माँ का त्याग: एक बेटे की सफलता के पीछे की अनकही कीमत

 

माँ का त्याग: एक बेटे की सफलता के पीछे की अनकही कीमत
ma ka tyag

सफलता की हर चमक के पीछे, अक्सर एक गुमनाम दीये की लौ जलती है, जो खुद जलकर दूसरों को रोशनी देती है। यह कहानी है उस गुमनाम लौ की, एक माँ के त्याग की, जिसे दुनिया तो नहीं देख पाती, पर जिसकी गर्मी से ही हर सपने को उड़ान भरने की हिम्मत मिलती है।

यह कहानी है विशाल की, उसकी माँ, देवकी जी, की और उस एक सच्चाई की, जिसने विशाल को उसकी सफलता का असली मोल समझाया।

विशाल, लखनऊ के एक साधारण, मध्यमवर्गीय परिवार का लड़का था। उसके पिता, श्री मोहन जी, एक छोटी सी सरकारी नौकरी करते थे, जिससे घर का खर्च तो चल जाता था, पर बड़े सपने देखना मुश्किल था। विशाल का एक ही सपना था - आईआईटी में पढ़ना और एक बड़ा इंजीनियर बनना।

यह एक आम भारतीय परिवार का संघर्ष था, जहाँ आकांक्षाएँ बड़ी थीं और साधन सीमित।

विशाल ने दिन-रात एक करके आईआईटी की प्रवेश परीक्षा पास कर ली। घर में खुशी की लहर दौड़ गई, पर इस खुशी के साथ एक बड़ी चिंता भी थी - आईआईटी की महंगी फीस का इंतज़ाम कैसे होगा।

"तुम चिंता मत करो, बेटा," मोहन जी ने कहा, "मैं बैंक से लोन ले लूँगा। तुम्हारी पढ़ाई में कोई कमी नहीं आने दूँगा।"

पर विशाल जानता था कि उसके पिता की आधी से ज़्यादा तनख्वाह तो घर के खर्चों और दवाइयों में ही चली जाती है। लोन का बोझ उन्हें और तोड़ देगा।

उस रात, विशाल ने अपनी माँ, देवकी जी, से कहा, "माँ, शायद मुझे यह सपना छोड़ देना चाहिए। मैं कोई और छोटा-मोटा कोर्स कर लूँगा।"

देवकी जी, जो हमेशा चुपचाप और शांत रहती थीं, ने उस रात पहली बार एक दृढ़ आवाज़ में कहा, "चुप कर! सपना देखना तेरा काम है, उसे पूरा करने का रास्ता बनाना मेरा। तू सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे।"

यह एक माँ का अटूट विश्वास था, जो किसी भी पहाड़ को हिलाने की ताकत रखता था।

अगले दिन से, देवकी जी ने घर में ही टिफिन बनाकर बेचने का एक छोटा सा काम शुरू कर दिया। वह सुबह चार बजे उठतीं, सबके लिए खाना बनातीं, और फिर अपने टिफिन के काम में लग जातीं। वह दिन भर गर्म चूल्हे के सामने खड़ी रहतीं, ताकि उनके बेटे का भविष्य सुनहरा हो सके।

विशाल जब भी उन्हें इतनी मेहनत करते देखता, तो उसका दिल बैठ जाता। "माँ, आप क्यों इतनी तकलीफ उठा रही हैं?"

"यह तकलीफ नहीं, तपस्या है, बेटा," वह मुस्कुराकर कहतीं। "एक माँ का त्याग ही उसके बच्चों की सबसे बड़ी ताकत होता है।"

इस कहानी में एक और किरदार है, विशाल की छोटी बहन, प्रिया। वह देखती थी कि कैसे उसकी माँ अपनी पुरानी, फटी हुई चप्पलें पहनती हैं, पर विशाल के लिए हर महीने बिना नागा पैसे भेजती हैं।

समय बीता। विशाल ने अपनी इंजीनियरिंग पूरी की और उसे एक बड़ी विदेशी कंपनी में नौकरी मिल गई। अब उनके घर के दिन बदल गए थे। विशाल ने अपने पिता का सारा कर्ज चुका दिया, एक बड़ा घर ले लिया और अपनी बहन की शादी भी धूमधाम से की।

वह अपनी माँ को भी अपने साथ अमेरिका ले गया। उसने अपनी माँ को हर वह सुख-सुविधा दी, जिसका उन्होंने कभी सपना भी नहीं देखा था। पर देवकी जी वहाँ खुश नहीं थीं। वह उस बड़े से, आलीशान घर में अकेली रहतीं, और अपनी छोटी सी रसोई और अपने टिफिन के काम को याद करतीं।

यह एक गलतफहमी थी। विशाल को लगता था कि वह अपनी माँ को आराम देकर उन्हें खुशी दे रहा है, पर वह यह नहीं समझ पा रहा था कि उसकी माँ की खुशी आराम में नहीं, बल्कि अपनेपन और काम में थी।

कहानी में मोड़ तब आया, जब विशाल को उसकी कंपनी का सबसे बड़ा अवार्ड मिला।

उस रात, घर में एक बड़ी पार्टी थी। विशाल के सारे बड़े-बड़े दोस्त और सहकर्मी आए थे।

पार्टी के बीच, विशाल ने अपनी माँ को सबसे मिलवाया। "यह मेरी माँ हैं," उसने बड़े गर्व से कहा। "इन्होंने ही मुझे इस काबिल बनाया है।"

तभी, विशाल के एक दोस्त ने मज़ाक में कहा, "आंटी जी, अब तो आप आराम करती होंगी। विशाल ने आपके लिए इतना कुछ जो कर दिया है।"

उस एक पल में, देवकी जी की आँखों में एक अजीब सी उदासी छा गई, जिसे विशाल ने पढ़ लिया।

पार्टी खत्म होने के बाद, विशाल अपनी माँ के पास गया। "क्या हुआ, माँ? आप खुश नहीं हैं?"

"खुश क्यों नहीं हूँ, बेटा," उन्होंने एक फीकी मुस्कान के साथ कहा। "बस... अब ऐसा लगता है जैसे मेरी कोई ज़रूरत ही नहीं रही। वहाँ गाँव में, जब मैं टिफिन बनाती थी, तो लगता था कि मैं भी कुछ हूँ, मैं भी तेरे सपनों का एक हिस्सा हूँ। यहाँ... यहाँ मैं बस एक बूढ़ी औरत हूँ, जो आराम कर रही है।"

यह शब्द विशाल के दिल में उतर गए। यह एक बेटे का आत्म-बोध था। उसे एहसास हुआ कि उसने अपनी माँ को भौतिक सुख तो दे दिए, पर उसने उनसे उनका आत्म-सम्मान, उनका वजूद ही छीन लिया था।

अगले दिन, विशाल ने एक बड़ा फैसला किया।

उसने अपनी माँ के लिए अमेरिका में ही एक छोटी सी, आधुनिक रसोई बनवाई। उसने अपनी माँ के नाम पर एक छोटा सा ऑनलाइन 'होम-फूड' बिजनेस शुरू किया - "माँ का स्वाद"।

अब देवकी जी फिर से वही करती थीं, जो उन्हें सबसे ज़्यादा पसंद था - प्यार से खाना बनाना। पर इस बार, वह सिर्फ अपने बेटे के लिए नहीं, बल्कि उन सैकड़ों लोगों के लिए खाना बना रही थीं, जो घर के स्वाद के लिए तरसते थे।

यह कहानी हमें सिखाती है कि माँ का त्याग सिर्फ पैसे या आराम का मोहताज नहीं होता। उनका सबसे बड़ा त्याग होता है अपनी पहचान को अपने बच्चों के लिए कुर्बान कर देना। हमारा फर्ज़ सिर्फ उन्हें सुख-सुविधाएँ देना नहीं, बल्कि उन्हें उनका वह खोया हुआ आत्म-सम्मान और वह वजूद लौटाना भी है, जिसे उन्होंने हमारी परवरिश में कहीं पीछे छोड़ दिया था।



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