काकी

 

काकी

शहर की ऊँची इमारतों और भागदौड़ भरी ज़िंदगी में, आज जब मैंने सुपरमार्केट से आम के अचार की एक महँगी बोतल उठाई, तो अचानक मुझे मेरी काकी की याद आ गई। काकी, यानी शारदा काकी। उनके हाथ के बने अचार की ख़ुशबू और स्वाद आज भी मेरी ज़ुबान पर ज़िंदा है।

बचपन में हमारी गर्मी की छुट्टियाँ गाँव में ही बीतती थीं। हमारा एक बड़ा सा पुश्तैनी घर था, जहाँ ताऊ-ताई, चाचा-चाची और हम सब बच्चे एक साथ रहते थे। उस घर की जान थीं हमारी काकी। वह रिश्ते में मेरे पिता के छोटे भाई की पत्नी थीं, पर मेरे लिए वह माँ से कम नहीं थीं।

काकी का कद छोटा था, और वह हमेशा सूती साड़ी पहनती थीं, जिसका पल्लू उनके सिर पर टिका रहता था। उनके चेहरे पर एक स्थायी मुस्कान रहती थी, जो घर के हर तनाव को सोख लेती थी। जब भी माँ किसी शरारत पर मुझे डाँटतीं, तो मैं भागकर काकी के आँचल में छिप जाता था। वह मुझे अपनी गोद में बिठा लेतीं और माँ से कहतीं, "जाने दो जीजी, बच्चा ही तो है।" फिर धीरे से मेरे हाथ में गुड़ की एक डली थमा देतीं।

काकी का कमरा एक जादुई दुनिया थी। वहाँ एक पुराना लकड़ी का संदूक था, जिसे वह 'पिटारा' कहती थीं। उस पिटारे में उनके लिए दुनिया की सबसे कीमती चीज़ें थीं - पुराने ख़त, सूखे हुए फूल, टूटी चूड़ियाँ और हम बच्चों के लिए हमेशा कुछ न कुछ मीठा। हम बच्चे अक्सर उनके पास जाकर ज़िद करते, "काकी, अपना पिटारा खोलो ना!" और वह मुस्कुराकर खोल देतीं।

मुझे याद है, एक बार मैंने खेलते-खेलते काकी के अचार का वो बड़ा सा मर्तबान तोड़ दिया था, जिसे उन्होंने महीनों की मेहनत से बनाया था और धूप में सुखाया था। काँच के टुकड़ों और तेल से सने आम को देखकर मैं डर के मारे काँपने लगा। मुझे लगा आज तो बहुत मार पड़ेगी।

काकी भागती हुई आईं। लेकिन उन्होंने मर्तबान को देखने से पहले मुझे अपनी बाहों में भर लिया और घबराई हुई आवाज़ में पूछा, "लल्ला, तुझे चोट तो नहीं लगी?"

उनकी आँखों में अचार के लिए नहीं, मेरे लिए चिंता थी। उस दिन मुझे एहसास हुआ कि काकी का प्यार उनके किसी भी सामान से कहीं ज़्यादा कीमती है। उन्होंने एक शब्द नहीं कहा, बस मेरा माथा चूमा और सफ़ाई में जुट गईं।

जैसे-जैसे हम बड़े हुए, शहर आ गए, और गाँव की वो दुनिया पीछे छूट गई। हम छुट्टियों में कभी-कभार ही जा पाते। काकी अब बूढ़ी हो चली थीं। उनके चेहरे पर झुर्रियाँ गहरी हो गई थीं, पर उनकी मुस्कान और आँखों की चमक वैसी ही थी। वह अब भी हमारे लिए हमारी पसंद की चीज़ें बनातीं और इंतज़ार करतीं।

आज इस सुपरमार्केट में खड़े होकर, अचार की उस बेजान बोतल को देखते हुए मुझे लगा कि हम पैसे से सब कुछ ख़रीद सकते हैं, पर काकी के हाथ का वो स्वाद नहीं ख़रीद सकते, जिसमें सिर्फ़ मसाले नहीं, बल्कि उनका पूरा स्नेह घुला होता था। हम बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमते हैं, पर काकी के आँचल की वो छाँव अब कहीं नहीं मिलती।

मैंने अचार की बोतल वापस रख दी। घर आकर मैंने फ़ोन उठाया और गाँव का नंबर मिलाया। दूसरी तरफ़ से काकी की धीमी और प्यारी आवाज़ आई, "कौन, लल्ला... कैसा है तू?"

मेरी आँखों में आँसू आ गए। मैंने बस इतना कहा, "काकी, मैं आ रहा हूँ... आपके हाथ का अचार खाने।"

दूसरी तरफ़ से उनकी खिलखिलाती हुई हँसी सुनाई दी, जो किसी भी संगीत से ज़्यादा मीठी थी।

काकी सिर्फ एक रिश्ता नहीं थीं, वह मेरे बचपन का सबसे महफूज़ और खूबसूरत घर थीं। एक ऐसा घर, जहाँ ग़लतियाँ माफ़ थीं और प्यार बेशर्त था।



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ