पड़ोसी

 

पड़ोसी

जब अंकित की नौकरी दिल्ली में लगी, तो उसने सबसे पहले यही सोचा कि वह एक ऐसी सोसाइटी में घर लेगा जहाँ किसी को किसी से मतलब न हो। मुंबई के लोकल कल्चर से आया हुआ अंकित शांति चाहता था। उसे एक फ्लैट मिल भी गया, तेरहवीं मंज़िल पर, जहाँ उसके बगल वाले फ्लैट में एक बुज़ुर्ग दंपत्ति, शर्मा अंकल और आंटी रहते थे।

शुरुआत के कुछ महीने अंकित ने अपनी बनाई दुनिया में ही गुज़ारे। सुबह ऑफ़िस जाना, देर रात लौटना, वीकेंड पर दोस्तों के साथ घूमना या घर पर फ़िल्में देखना। शर्मा अंकल-आंटी से जब भी लिफ़्ट में या कॉरिडोर में मुलाक़ात होती, तो वह बस एक औपचारिक मुस्कान के साथ 'नमस्ते' कहकर आगे बढ़ जाता। शर्मा आंटी कई बार उससे बात करने की कोशिश करतीं, "बेटा, अकेले रहते हो, कोई तकलीफ़ तो नहीं?" पर अंकित हमेशा जल्दी में रहता और कहता, "नहीं आंटी, सब ठीक है।"

उसे लगता था कि ये पुराने लोग हैं, बस दूसरों के जीवन में ताक-झाँक करना चाहते हैं।

एक दिन, अंकित की तबीयत बहुत ख़राब हो गई। उसे तेज़ बुख़ार था और बदन दर्द से टूट रहा था। उसने ऑफ़िस से छुट्टी ले ली, पर अकेले घर में उसकी हालत और बिगड़ती जा रही थी। उसने सोचा कि वह ऑनलाइन दवाई मँगवा लेगा, पर उसमें भी वक़्त लग रहा था। दोपहर होते-होते उसे इतनी कमज़ोरी महसूस हुई कि वह बिस्तर से उठकर पानी लेने तक नहीं जा पा रहा था।

तभी उसके दरवाज़े की घंटी बजी। उसने सोचा, कौन होगा? हिम्मत करके उसने दरवाज़ा खोला। सामने शर्मा आंटी खड़ी थीं, हाथ में एक कटोरी लिए हुए।

"बेटा, सुबह से तुम्हें देखा नहीं, न ही दूध और अख़बार उठाया। सब ठीक तो है?" उनकी आवाज़ में सच्ची चिंता थी।

अंकित कुछ बोल पाता, उससे पहले ही चक्कर खाकर वहीं दरवाज़े पर गिर पड़ा।

जब उसकी आँख खुली, तो वह अपने बिस्तर पर था। उसका सिर शर्मा आंटी की गोद में था और वह उसके माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ रख रही थीं। शर्मा अंकल पास में खड़े एक डॉक्टर से बात कर रहे थे, जिन्हें वे अपने साथ ले आए थे।

डॉक्टर ने बताया कि अंकित को वायरल फ़ीवर के साथ डिहाइड्रेशन हो गया है। उन्होंने दवाइयाँ लिख दीं और आराम करने को कहा।

अंकित को बहुत शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। जिन लोगों को वह हमेशा नज़रअंदाज़ करता रहा, आज वही उसके लिए भगवान बनकर आए थे।

अगले तीन दिन तक शर्मा आंटी ने उसे अपने बेटे की तरह रखा। सुबह की चाय से लेकर रात की हल्की-फुल्की खिचड़ी तक, सब कुछ उसके बिस्तर पर पहुँच जाता। शर्मा अंकल उसे अपनी पुरानी फ़ौज की कहानियाँ सुनाते ताकि उसका मन लगा रहे। अंकित की माँ ने जब फ़ोन पर उसकी बीमार आवाज़ सुनी तो वह घबरा गईं, लेकिन जब अंकित ने बताया कि पड़ोस वाले अंकल-आंटी उसका ध्यान रख रहे हैं, तो उन्होंने चैन की साँस ली।

जब अंकित पूरी तरह ठीक हो गया, तो वह मिठाई का डिब्बा लेकर उनके घर गया। उसने झिझकते हुए कहा, "आंटी, अंकल... मुझे माफ़ कर दीजिए। मैंने आपको समझने में बहुत देर कर दी।"

शर्मा आंटी ने उसके सिर पर हाथ फेरा और मुस्कुराकर बोलीं, "अरे बेटा, इसमें माफ़ी की क्या बात है। पड़ोसी ही तो पड़ोसी के काम आता है। हमारे बच्चे भी तो बाहर रहते हैं, हम तो तुममें ही उन्हें देख लेते हैं।"

उस दिन के बाद, तेरहवीं मंज़िल का वो कॉरिडोर अंकित के लिए सिर्फ़ एक रास्ता नहीं, बल्कि एक जुड़ाव बन गया। अब उसकी सुबह शर्मा अंकल के साथ बालकनी में चाय पीने से होती थी और अक्सर रात का खाना शर्मा आंटी के हाथ का ही होता था। वह उनके छोटे-मोटे काम कर देता, जैसे उनके फ़ोन में कुछ ठीक करना या ऑनलाइन बिल भर देना।

उसने महसूस किया कि शहर की इस भीड़ में असली दौलत बड़े घर या महँगी गाड़ियाँ नहीं, बल्कि एक ऐसा पड़ोसी है जो ज़रूरत पड़ने पर दरवाज़ा खटखटाकर पूछ ले, "बेटा, सब ठीक तो है?"

रिश्ते सच में खून से नहीं, अपनेपन से बनते हैं, और कभी-कभी ये अपनेपन वाले रिश्ते बगल के दरवाज़े के पीछे ही हमारा इंतज़ार कर रहे होते हैं।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ