अर्पिता: ऐसी कहानी जो हर दिल को छू लेगी
कुछ कहानियाँ सिर्फ़ शब्द नहीं होतीं, वे एहसास होती हैं। वे हमें हँसाती हैं, रुलाती हैं, और हमें इंसान होने का सही मतलब सिखा जाती हैं। यह कहानी है अर्पिता की, एक ऐसी लड़की की, जिसकी कहानी सचमु-च हर दिल को छू लेगी।
अर्पिता, मुंबई की एक चहल-पहल वाली चॉल में पली-बढ़ी, सपनों और संघर्षों के बीच साँस लेती एक साधारण सी लड़की थी। उसके पिता, श्रीकांत जी, एक मिल मजदूर थे, जिनकी कमाई से घर का चूल्हा तो जलता था, पर सपने पूरे नहीं होते थे। अर्पिता की एक छोटी बहन थी, रिया, जो दिल की बीमारी से पीड़ित थी।
यह कहानी है अर्पिता के त्याग की, उसके परिवार के संघर्ष की, और उस एक अजनबी की, जिसने आकर सब कुछ बदल दिया।
अर्पिता एक बेहतरीन चित्रकार थी। उसकी ऊँगलियों में जादू था। वह जब कैनवास पर रंग बिखेरती, तो बेजान तस्वीरें भी जैसे बोलने लगतीं। उसका सपना था जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में दाखिला लेना, जो भारत के सबसे प्रतिष्ठित कला संस्थानों में से एक था।
उसने दिन-रात मेहनत करके प्रवेश परीक्षा पास कर ली। जिस दिन उसका एडमिशन लेटर आया, उस दिन घर में खुशी की लहर दौड़ गई। पर यह खुशी कुछ ही पलों की थी। डॉक्टर ने बताया कि रिया के दिल का ऑपरेशन तुरंत करना पड़ेगा, और उसका खर्च लाखों में था।
एक पल में, अर्पिता के सारे सपने टूटकर बिखर गए। उसके सामने दो रास्ते थे - या तो वह अपने सपनों को चुने, या अपनी बहन की ज़िंदगी को।
उस रात, उसने अपने सारे सर्टिफिकेट, अपनी सारी पेंटिंग्स एक पुराने बक्से में बंद कर दीं। उसकी आँखों से आँसू नहीं बह रहे थे, बह रहा था तो बस उसके सपनों का रंग।
अगले दिन से, अर्पिता ने एक कपड़े की दुकान में सेल्स गर्ल की नौकरी शुरू कर दी। वह सुबह से शाम तक काम करती, और रात में अपनी बहन की देखभाल करती। उसने अपनी कला को, अपने जुनून को, अपनी बहन की साँसों के लिए अर्पित कर दिया था।
इस कहानी में एक और किरदार है, कबीर। कबीर एक अमीर, सफल आर्ट क्यूरेटर था, जो अपनी आर्ट गैलरी के लिए हमेशा नई प्रतिभाओं की तलाश में रहता था। वह थोड़ा अहंकारी और अपनी ही दुनिया में रहने वाला इंसान था।
एक दिन, बारिश से बचने के लिए, कबीर उसी कपड़े की दुकान में घुस गया जहाँ अर्पिता काम करती थी। जब वह दुकान में इंतज़ार कर रहा था, तो उसकी नज़र अर्पिता पर पड़ी, जो खाली समय में एक छोटे से कागज़ के टुकड़े पर एक बूढ़े आदमी का अद्भुत स्केच बना रही थी।
उस स्केच में इतनी गहराई, इतनी भावना थी कि कबीर जैसा कला का पारखी भी हैरान रह गया।
"यह तुमने बनाया है?" उसने थोड़ा रौब से पूछा।
"जी," अर्पिता ने धीरे से जवाब दिया।
"तुम यहाँ क्या कर रही हो? तुम्हारे हाथ तो किसी बड़े कैनवास के लिए बने हैं," कबीर ने कहा।
अर्पिता ने कुछ नहीं कहा, बस एक फीकी सी मुस्कान दे दी।
कबीर ने उसे अपनी गैलरी में आने का ऑफर दिया, पर अर्पिता ने मना कर दिया। "मैं अपनी नौकरी नहीं छोड़ सकती।"
कबीर को यह बहुत अजीब लगा। उसे लगा कि यह लड़की या तो घमंडी है, या अपनी कला की कद्र नहीं करती। एक गलतफहमी ने जन्म ले लिया।
लेकिन कबीर के मन में वह चेहरा और वह स्केच बस गया था। वह उस लड़की के बारे में और जानना चाहता था। उसने अपने एक सहायक को अर्पिता के बारे में पता लगाने को कहा।
जब कबीर को अर्पिता की पूरी कहानी, उसकी बहन की बीमारी और उसके त्याग के बारे में पता चला, तो उसका अहंकार पिघल गया। उसे पहली बार एहसास हुआ कि कला सिर्फ गैलरी की दीवारों पर नहीं टंगती, वह तो ज़िंदगी के संघर्षों में भी ज़िंदा रहती है।
उस दिन, कबीर ने एक फैसला किया।
वह अपनी टीम के साथ अर्पिता की चॉल में पहुँचा। उसने अर्पिता के बनाए हुए कुछ पुराने स्केच और पेंटिंग्स इकट्ठी कीं, जो उसके घर के एक कोने में धूल खा रही थीं।
कुछ हफ्तों बाद, कबीर ने अपनी आर्ट गैलरी में एक प्रदर्शनी का आयोजन किया। उस प्रदर्शनी में किसी बड़े कलाकार की नहीं, बल्कि एक गुमनाम कलाकार की पेंटिंग्स थीं। प्रदर्शनी का शीर्षक था - "अर्पिता: एक अनकहा सपना"।
उसने अर्पिता और उसके परिवार को भी उस प्रदर्शनी में बुलाया।
जब अर्पिता अपनी माँ, पिता और बहन के साथ उस शानदार गैलरी में पहुँची, तो वह हैरान रह गई। दीवारों पर उसकी अपनी पेंटिंग्स लगी थीं, और हर पेंटिंग के नीचे एक कहानी लिखी थी - उसके संघर्ष की, उसके त्याग की, और उसकी बहन के प्रति उसके प्रेम की।
प्रदर्शनी में शहर के बड़े-बड़े लोग आए थे। वे सब अर्पिता की कला और उसकी कहानी से बहुत प्रभावित हुए। देखते ही देखते, उसकी सारी पेंटिंग्स बिक गईं।
एक पेंटिंग, जो रिया की मुस्कुराती हुई तस्वीर थी, उसे कबीर ने खुद खरीदा।
जब कबीर ने पेंटिंग्स से जमा हुई सारी रकम का चेक अर्पिता के पिता, श्रीकांत जी, के हाथों में रखा, तो उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। वह रकम रिया के ऑपरेशन के लिए काफी थी।
"यह... यह सब आपने क्यों किया?" श्रीकांत जी ने कांपती आवाज़ में पूछा।
कबीर ने अर्पिता की ओर देखकर कहा, "क्योंकि आपकी बेटी ने मुझे सिखाया है कि सच्ची कला सिर्फ रंगों और ब्रश का खेल नहीं है। सच्ची कला तो वह है जो ज़िंदगी के लिए लड़ी जाए। अर्पिता सिर्फ एक कलाकार नहीं, एक योद्धा है।"
उस दिन, अर्पिता को उसके सपने वापस मिल गए। रिया को एक नई ज़िंदगी मिली। और कबीर को कला का एक नया मतलब मिला।
यह कहानी हमें सिखाती है कि त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। जब हम दूसरों की खुशी के लिए अपने सपनों को अर्पित कर देते हैं, तो कायनात किसी न किसी रूप में हमें हमारे सपने लौटा ही देती है। अर्पिता की कहानी हर उस इंसान के लिए एक प्रेरणा है, जो चुपचाप अपनों के लिए अपनी खुशियाँ कुर्बान कर देता है।
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