अम्मा की बहुरिया: एक रिश्ते की नई परिभाषा
बनारस के तंग गलियों वाले मोहल्ले में, जहाँ घरों की दीवारें एक-दूसरे से कानाफूसी करती थीं, वहाँ अवस्थी जी का पुराना घर था। इस घर की आत्मा थीं शारदा अम्मा। विधवा होने के बाद, उन्होंने अकेले ही अपने बेटे, नीरज, को पाला था। नीरज उनकी दुनिया था, उनकी आँखों का तारा। जब नीरज की शादी शहर की पढ़ी-लिखी लड़की, नेहा से हुई, तो मोहल्ले की औरतों ने कहना शुरू कर दिया, "देखना, अब आएगी शहर की मेम, अम्मा को तो भूल ही जाएगा लड़का।"
यह कहानी है एक सास, एक बहू और एक बेटे की। यह कहानी है उस पारंपरिक सोच की, जो बहू को हमेशा एक बाहरी व्यक्ति समझती है, और उस नई पीढ़ी की, जो रिश्तों को प्यार और सम्मान से फिर से परिभाषित करना चाहती है।
नेहा जब शादी करके उस घर में आई, तो उसे सब कुछ नया और थोड़ा अजीब लगा। उसे साड़ी पहनने की आदत नहीं थी, और अम्मा के घर में सुबह पाँच बजे पूजा का नियम था। नेहा पूरी कोशिश करती कि वह सबकी उम्मीदों पर खरी उतरे, पर कहीं न कहीं कोई कमी रह ही जाती।
शारदा अम्मा एक पारंपरिक सास थीं। वह अपनी बहू से प्यार तो करती थीं, पर उनका प्यार उम्मीदों और नियमों की एक मोटी चादर में लिपटा हुआ था। वह चाहती थीं कि उनकी बहू वैसी ही बने, जैसी वह खुद थीं - सहनशील, शांत और घर-गृहस्थी में निपुण। वह अक्सर नेहा को टोकतीं, "बहू, ऐसे नहीं, ऐसे करो," या "हमारे ज़माने में तो हम..."
नेहा को यह सब सुनकर घुटन महसूस होती। उसे लगता कि अम्मा उसे कभी अपनी बेटी मान ही नहीं पाएँगी। वह हमेशा उनके लिए सिर्फ नीरज की पत्नी, यानी अम्मा की बहुरिया, ही रहेगी।
इस कहानी के एक और किरदार हैं, नीरज। वह अपनी माँ और पत्नी, दोनों से बहुत प्यार करता था, पर दोनों के बीच के इस मौन तनाव में वह अक्सर पिस जाता था। जब नेहा उससे शिकायत करती, तो वह कहता, "नेहा, तुम थोड़ा एडजस्ट कर लो। अम्मा पुरानी ख्यालों की हैं, पर दिल की बुरी नहीं हैं।" और जब अम्मा कुछ कहतीं, तो वह कहता, "अम्मा, नेहा अभी नई है, धीरे-धीरे सब सीख जाएगी।"
सास-बहू के रिश्तों की यह कशमकश धीरे-धीरे घर की शांति को निगल रही थी।
कहानी में मोड़ तब आया, जब एक दिन अम्मा सीढ़ियों से गिर गईं और उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई। डॉक्टर ने उन्हें तीन महीने के लिए पूरी तरह से बिस्तर पर आराम करने को कहा।
घर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा। अम्मा, जो पूरे घर को चलाती थीं, आज खुद दूसरों पर निर्भर थीं। नीरज को ऑफिस से लंबी छुट्टी नहीं मिल सकती थी।
उस मुश्किल समय में, नेहा एक चट्टान की तरह खड़ी हो गई।
उसने अपनी नौकरी से एक महीने की छुट्टी ले ली। उसने अपनी सास की सेवा में दिन-रात एक कर दिया। वह उन्हें समय पर दवा देती, अपने हाथों से खाना खिलाती, और उनके बिस्तर के पास ही बैठकर घंटों उनसे बातें करती। उसने घर की पूरी ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली।
शुरू-शुरू में अम्मा को यह सब अच्छा नहीं लगा। उन्हें अपनी लाचारी पर गुस्सा आता था और एक बहू के सामने अपनी कमजोरी दिखाने में शर्मिंदगी महसूस होती थी। वह अक्सर नेहा पर चिढ़ जातीं।
"बहू, तुमने खाने में नमक कम डाला है," वह कहतीं। या "यह तकिया ठीक से नहीं रखा।"
नेहा चुपचाप सब सुन लेती और मुस्कुराकर उनकी हर बात मान लेती।
एक रात, अम्मा को दर्द बहुत बढ़ गया। वह दर्द से कराह रही थीं और उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे।
"क्या हुआ, अम्मा?" नेहा ने चिंता से पूछा।
"कुछ नहीं," अम्मा ने मुँह फेरते हुए कहा। "तू जा, सो जा।"
नेहा उनके पास बैठ गई और धीरे-धीरे उनके पैर दबाने लगी। "अम्मा, दर्द बाँटने से कम होता है, छिपाने से नहीं। आप मुझे अपनी बेटी नहीं मानतीं, कोई बात नहीं। पर इस वक्त मैं आपकी बहू नहीं, आपकी नर्स हूँ। और एक नर्स से कुछ नहीं छिपाते।"
उस रात, नेहा की निस्वार्थ सेवा और उसके शब्दों के अपनेपन ने अम्मा के पत्थर दिल को पिघला दिया। सालों बाद, अम्मा किसी के सामने खुलकर रोईं। उन्होंने नेहा को अपनी सारी तकलीफें, अपना सारा अकेलापन और अपना सारा डर बता दिया। नेहा चुपचाप सुनती रही और उनके आँसू पोंछती रही।
उस रात, उस कमरे में, एक सास और बहू नहीं, बल्कि दो औरतें थीं, जो एक-दूसरे के दर्द को समझ रही थीं।
अगले कुछ हफ्तों में, घर का माहौल पूरी तरह बदल गया। अम्मा अब नेहा को 'बहू' नहीं, 'बेटी' कहकर बुलाती थीं। वह अब उसे टोकती नहीं थीं, बल्कि उससे सलाह लेती थीं। वह नेहा को अपनी पुरानी साड़ियाँ और गहने दिखाते हुए अपने जवानी के किस्से सुनातीं।
जिस दिन अम्मा ने पहली बार वॉकर के सहारे अपने कदम रखे, उस दिन उन्होंने सबसे पहले नेहा को गले से लगाया।
"मुझे माफ कर दे, बेटी," उन्होंने रोते हुए कहा। "मैं तो तुझे हमेशा बहुरिया ही समझती रही, पर तू तो इस घर की बेटी और लक्ष्मी, दोनों बनकर आई है।"
जब नीरज ऑफिस से लौटा और उसने यह दृश्य देखा, तो उसकी आँखों में खुशी के आँसू आ गए।
यह कहानी हमें सिखाती है कि सास-बहू का रिश्ता सिर्फ नियमों और उम्मीदों से नहीं चलता। यह रिश्ता प्यार, सम्मान और एक-दूसरे को समझने की कोशिश से निखरता है। अम्मा की बहुरिया जब बेटी बन जाती है, तो घर अपने आप स्वर्ग बन जाता है।
नेहा ने यह साबित कर दिया कि एक बहू सिर्फ किसी की पत्नी नहीं होती, वह एक नए परिवार की नींव होती है। और शारदा अम्मा ने यह सीखा कि सास बनना सिर्फ अधिकार जताना नहीं, बल्कि एक और बेटी पाकर अपने आँगन को और भी गुलजार करना है।

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