छोटी बहू
जब राधा ब्याह कर उस बड़े से घर में 'छोटी बहू' बनकर आई, तो उसकी आँखों में ढेर सारे सपने थे और मन में थोड़ी घबराहट। घर किसी हवेली से कम नहीं था, और उसकी सास, सावित्री देवी, उस हवेली की सख्त शासक थीं। घर में दो जेठानियाँ, मंजू और रेखा, भी थीं, जो घर के काम-काज में माहिर थीं और सास की हर बात पर 'जी' कहती थीं।
राधा स्वभाव से शांत और थोड़ी शर्मीली थी। उसे बातें करने से ज़्यादा सुनना और दुनिया को अपने रंगों में देखना पसंद था। वह एक अच्छी चित्रकार थी, पर ससुराल में अपनी इस कला के बारे में बताने में झिझकती थी।
शुरुआती दिनों में राधा को बहुत मुश्किल हुई। उससे काम में वैसी फुर्ती नहीं थी जैसी उसकी जेठानियों में थी। कभी सब्ज़ी में नमक ज़्यादा हो जाता, तो कभी रोटी गोल नहीं बनती। सास की तीखी नज़रें और जेठानियों की दबी हुई हँसी उसे चुभती थी। सावित्री देवी अक्सर कहतीं, "शहर की लड़की है, काम-काज में मन कहाँ लगेगा। बस सजना-संवरना आता है।"
राधा चुपचाप सब सहती और कोशिश करती रहती। उसका पति, रमेश, उसका हौसला बढ़ाता और कहता, "तुम जैसी हो, वैसी ही रहना। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।"
राधा को जब भी फुर्सत मिलती, वह अपने कमरे में बैठकर एक छोटी सी डायरी में सुंदर चित्र बनाती। मोर, फूल, पत्तियाँ... यही उसकी दुनिया थी, जहाँ उसे सुकून मिलता था।
एक दिन घर में बड़ी पूजा की तैयारी हो रही थी। दूर-दूर से मेहमान आने वाले थे। घर की पूरी ज़िम्मेदारी तीनों बहुओं पर थी। सावित्री देवी ने सबको काम बाँट दिए। पूजा के लिए बाज़ार से 'शगुन की थालियाँ' मंगवाई गईं, लेकिन जब वे आईं तो बहुत ही साधारण और फीकी थीं। सावित्री देवी का पारा चढ़ गया।
"इतने बड़े आयोजन में ऐसी फीकी थालियाँ! हमारी तो नाक ही कट जाएगी," वह गुस्से में बोलीं।
मंजू और रेखा भी परेशान थीं, पर उनके पास कोई हल नहीं था। बाज़ार जाकर नई थालियाँ लाने का समय भी नहीं था। घर में तनाव का माहौल था।
तभी राधा धीरे से अपनी सास के पास आई और बोली, "माँजी, अगर आप कहें तो क्या मैं इन थालियों को सजाने की कोशिश करूँ?"
सावित्री देवी ने उसे अविश्वास से देखा। "तू? तू क्या सजाएगी? यह रंग-रोगन का काम नहीं, पूजा का काम है।"
जेठानी रेखा ने ताना कसा, "हाँ माँजी, कहीं यह इन्हें और बिगाड़ न दे।"
राधा की आँखें भर आईं, पर उसने हिम्मत नहीं हारी। उसने फिर कहा, "माँजी, बस एक मौका दीजिए। अगर अच्छा न लगे तो रहने दीजिएगा।"
शायद मजबूरी में या शायद राधा की आँखों में आत्मविश्वास देखकर, सावित्री देवी मान गईं। "ठीक है, पर याद रहे, घर की इज़्ज़त का सवाल है।"
राधा ने सारी थालियाँ अपने कमरे में रख लीं और दरवाज़ा बंद कर लिया। उसने अपनी छोटी सी संदूकची से रंग, ब्रश, मोती और कुंदन निकाले। फिर वह पूरी लगन से काम में जुट गई। उसने थालियों पर सुंदर मोर बनाए, बारीक फूलों की बेलें उकेरीं और उन्हें मोतियों से ऐसे सजाया जैसे किसी कलाकार ने अपनी पूरी आत्मा उसमें डाल दी हो।
दो घंटे बाद जब राधा कमरे से बाहर निकली, तो उसकी आँखों के नीचे थकान थी, पर चेहरे पर एक चमक थी। उसने सजी हुई थालियाँ आँगन में रख दीं।
जैसे ही सावित्री देवी और दोनों जेठानियों की नज़र उन थालियों पर पड़ी, वे देखती ही रह गईं। वे साधारण स्टील की थालियाँ अब किसी राजघराने की कलाकृति लग रही थीं। हर थाली एक कहानी कह रही थी। रंग इतने सुंदर और काम इतना बारीक था कि आँखें नहीं हट रही थीं।
सावित्री देवी के मुँह से एक शब्द नहीं निकला। वह बस कभी थालियों को देखतीं और कभी अपनी 'छोटी बहू' को। आज पहली बार उन्होंने राधा को सिर्फ एक बहू के रूप में नहीं, बल्कि एक कलाकार के रूप में देखा था। उनकी सख्त आँखों में पहली बार प्रशंसा का भाव था।
पूजा के दिन जब मेहमानों ने वे थालियाँ देखीं, तो सबने तारीफ़ की। एक मेहमान ने पूछा, "सावित्री जी, ये लाजवाब थालियाँ कहाँ से बनवाईं?"
सावित्री देवी ने गर्व से अपना सिर ऊँचा किया और राधा के कंधे पर हाथ रखकर बोलीं, "ये बाज़ार की नहीं, हमारी छोटी बहू के हुनर का कमाल हैं।"
उस दिन के बाद घर में सब कुछ बदल गया। राधा को अब सिर्फ उसके काम से नहीं, बल्कि उसके हुनर से पहचाना जाने लगा। सास ने खुद उसे रंगों का एक बड़ा डिब्बा लाकर दिया और कहा, "बहू, अपनी इस कला को कभी मरने मत देना।"
अब राधा घर के काम भी करती और अपनी चित्रकारी भी। हवेली की सूनी दीवारों पर अब राधा के बनाए हुए चित्र टँगने लगे थे। वह अब सिर्फ 'छोटी बहू' नहीं थी, वह उस घर की रौनक थी, जिसने अपनी कला के रंगों से न सिर्फ़ दीवारों को, बल्कि दिलों को भी जीत लिया था।
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