दादी और नई बहू का स्नेह: एक रिश्ते की मीठी चाशनी
पुराने लखनऊ की एक हवेली में, जहाँ आज भी दीवारों से अवध की नज़ाकत और तहज़ीब की खुशबू आती थी, वहाँ शुक्ला परिवार रहता था। इस परिवार की सबसे बुजुर्ग और सम्मानित सदस्य थीं अम्माजी - यानी घर की दादी। अस्सी बसंत देख चुकीं अम्माजी अपनी परंपराओं और उसूलों की पक्की थीं। उनकी दुनिया उनकी पूजा, उनकी पुरानी यादों और उनके हाथ के बने 'गुलाब शरबत' की मीठी खुशबू में बसी थी, जिसकी रेसिपी उन्होंने आज तक किसी को नहीं बताई थी।
यह कहानी है दादी और उनकी नई बहू के उस नाजुक रिश्ते की, जो पीढ़ी के अंतराल और अलग-अलग सोच के बीच पनपा।
घर में बहू बनकर आई थी अनन्या। अनन्या, दिल्ली में पली-बढ़ी एक फूड ब्लॉगर थी। वह आधुनिक, आत्मविश्वासी और खाने-पीने की शौकीन थी। उसके लिए खाना सिर्फ पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि एक कला था।
यह दो पीढ़ियों की महिलाओं का संगम था - एक, जिसके लिए खाना बनाना एक परंपरा और कर्तव्य था; और दूसरी, जिसके लिए यह एक जुनून और पेशा था।
शुरू-शुरू में, अम्माजी और अनन्या के बीच एक अनकही सी दूरी थी। अम्माजी को अनन्या का हर समय फोन पर खाने की तस्वीरें लेना और उसके बारे में लिखना अजीब लगता था।
"बहू, यह क्या हर समय 'टिक-टिक' करती रहती हो? खाना खाया जाता है, उसकी नुमाइश नहीं की जाती," वह अक्सर टोकतीं।
अनन्या मुस्कुराकर कहती, "अम्माजी, मैं तो बस लोगों को अच्छी-अच्छी जगहों और व्यंजनों के बारे में बताती हूँ। यह मेरा काम है।"
अम्माजी को यह 'काम' समझ नहीं आता था।
इस कहानी के एक और किरदार हैं, अम्माजी के पोते और अनन्या के पति, सिद्धार्थ। सिद्धार्थ अपनी दादी और अपनी पत्नी, दोनों से बहुत प्यार करता था और हमेशा दोनों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करता था।
गलतफहमियों का सिलसिला तब और बढ़ गया, जब अनन्या ने रसोई में नए-नए प्रयोग करने शुरू किए। वह कभी इटैलियन पास्ता बनाती, तो कभी मैक्सिकन डिश। अम्माजी को यह सब 'घास-फूस' लगता। वह अपने पोते से शिकायत करतीं, "सिद्धार्थ, तेरी बहू तो हमें भूखा ही मार देगी। घर में अब रोटी-दाल तो बनती ही नहीं।"
अनन्या को यह सुनकर बहुत दुख होता। वह अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही थी, पर अपनी दादी-सास का दिल नहीं जीत पा रही थी।
कहानी में मोड़ तब आया, जब घर में अम्माजी के जन्मदिन की तैयारी शुरू हुई। हर साल, अम्माजी अपने जन्मदिन पर खुद पूरे परिवार के लिए खाना बनाती थीं और अपना मशहूर 'गुलाब शरबत' पिलाती थीं। पर इस साल, उम्र और कमजोरी के कारण, डॉक्टर ने उन्हें रसोई में काम करने से मना कर दिया था।
अम्माजी का मन बहुत उदास था। "अब मैं अपने ही जन्मदिन पर मेहमान बनकर बैठूँगी," उन्होंने एक ठंडी साँस भरकर कहा।
उस रात, अनन्या चुपचाप अम्माजी के कमरे में गई। वह उनके पैरों के पास बैठ गई।
"अम्माजी," उसने धीरे से कहा, "क्या आप इस साल मुझे अपनी रसोई में आपकी मदद करने का मौका देंगी? मैं वादा करती हूँ, सब कुछ आपकी पसंद का और आपके तरीके से ही बनेगा।"
अम्माजी ने अविश्वास से उसे देखा। "तू? तू क्या बनाएगी? मेरे जैसा खाना बनाना तेरे बस का नहीं।"
"आप बस मुझे बताती जाइएगा, मैं बनाती जाऊँगी," अनन्या ने आग्रह किया। "और हाँ, क्या आप मुझे अपना 'गुलाब शरबत' बनाना भी सिखाएँगी?"
उस एक सवाल ने जैसे अम्माजी के दिल के किसी बंद दरवाज़े को खोल दिया। 'गुलाब शरबत' उनकी पहचान थी, उनकी माँ की दी हुई विरासत थी। आज तक किसी ने उसे सीखने में इतनी दिलचस्पी नहीं दिखाई थी।
उन्होंने धीरे से हाँ में सिर हिला दिया।
अगले कुछ दिन, वह रसोई एक गुरुकुल बन गई। अम्माजी एक सख्त उस्ताद की तरह अनन्या को निर्देश देतीं, और अनन्या एक जिज्ञासु शिष्य की तरह हर बात सीखती। उसने सीखा कि मसाले सिलबट्टे पर पीसने से स्वाद क्यों बेहतर होता है, और दाल में घी का तड़का कब लगाना चाहिए।
इस प्रक्रिया में, वे दोनों सिर्फ खाना बनाना नहीं सीख रही थीं, वे एक-दूसरे को समझना सीख रही थीं। अनन्या ने देखा कि अम्माजी की कठोरता के पीछे एक गहरा अनुभव और अपने परिवार के लिए ढेर सारा प्यार छिपा है। और अम्माजी ने देखा कि उनकी मॉडर्न बहू में सीखने की कितनी लगन और रिश्तों को सहेजने की कितनी समझ है।
जन्मदिन के दिन, घर मेहमानों से भरा हुआ था। खाने की मेज पर वही पुराने, पारंपरिक व्यंजन सजे थे, जिनकी खुशबू से पूरी हवेली महक रही थी।
और जब अनन्या ने ट्रे में 'गुलाब शरबत' के गिलास लाकर सबके सामने रखे, तो अम्माजी की आँखों में आँसू आ गए। शरबत का स्वाद बिल्कुल वैसा ही था, जैसा वह बनाती थीं।
उन्होंने सबके सामने अनन्या का हाथ पकड़ा और कहा, "आज यह खाना मेरी बहू ने नहीं, मेरी बेटी ने बनाया है। और आज से, मेरे इस 'गुलाब शरबत' की विरासत की हकदार भी यही है।"
यह एक सास का स्नेह था, जो आज अपनी बहू को अपनी सबसे कीमती चीज़ सौंप रहा था।
उस दिन, अनन्या ने अपने फूड ब्लॉग पर एक नई पोस्ट लिखी। पर वह किसी रेस्टोरेंट या किसी डिश के बारे में नहीं थी। उसका शीर्षक था - "अम्माजी की रसोई: जहाँ परंपरा प्यार की चाशनी में घोली जाती है।"
यह कहानी हमें सिखाती है कि सास-बहू का रिश्ता सिर्फ अधिकार और कर्तव्य का नहीं, बल्कि सीखने और सिखाने का भी होता है। जब एक नई बहू खुले मन से परंपराओं को अपनाती है, और एक दादी अपने अनुभव के खजाने को स्नेह के साथ साझा करती है, तो उस घर में रिश्तों की ऐसी मीठी चाशनी बनती है, जिसकी मिठास पीढ़ियों तक बनी रहती है।
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