जन्म, योग और कर्म: नियति और पुरुषार्थ की एक कहानी
मनुष्य का जीवन तीन स्तंभों पर टिका है - जन्म, योग और कर्म। जन्म वह है जो हमें नियति से मिलता है, एक ऐसा सत्य जिसे हम बदल नहीं सकते। योग वह संयोग है, वे अवसर और चुनौतियाँ हैं जो जीवन हमारे मार्ग में लाता है। और कर्म, वह पुरुषार्थ है, वह हमारा चयन है, जो नियति के दिए हुए जन्म और संयोगों के योग पर हमारी प्रतिक्रिया होती है। यही कर्म हमारे भविष्य का निर्माण करता है।
यह कहानी है इसी दर्शन की, जिसे जिया था पंडित शिवनारायण के परिवार ने।
काशी के पवित्र घाटों के पास, एक संकरी गली में पंडित शिवनारायण का छोटा सा घर था। वह एक माने हुए ज्योतिषी और कर्मकांडी ब्राह्मण थे। उनका विश्वास था कि जन्म के साथ ही मनुष्य की कुंडली में सब कुछ लिख दिया जाता है। ग्रह-नक्षत्र ही हमारे जीवन की दिशा तय करते हैं।
उनके दो बेटे थे। बड़ा बेटा, शंकर, बिल्कुल अपने पिता की परछाई था - शांत, धार्मिक और भाग्य पर अटूट विश्वास रखने वाला। छोटा बेटा, केशव, एक विद्रोही आत्मा था। उसे लगता था कि इंसान अपने कर्म से अपना भाग्य खुद लिख सकता है।
शंकर का जन्म एक शुभ मुहूर्त में हुआ था। उसकी कुंडली देखकर पंडित जी ने भविष्यवाणी की थी, "इसका भाग्य सूर्य की तरह चमकेगा। इसे जीवन में सब कुछ बिना माँगे मिलेगा।"
वहीं, केशव का जन्म कुछ अशुभ ग्रह-योगों में हुआ था। पंडित जी ने भारी मन से कहा था, "इसके जीवन में संघर्ष लिखा है। इसे हर चीज़ के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।"
यह भविष्यवाणी उस घर की दीवारों में बस गई। शंकर को हमेशा विशेष माना गया। उसे कभी किसी काम के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ी, क्योंकि उसे विश्वास था कि उसका भाग्य बलवान है। वह अपना ज़्यादातर समय पूजा-पाठ और ज्योतिष की किताबें पढ़ने में बिताता, यह मानकर कि सही समय आने पर सफलता स्वयं उसके द्वार पर आएगी।
केशव, दूसरी ओर, बचपन से ही जानता था कि उसे कुछ भी आसानी से नहीं मिलेगा। उसने अपनी नियति को चुनौती के रूप में स्वीकार किया। जब शंकर मंत्रों का जाप कर रहा होता, केशव अपनी पढ़ाई में डूबा रहता। जब शंकर भाग्य के भरोसे बैठा रहता, केशव अवसरों की तलाश में शहर की धूल फाँकता।
इस कहानी की एक और महत्वपूर्ण पात्र है, उनकी बहन, गौरी। गौरी दोनों भाइयों से बहुत प्यार करती थी, पर वह हमेशा केशव के संघर्ष को ज़्यादा करीब से महसूस करती थी।
"भैया, आप इतनी मेहनत क्यों करते हैं? पिताजी कहते हैं कि जो भाग्य में है, वही मिलेगा," वह अक्सर केशव से पूछती।
केशव मुस्कुराकर जवाब देता, "गौरी, हाथ की लकीरों से पहले उँगलियाँ होती हैं, जो हमें कर्म करना सिखाती हैं। मैं अपनी किस्मत खुद लिखूँगा।"
समय बीता। पंडित जी की पुश्तैनी दुकान, जो पीढ़ियों से परिवार का पेट पाल रही थी, अब पुरानी पड़ रही थी। व्यापार मंदा हो गया था और घर में आर्थिक संकट गहराने लगा था।
शंकर ने अपनी कुंडली देखी और कहा, "चिंता मत कीजिए, पिताजी। मेरा बृहस्पति उच्च का है। कोई न कोई दैवीय सहायता अवश्य मिलेगी।" वह मंदिर में जाकर विशेष अनुष्ठान करने लगा।
केशव ने यह सब देखा और फैसला किया कि अब कुछ करना होगा। वह जानता था कि यह जीवन का वह योग है, वह चुनौती है, जहाँ उसे अपना कर्म दिखाना होगा।
वह शहर के बड़े मसाला व्यापारियों से मिला, उन्हें अपने पुरखों के बनाए हुए मसालों की गुणवत्ता के बारे में बताया। उसने दुकान का नवीनीकरण करने के लिए बैंक से छोटे से कर्ज के लिए आवेदन किया। उसने एक छोटा सा ई-कॉमर्स पेज बनाया ताकि उनके मसाले ऑनलाइन भी बेचे जा सकें।
शंकर ने उसका मज़ाक उड़ाया। "यह सब करने से क्या होगा? जब तक भाग्य साथ नहीं देगा, तुम्हारी सारी मेहनत व्यर्थ है।"
पंडित जी भी केशव के इन नए तरीकों से आशंकित थे। "बेटा, हम ब्राह्मण हैं, व्यापारी नहीं। यह सब हमारे कुल की परंपरा के विरुद्ध है।"
"पिताजी," केशव ने बड़ी विनम्रता से कहा, "ब्राह्मण का अर्थ सिर्फ पूजा करना नहीं, बल्कि सही कर्म करके अपने परिवार का पालन-पोषण करना भी है। यही सच्चा धर्म है।"
अगले छह महीने केशव के लिए अग्निपरीक्षा की तरह थे। वह दिन भर दुकान पर काम करता, रात में ऑनलाइन ऑर्डर पैक करता और सुबह जल्दी उठकर माल पहुँचाने जाता। कई बार वह असफल हुआ, कई बार उसे निराशा ने घेरा। पर उसने हार नहीं मानी।
और फिर, उसका कर्म रंग लाने लगा। उसके शुद्ध मसालों की महक धीरे-धीरे शहर में फैलने लगी। ऑनलाइन ऑर्डर बढ़ने लगे। दुकान पर फिर से ग्राहकों की भीड़ लगने लगी।
कहानी का चरम बिंदु तब आया, जब शहर के सबसे बड़े फाइव-स्टार होटल से उन्हें मसालों की सप्लाई का एक बहुत बड़ा ऑर्डर मिला। यह उस छोटी सी दुकान के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
उस दिन, जब केशव ने मुनाफे की पहली बड़ी रकम अपने पिता, पंडित शिवनारायण, के हाथों में रखी, तो पंडित जी की आँखों में आँसू थे।
उन्होंने शंकर को अपने पास बुलाया और कहा, "देखो, शंकर। तुम्हारा जन्म शुभ घड़ी में हुआ, यह नियति थी। पर केशव ने अशुभ घड़ी को अपने कर्मों से शुभ बना दिया। आज मैं समझा कि कुंडली सिर्फ एक नक्शा है, बेटा। रास्ता तो हमें अपने कर्मों से ही बनाना पड़ता है।"
शंकर का सिर शर्म से झुक गया। उसे आज समझ आया कि भाग्य के भरोसे बैठना सबसे बड़ा अकर्म है।
उस शाम, पंडित जी ने अपने दोनों बेटों और बेटी को अपने पास बिठाया। उन्होंने कहा, "जीवन एक यात्रा है। जन्म हमें नाव देता है, योग हमें नदी का बहाव और तूफ़ान देता है, पर कर्म हमारी वह पतवार है, जिससे हम अपनी नाव को किस दिशा में ले जाएँगे, यह हम तय करते हैं।"
उस दिन के बाद, उस परिवार में एक नया अध्याय शुरू हुआ। शंकर ने भी अपने भाई के साथ दुकान पर काम करना शुरू कर दिया। उसने अपनी मेहनत से यह साबित किया कि भाग्य बदला जा सकता है।
यह कहानी हमें सिखाती है कि हमें भले ही अपने जन्म पर कोई नियंत्रण न हो, पर हमारे कर्म पूरी तरह से हमारे हाथ में हैं। नियति और पुरुषार्थ, दोनों मिलकर ही जीवन की संपूर्ण तस्वीर बनाते हैं। हमें अपनी नियति का सम्मान करना चाहिए, पर अपने कर्मों पर अटूट विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि अंत में, हमारा कर्म ही हमारा सबसे बड़ा भाग्य है।
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