दादी सास

दादी सास 

जब प्रिया की शादी एक बड़े और पुराने 'संयुक्त परिवार' में हुई, तो उसे सबसे ज़्यादा डर अपनी 'दादी सास' से ही लगता था। दादी सास, यानी अम्बा देवी, पूरे घर की मुखिया थीं। सत्तर साल की उम्र में भी उनका दबदबा ऐसा था कि उनके एक इशारे पर पूरा घर चलता था। उनके नियम पत्थर की लकीर थे - सुबह जल्दी उठना, पूजा करना, बहू का सिर हमेशा पल्लू से ढका होना, और रसोई में बिना नहाए प्रवेश न करना। प्रिया एक आधुनिक, पढ़ी-लिखी लड़की थी। उसके लिए ये सब नियम किसी जेल की तरह थे। शादी के पहले कुछ महीने तो मानो युद्ध के मैदान में बीते। एक दिन प्रिया ने जींस और टॉप पहन लिया, तो दादी सास ने बिना कुछ कहे बस घूरकर देखा, और उस नज़र में इतनी नाराज़गी थी कि प्रिया तुरंत कपड़े बदलने चली गई। जब प्रिया ने नौकरी करने की इच्छा जताई, तो दादी सास ने साफ़ कह दिया, "हमारे घर की औरतें घर संभालती हैं, दफ़्तर नहीं।" प्रिया का दिल टूट गया। उसे लगा कि इस घर में उसकी कोई पहचान नहीं है। उसका पति, रोहन, बहुत अच्छा था। वह हमेशा उसे समझाता, "प्रिया, थोड़ा सब्र रखो। दादी दिल की बुरी नहीं हैं, बस ज़माने की पुरानी हैं।" लेकिन प्रिया का सब्र जवाब दे रहा था। फिर एक रात, अचानक दादी सास की तबीयत बहुत बिगड़ गई। उन्हें सीने में तेज़ दर्द उठा। पूरा घर घबरा गया। रोहन और उसके पिता उन्हें लेकर अस्पताल भागे। डॉक्टरों ने कहा कि उन्हें हल्का दिल का दौरा पड़ा है और उन्हें कुछ दिन पूरी तरह आराम और सही देखभाल की ज़रूरत है। उस दिन से प्रिया ने सब कुछ अपने हाथ में ले लिया। वह अपनी नौकरी की बात भूल गई, अपनी पसंद-नापसंद भूल गई। उसका एक ही लक्ष्य था - दादी सास को ठीक करना। वह रात-रात भर उनके बिस्तर के पास बैठी रहती। समय पर दवाइयाँ देती, डॉक्टर के बताए अनुसार उनके लिए हल्का और पौष्टिक खाना, जैसे खिचड़ी और सूप बनाती। वह दादी सास को अपने हाथों से खिलाती, उनके पैरों में तेल की मालिश करती और उन्हें रामायण पढ़कर सुनाती। अम्बा देवी बिस्तर पर लेटे-लेटे सब कुछ देखती थीं। वे देखती थीं कि जिस बहू को वे हमेशा टोकती थीं, वही उनकी सबसे ज़्यादा सेवा कर रही है। घर की दूसरी औरतें आतीं, हाल-चाल पूछकर चली जातीं, लेकिन प्रिया एक पल के लिए भी उन्हें अकेला नहीं छोड़ती थी। एक दोपहर, जब कमरे में कोई नहीं था, अम्बा देवी ने कमज़ोर आवाज़ में प्रिया को बुलाया। "बहू, ज़रा इधर आओ।" प्रिया पास आकर बैठ गई। "जी, दादी जी। कुछ चाहिए आपको?" अम्बा देवी ने प्रिया का हाथ अपने हाथ में ले लिया। उनकी आँखों में आँसू थे। उन्होंने कहा, "बेटी, मैं बहुत ग़लत थी। मैं हमेशा तुम्हारे कपड़ों और तुम्हारे तौर-तरीकों में 'संस्कार' ढूँढ़ती रही, पर असली संस्कार तो तुम्हारी सेवा और तुम्हारे इस अपनेपन में हैं। तूने बिना किसी शिकायत के मेरी इतनी सेवा की... मुझे माफ़ कर दे बेटी।" प्रिया की आँखों से भी आँसू बह निकले। उसने दादी सास के हाथ को चूम लिया और बोली, "आप माफ़ी मत माँगिए दादी जी। आप तो हमारी बड़भागी हैं। आपका आशीर्वाद ही काफ़ी है।" उस दिन के बाद सब कुछ बदल गया। जब अम्बा देवी ठीक होकर घर आईं, तो उन्होंने सबसे पहले प्रिया को बुलाया और अपनी पुश्तैनी सोने की कंगन प्रिया के हाथों में पहनाते हुए कहा, "आज से इस घर की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ मेरी नहीं, तुम्हारी भी है। और हाँ, कल से अपने ऑफ़िस के लिए तैयारी करना। मेरी बहू घर भी संभालेगी और दुनिया भी जीतेगी।" पूरे परिवार ने यह देखकर तालियाँ बजाईं। रोहन की आँखों में अपनी पत्नी और अपनी दादी के लिए गर्व साफ़ झलक रहा था। अब उस घर में नियम थे, पर प्यार और समझ के साथ। प्रिया अब भी सुबह जल्दी उठती थी, पर अपनी मर्ज़ी से। वह दादी सास के लिए चाय बनाती, उनके साथ बैठकर बातें करती और फिर अपने दफ़्तर के लिए तैयार होती। दादी सास ख़ुद उसे दही-शक्कर खिलाकर विदा करतीं। एक दादी सास और बहू का रिश्ता, जो डर और दूरी से शुरू हुआ था, अब माँ-बेटी के प्यार में बदल चुका था। घर अब जेल नहीं, बल्कि एक खूबसूरत मंदिर बन गया था, जहाँ दो अलग-अलग पीढ़ियों ने एक-दूसरे को अपनाकर उसे स्वर्ग बना दिया था।

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