हमारी कुलदेवी

 

हमारी कुलदेवी  

यह कहानी है राजस्थान के एक छोटे से गाँव में रहने वाले रघुवीर सिंह जी के परिवार की। उनका परिवार पीढ़ियों से अपनी कुलदेवी, माँ चामुंडा में अटूट विश्वास रखता था। घर में कोई भी शुभ काम हो, माँ का आशीर्वाद लिए बिना शुरू नहीं होता था।

रघुवीर सिंह का एक ही बेटा था, विक्रम। बीस साल का, लंबा-चौड़ा, हँसमुख और पूरे गाँव की जान। विक्रम पढ़ाई में भी तेज़ था और खेल-कूद में भी हमेशा आगे रहता था। रघुवीर और उनकी पत्नी शारदा, अपने बेटे को देखकर फूले नहीं समाते थे।

एक दिन, गाँव के पास हो रही एक कबड्डी प्रतियोगिता में विक्रम हिस्सा ले रहा था। खेल के दौरान एक बहुत बुरी टैकल में वह ऐसे गिरा कि उसकी गर्दन पर गहरी चोट आ गई। उसे तुरंत शहर के सबसे बड़े अस्पताल ले जाया गया।

कई दिनों तक डॉक्टरों की टीम ने पूरी कोशिश की, लेकिन जब विक्रम को होश आया, तो एक भयानक सच सामने आया। उसकी गर्दन के नीचे का पूरा शरीर बेजान हो चुका था। डॉक्टरों ने इसे 'क्वाड्रिप्लीजिया' (Quadriplegia) कहा, एक तरह का पक्षाघात, और कह दिया कि अब विक्रम शायद ही कभी अपने पैरों पर खड़ा हो पाएगा।

रघुवीर सिंह के परिवार पर मानो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। हँसता-खेलता घर मातम में डूब गया। लाखों रुपये खर्च हो गए, देश के बड़े-बड़े डॉक्टरों को दिखाया, लेकिन नतीजा वही रहा - विक्रम बिस्तर पर एक बेजान शरीर की तरह पड़ा रहता, उसकी आँखों में सिर्फ़ लाचारी और निराशा थी।

एक दिन, विक्रम की दादी, जो बहुत बूढ़ी और ज्ञानी थीं, उन्होंने रघुवीर से कहा, "बेटा, हमने दुनिया के हर डॉक्टर का दरवाज़ा खटखटा लिया। अब एक ही दरवाज़ा बचा है, हमारी कुलदेवी माँ चामुंडा का। मुझे पूरा विश्वास है, वो अपने बच्चे को ऐसे नहीं देख सकती।"

रघुवीर, जो अब तक हर उम्मीद खो चुके थे, दादी की बात मान गए। उन्होंने फैसला किया कि वे विक्रम को लेकर अपने पुश्तैनी गाँव जाएँगे, जहाँ पहाड़ी पर माँ चामुंडा का प्राचीन मंदिर था।

यह सफ़र बहुत मुश्किल था। विक्रम को स्ट्रेचर पर लिटाकर, एम्बुलेंस से गाँव तक लाया गया। फिर गाँव वालों की मदद से, उसे पालकी में बिठाकर धीरे-धीरे पहाड़ी पर बने मंदिर तक पहुँचाया गया।

मंदिर पहुँचते ही एक अजीब सी शांति का अनुभव हुआ। पंडित जी ने विशेष पूजा और आरती की तैयारी की। विक्रम को माँ की मूर्ति के ठीक सामने लिटाया गया। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे, लेकिन ये निराशा के नहीं, बल्कि एक अनजानी उम्मीद के आँसू थे।

आरती शुरू हुई। ढोल और नगाड़ों की आवाज़ से पूरा मंदिर गूँज उठा। दादी और शारदा हाथ जोड़े, आँखें बंद किए, माँ से अपने बेटे के जीवन की भीख माँग रही थीं। रघुवीर सिंह भी एकटक माँ की तेजस्वी मूर्ति को देख रहे थे।

जैसे ही आरती अपने चरम पर पहुँची और "जय अम्बे गौरी" का जयकारा लगा, एक चमत्कार हुआ!

माँ की मूर्ति पर चढ़ाया गया एक लाल गुड़हल का फूल अपने-आप खिसका और सीधा विक्रम की छाती पर आ गिरा! उसी पल, विक्रम के दाहिने पैर के अँगूठे में एक हल्की सी हरकत हुई!


यह हरकत इतनी मामूली थी कि शायद किसी को पता भी न चलता, लेकिन विक्रम ने इसे महसूस कर लिया था। उसकी आँखों में एक चमक आई और उसने अपनी माँ को देखने की कोशिश की। "माँ... मेरा पैर..." उसकी आवाज़ बहुत कमज़ोर थी।

शारदा ने जब झुककर देखा, तो विक्रम सच में अपना अँगूठा हिलाने की कोशिश कर रहा था। यह देखकर पूरे परिवार की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वे समझ गए कि कुलदेवी ने उनकी पुकार सुन ली है।

उस दिन के बाद, विक्रम की हालत में धीरे-धीरे सुधार होने लगा। जहाँ डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे, वहाँ माँ के आशीर्वाद ने अपना काम शुरू कर दिया था। फिजियोथेरेपी, जो पहले बेअसर थी, अब जादू की तरह काम करने लगी। कुछ हफ़्तों में विक्रम के हाथों में जान आई, और कुछ महीनों की कड़ी मेहनत और माँ के अटूट विश्वास के बाद, विक्रम बैसाखी के सहारे अपने पैरों पर खड़ा हो गया!

जिस दिन विक्रम ने बिना सहारे के अपना पहला कदम उठाया, उस दिन पूरे गाँव ने घी के दीये जलाए। रघुवीर सिंह का परिवार फिर से माँ चामुंडा के मंदिर गया, लेकिन इस बार विक्रम पालकी में नहीं, बल्कि खुद चलकर माँ के चरणों तक पहुँचा।

उसकी आँखों में कृतज्ञता के आँसू थे और परिवार के हर सदस्य का सिर कुलदेवी के सामने श्रद्धा से झुका हुआ था। यह एक જીવંત प्रमाण था कि जहाँ विज्ञान की सीमाएँ समाप्त होती हैं, वहाँ विश्वास और श्रद्धा की शक्ति शुरू होती है। विक्रम अब पूरी तरह स्वस्थ है और अपने परिवार के साथ मिलकर हर साल पूरी श्रद्धा से अपनी कुलदेवी की सेवा करता है।

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