जेठ की परछाई: एक रिश्ते की अनकही मर्यादा

 जेठ की परछाई: एक रिश्ते की अनकही मर्यादा


भारतीय परिवारों में, जहाँ हर रिश्ते की एक लक्ष्मण रेखा होती है, वहाँ देवरानी और जेठ का रिश्ता शायद सबसे नाजुक और सम्मान की एक अदृश्य दीवार से बँधा होता है। यह कहानी है उसी दीवार के दोनों ओर खड़े दो किरदारों की - प्रिया और उसके जेठ, श्रीकांत।
प्रिया की शादी घर के छोटे बेटे, मोहित से हुई थी। वह एक चुलबुली, आधुनिक और खुले विचारों वाली लड़की थी। मोहित भी वैसा ही था, हँसमुख और बेफिक्र। लेकिन उनके बड़े भाई, श्रीकांत, बिल्कुल अलग थे। वह गंभीर, कम बोलने वाले और परंपराओं को बहुत महत्व देने वाले थे। पत्नी की मृत्यु के बाद, उन्होंने खुद को काम और अपनी बेटी, मिनी, की परवरिश में डुबो दिया था।
श्रीकांत, प्रिया के लिए एक जेठ की परछाई की तरह थे - घर में मौजूद, पर हमेशा एक दूरी पर। प्रिया उनका बहुत सम्मान करती थी, पर उनके गंभीर स्वभाव के कारण उनसे थोड़ा डरती भी थी। वह जब भी उनके सामने आती, तो उसका दुपट्टा या साड़ी का पल्लू अपने आप सिर पर पहुँच जाता।
यह कहानी है उस परछाई के पीछे छिपे स्नेह और एक गलतफहमी की, जिसने इस नाजुक रिश्ते को एक नई परिभाषा दी।
मोहित को एक कंपनी के प्रोजेक्ट के सिलसिले में छह महीने के लिए विदेश जाना पड़ा। प्रिया के लिए यह समय बहुत मुश्किल था। घर में वह अकेली महसूस करने लगी। श्रीकांत अपनी दुनिया में व्यस्त रहते और उनकी बेटी, मिनी, जो सिर्फ आठ साल की थी, अपनी माँ के जाने के बाद से बहुत चुप और सहमी हुई रहने लगी थी।
प्रिया ने मिनी के अकेलेपन को महसूस किया। उसने मिनी के साथ समय बिताना शुरू किया। वह उसके साथ खेलती, उसे कहानियाँ सुनाती और उसके बालों में तेल लगाकर चोटियाँ बनाती। धीरे-धीरे, मिनी का मुरझाया हुआ चेहरा फिर से खिलने लगा। वह अपनी चाची से बहुत घुल-मिल गई।
श्रीकांत यह सब दूर से देखते थे, पर कुछ कहते नहीं थे। उनके चेहरे पर हमेशा की तरह कोई भाव नहीं होता था।
एक दिन, प्रिया की तबीयत बहुत खराब हो गई। उसे तेज़ बुखार था और वह बिस्तर से उठ भी नहीं पा रही थी। घर में कोई और नहीं था। उसने हिम्मत करके श्रीकांत के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया।
"भैया, मुझे बहुत तेज बुखार है... क्या आप डॉक्टर को बुला देंगे?" उसने कांपती आवाज़ में कहा।
श्रीकांत ने बिना कुछ कहे, डॉक्टर को फोन किया और प्रिया के लिए दवाइयाँ ले आए। उन्होंने दवाइयाँ प्रिया के कमरे की मेज पर रख दीं और बिना एक शब्द कहे वापस चले गए।
प्रिया को बहुत बुरा लगा। उसे लगा कि उसके जेठ कितने कठोर हैं। एक बार भी नहीं पूछा कि वह कैसी है। उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसे अपने पति मोहित की बहुत याद आई।
अगले दो दिन तक प्रिया बिस्तर पर रही। उसे लगा जैसे वह उस बड़े से घर में बिल्कुल अकेली और अजनबी है।
तीसरे दिन, जब उसका बुखार थोड़ा कम हुआ, तो वह हिम्मत करके उठी। उसने देखा कि मिनी स्कूल के लिए तैयार है, उसके बाल बड़े करीने से गुँथे हुए हैं और उसने अपना टिफिन भी पैक कर लिया है।
"मिनी, यह सब किसने किया?" प्रिया ने हैरानी से पूछा।
"पापा ने," मिनी ने चहकते हुए जवाब दिया। "उन्होंने आज सुबह मुझे आलू के पराठे भी बनाकर खिलाए, बिल्कुल आपके जैसे।"
प्रिया स्तब्ध रह गई।
वह धीरे-धीरे चलकर किचन की ओर गई। उसने देखा कि किचन एकदम साफ है, और रात के जूठे बर्तन भी धुले हुए रखे हैं। उसे याद आया, रात में उसे हल्की सी आहट सुनाई दी थी, पर बुखार की वजह से वह उसे अपना वहम समझकर सो गई थी।
प्रिया का दिल तेजी से धड़कने लगा। उसके मन में एक अजीब सी कशमकश चल रही थी। क्या यह सब भैया ने किया? पर क्यों? और उन्होंने एक बार भी जताया क्यों नहीं?
वह अपने कमरे में वापस आकर चुपचाप बैठ गई। उसकी गलतफहमी की धुंध अब धीरे-धीरे छँट रही थी। उसे याद आया कि कैसे उन दो दिनों में, जब वह सो रही होती थी, तो कोई चुपके से उसके सिरहाने पानी का गिलास रखकर चला जाता था। उसे लगा था कि शायद मिनी ने रखा होगा।
शाम को जब मिनी स्कूल से लौटी, तो प्रिया ने उससे पूछा, "मिनी, चाची की तबीयत खराब थी तो तुमने परेशान तो नहीं किया ना पापा को?"
मिनी ने मासूमियत से कहा, "नहीं चाची। पापा तो खुद ही रात में दो बार आपके कमरे में झाँकने आते थे कि आपको कुछ चाहिए तो नहीं। वह दरवाज़े से ही देखकर लौट जाते थे। कहते थे, 'चाची आराम कर रही हैं, उन्हें जगाना नहीं है।'"
यह सुनकर प्रिया की आँखों में आँसू आ गए। पर ये आँसू अकेलेपन के नहीं, बल्कि कृतज्ञता और अपने व्यवहार पर ग्लानि के थे। जिस इंसान को वह इतना कठोर और भावहीन समझ रही थी, वह तो एक खामोश संरक्षक की तरह चुपचाप अपनी सारी जिम्मेदारियाँ निभा रहा था।
उसे समझ आया कि श्रीकांत का स्वभाव ही ऐसा है। वह अपनी भावनाओं को शब्दों में नहीं, अपने कामों में दिखाते हैं। वह अपनी पत्नी के जाने के बाद अकेले ही अपनी बेटी को सँभाल रहे थे, और अब अपने छोटे भाई की अनुपस्थिति में, उन्होंने अपनी देवरानी की जिम्मेदारी भी चुपचाप उठा ली थी, बिना किसी श्रेय की उम्मीद के।
उस रात, जब श्रीकांत काम से घर लौटे, तो प्रिया ने उनके लिए चाय बनाई। जब वह चाय देने उनके कमरे के पास पहुँची, तो उसने देखा कि श्रीकांत अपनी बेटी मिनी को पढ़ा रहे हैं।
"देखो मिनी," वह कह रहे थे, "तुम्हारी चाची कितनी बहादुर हैं। मोहित के बिना भी वह घर और तुम्हें कितने अच्छे से सँभाल रही हैं। हमें उनका बहुत ध्यान रखना चाहिए।"
यह सुनकर प्रिया वहीं रुक गई। आज जेठ की परछ-ाई उसे डरावनी नहीं, बल्कि एक घने, सुरक्षा देने वाले पेड़ की छाँव जैसी लगी। एक ऐसी छाँव, जो धूप तो रोक लेती है, पर अपनी ठंडक का एहसास नहीं दिलाती।
प्रिया ने हिम्मत की और कमरे के अंदर चली गई। श्रीकांत ने उसे देखकर कुछ कहना चाहा, पर प्रिया ने उन्हें रोक दिया।
उसने चाय की ट्रे मेज पर रखी और हाथ जोड़कर बोली, "भैया, मुझे माफ कर दीजिए। मैं आपको कभी समझ ही नहीं पाई।"
श्रीकांत के चेहरे पर एक हल्की सी, दुर्लभ मुस्कान आई। "इसमें माफी की क्या बात है, प्रिया? तुम इस घर की बहू हो, हमारी जिम्मेदारी हो। मोहित तुम्हें हमारी अमानत के तौर पर छोड़कर गया है।"
उस दिन, उन दोनों के बीच की सम्मान की वह अदृश्य दीवार टूटी नहीं, पर अब वह पारदर्शी हो गई थी। अब उसके आर-पार स्नेह और समझ की एक नई रोशनी आ रही थी।
यह कहानी हमें सिखाती है कि भारतीय परिवारों में कुछ रिश्ते मर्यादा और खामोशी के धागों से बुने होते हैं। वे दिखते दूर हैं, पर होते बहुत गहरे हैं। जेठ की परछ-ाई अक्सर कठोर लग सकती है, पर उसके पीछे एक पिता का संरक्षण, एक बड़े भाई का कर्तव्य और एक परिवार के मुखिया का अनकहा स्नेह छिपा होता है, जिसे समझने के लिए कभी-कभी हमें शब्दों से परे देखने की ज़रूरत होती है।

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