सुहागिन

 

सुहागिन

सावित्री के लिए 'सुहागिन' होना सिर्फ एक शब्द नहीं था, यह उसकी पूरी दुनिया थी। सुबह उठकर अपनी माँग में सिंदूर भरना, गले में काले मोतियों वाला मंगलसूत्र पहनना और हाथों में खनकती चूड़ियाँ... ये सब उसके लिए सिर्फ़ गहने नहीं थे, बल्कि उसके पति अरुण के प्रति उसके प्रेम और उसकी सलामती की दुआओं का जीवंत प्रतीक थे।

अरुण अक्सर मज़ाक में कहता, "सावित्री, तुम मेरे लिए नहीं, इन रिवाजों के लिए जीती हो।"

सावित्री मुस्कुराकर जवाब देती, "ये रिवाज आप से ही तो हैं। जब तक आप हैं, तभी तक तो इन सबका मोल है।" उनका यह छोटा सा, प्यार भरा संसार इन्हीं नोंक-झोंक और गहरे प्रेम पर टिका था।

एक दिन, वह क़यामत बनकर आया। अरुण ऑफ़िस से घर लौट रहा था और उसकी मोटरसाइकिल एक तेज़ रफ़्तार ट्रक से टकरा गई। जब सावित्री को फ़ोन आया, तो उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। वह भागी-भागी अस्पताल पहुँची। अरुण खून से लथपथ, बेहोश था। डॉक्टर ने बताया कि उसे बहुत गहरी चोटें आई हैं और बहुत खून बह गया है। उसे तुरंत 'ओ नेगेटिव' ग्रुप के खून की ज़रूरत थी, जो बहुत मुश्किल से मिलता है।

सावित्री का दुनिया जैसे एक पल में उजड़ गया। वह अस्पताल के कोने में बने मंदिर में दौड़ी और भगवान के सामने अपना सिर पटक-पटक कर रोने लगी। "हे भगवान, मेरे सुहाग की रक्षा करना! मैंने आज तक हर व्रत, हर पूजा सच्चे मन से की है। मेरे सिंदूर का मान रख लेना।"

वह घंटों तक प्रार्थना करती रही, लेकिन ब्लड बैंक से कोई अच्छी ख़बर नहीं आई। उसके रिश्तेदार, जो वहाँ जमा थे, आपस में फुसफुसा रहे थे, "बेचारी, देखो तो क्या हाल हो गया है।"

उस एक पल में सावित्री को लगा जैसे उसका मंगलसूत्र भारी हो गया है, उसकी चूड़ियाँ उसे बोझ लग रही थीं और माँग का सिंदूर उसे चिढ़ा रहा था। ये सब तो उसके सुहाग की निशानियाँ थीं, पर आज जब उसका सुहाग ही खतरे में था, तो ये सब बेजान लग रही थीं।

तभी उसके अंदर से एक आवाज़ आई। 'सिर्फ़ प्रार्थना करने से अरुण नहीं बचेगा। मुझे कुछ करना होगा।'

वह उठी, अपने आँसू पोंछे और डॉक्टर के पास गई। उसने कहा, "डॉक्टर साहब, क्या मैं रेडियो पर घोषणा करवा सकती हूँ? शायद कोई सुन ले।"

डॉक्टर ने सहमति दी। सावित्री ने शहर के हर रेडियो स्टेशन पर फ़ोन किया। उसने अपने जान-पहचान वालों को, अरुण के दोस्तों को, सबको फ़ोन करके मदद माँगी। वह अब सिर्फ एक असहाय पत्नी नहीं थी, वह एक योद्धा बन चुकी थी, जो अपने पति की ज़िंदगी के लिए लड़ रही थी।

घंटे बीतते गए, उम्मीदें टूट रही थीं। रात गहराने लगी थी। तभी अस्पताल में एक फौजी वर्दी पहने नौजवान आया। उसने कहा, "मैंने रेडियो पर सुना। मेरा ब्लड ग्रुप 'ओ नेगेटिव' है। मैं रक्तदान करना चाहता हूँ।"

सावित्री की आँखों में उम्मीद की एक किरण जगी। उस फ़ौजी के दिए हुए खून से अरुण का ऑपरेशन शुरू हुआ। सावित्री ऑपरेशन थिएटर के बाहर बैठी रही। अब वह प्रार्थना नहीं कर रही थी, वह बस अपने अरुण को याद कर रही थी - उसकी हँसी, उसका मज़ाक, उसका प्यार।

सुबह के चार बजे डॉक्टर बाहर आए और बोले, "ऑपरेशन सफल रहा। वह अब खतरे से बाहर हैं।"

सावित्री वहीं ज़मीन पर बैठ गई और फूट-फूटकर रो पड़ी। पर ये आँसू हार के नहीं, जीत के थे।


कुछ दिनों बाद, जब अरुण को होश आया, तो उसने अपनी आँखों के सामने सावित्री को पाया। उसके बाल बिखरे हुए थे, आँखें सूजी हुई थीं, पर उसके चेहरे पर एक अद्भुत शांति थी। अरुण ने उसका हाथ थामकर कहा, "तुमने मुझे बचा लिया, सावित्री।"

सावित्री ने उसके हाथ को चूम लिया और बोली, "नहीं अरुण, हमारे प्यार ने हमें बचाया है।"

उस दिन घर लौटकर, जब सावित्री शीशे के सामने खड़ी हुई, तो उसने अपनी माँग में सिंदूर भरा। पर आज उसे भरने का एहसास अलग था। यह सिंदूर अब सिर्फ़ एक रिवाज या पति की लंबी उम्र का टोटका नहीं था। यह उनके अटूट प्रेम, उनके भरोसे और उस लड़ाई का प्रतीक था, जिसे उन्होंने मिलकर जीता था।

उसे समझ आ गया था कि 'सुहागिन' होने का असली मतलब सिर्फ़ सजना-संवरना और रिवाजों को निभाना नहीं है, बल्कि मुश्किल समय में अपने साथी की ढाल बनकर खड़ा हो जाना है। उसका सुहाग उसके गहनों में नहीं, उसके हौसले में था।

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