उन कॉल्स में भी अक्सर जल्दी होती थी।
"पापा, अभी एक ज़रूरी मीटिंग है, बाद में बात करता हूँ," या "माँ, रिया को स्कूल के प्रोजेक्ट में मदद करनी है," - यह बातें अब आम हो गई थीं।
रामनाथ जी और शारदा जी का जीवन एक खामोश इंतज़ार में बीत रहा था। वे इंतज़ार करते थे एक लंबी बातचीत का, एक फुर्सत के पल का, अपने बेटे-बहू के साथ बैठकर चाय पीने का, और अपनी पोती को जी भरकर दुलार करने का।
यह भारतीय समाज का एक कड़वा सच था, जहाँ बच्चे अपने सपनों को पूरा करने के लिए सात समंदर पार तो चले जाते हैं, पर पीछे छूट जाते हैं उनके माँ-बाप, अपनी यादों और अकेलेपन के साथ।
कहानी में मोड़ तब आया, जब रिया के स्कूल में 'ग्रैंडपेरेंट्स डे' का आयोजन हुआ। रिया के सारे दोस्त अपने दादा-दादी, नाना-नानी के साथ आए थे। रिया अकेली थी। उस दिन, जब वह घर लौटी, तो उसकी आँखें सूजी हुई थीं।
"क्या हुआ, बेटा?" प्रिया ने चिंता से पूछा।
"सबके ग्रैंडपेरेंट्स आए थे, मेरे नहीं आए," उसने सिसकते हुए कहा। "मेरी दोस्त, सारा, बता रही थी कि उसके दादाजी उसे रोज़ कहानियाँ सुनाते हैं। क्या मेरे दादा-दादी मुझसे प्यार नहीं करते?"
यह सवाल प्रिया और समीर के दिल में तीर की तरह चुभ गया। उस रात, वे दोनों सो नहीं पाए। उन्हें एहसास हुआ कि वे अपनी बेटी को दुनिया की हर महंगी चीज़ तो दे रहे हैं, पर वह अनमोल खजाना नहीं दे पा रहे, जो उन्हें अपने बचपन में मिला था - दादा-दादी का निःस्वार्थ प्यार।
"समीर," प्रिया ने कहा, "हम क्या कर रहे हैं? हमने अपने माँ-बाप को सिर्फ एक ज़िम्मेदारी समझ लिया है, जिसे हर महीने पैसे भेजकर पूरा कर दिया जाता है।"
"तुम ठीक कह रही हो, प्रिया," समीर की आवाज़ में एक गहरा पश्चाताप था। "मैंने आखिरी बार कब अपने पापा के साथ बैठकर उनकी सेहत के बारे में पूछा था? या माँ से पूछा था कि उनका दिन कैसा बीता?"
उसी रात, उन्होंने एक बड़ा फैसला किया।
अगले दिन, जब रामनाथ जी और शारदा जी का फोन बजा, तो वह समीर था।
"माँ, पापा, आप दोनों अगले हफ्ते भारत आ रहे हैं," समीर ने कहा।
"क्या? पर क्यों बेटा? सब ठीक तो है?" रामनाथ जी घबरा गए।
"हाँ पापा, सब ठीक है। बस आपकी पोती को आपकी बहुत याद आ रही है। और आपके बेटे को भी," समीर की आवाज़ nghẹn ngat हो रही थी।
एक हफ्ते बाद, जब रामनाथ जी और शारदा जी अमेरिका पहुँचे, तो एयरपोर्ट पर रिया दौड़कर उनसे लिपट गई। सालों की दूरी उस एक आलिंगन में सिमट गई।
अगले कुछ महीने उस परिवार के लिए एक उत्सव की तरह थे। रामनाथ जी रिया को पार्क ले जाते, उसे अपने बचपन के किस्से सुनाते। शारदा जी उसके लिए गरमा-गरम हलवा बनातीं और उसे रामायण की कहानियाँ सुनातीं।
समीर और प्रिया ने भी बरसों बाद अपने माँ-बाप के साथ इतना समय बिताया। समीर अपने पापा के साथ सुबह की सैर पर जाता, और प्रिया अपनी सास के साथ बैठकर घंटों बातें करती।
एक शाम, जब सब आँगन में बैठे थे, तो रामनाथ जी ने एक पुरानी, हाथ से लिखी हुई डायरी समीर को दी।
"यह तुम्हारे दादाजी की है," उन्होंने कहा। "इसमें उन्होंने लिखा है - 'पेड़ चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, अगर वह अपनी जड़ों से कट जाए, तो सूख जाता है। परिवार भी एक पेड़ की तरह है, और माँ-बाप उसकी जड़ें होते हैं।'"
यह पढ़कर समीर की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने उठकर अपने माँ-बाप के पैर छू लिए। "मुझे माफ कर दीजिए, माँ-पापा। मैं अपनी उड़ान में इतना ऊँचा उड़ गया था कि अपनी जड़ों को ही भूल गया।"
यह कहानी हमें सिखाती है कि माँ-बाप का प्यार और उनका साथ दुनिया की किसी भी दौलत से बढ़कर है। सफलता ज़रूरी है, पर उन रिश्तों की कीमत पर नहीं, जिन्होंने हमें उस सफलता तक पहुँचाया है।
आज भी समीर और प्रिया अमेरिका में हैं, पर अब उनकी दुनिया बदल चुकी है। अब वे सिर्फ पैसे नहीं, अपना समय भी भेजते हैं। और रामनाथ जी और शारदा जी का इंतज़ार अब खामोश नहीं होता, क्योंकि वे जानते हैं कि उनके बच्चे अब उन्हें भूले नहीं हैं, बल्कि उनकी अहमियत को समझ चुके हैं।
0 टिप्पणियाँ