हमार बिटिया
रामखेलावन जब शाम को खेत से लौटता, तो चाहे कितनी भी थकान हो, उसकी आँखें बस एक ही चेहरे को ढूँढती थीं - उसकी सात साल की बेटी लल्ली का। जैसे ही वह घर के आँगन में कदम रखता, लल्ली दौड़कर आती और उसकी धूल-मिट्टी से सनी उँगली पकड़ लेती। रामखेलावन की सारी थकान उसी पल काफूर हो जाती। वह मुस्कुराकर कहता, "आ गई हमार बिटिया!"
गाँव में लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाने का रिवाज़ नहीं था। कहते थे, "लड़की जात है, चूल्हा-चौका सीख ले, वही बहुत है। पढ़ा-लिखाकर का कलेक्टर बनाना है?" पर रामखेलावन की सोच अलग थी। उसकी लल्ली की आँखों में एक अलग ही चमक थी। वह हर चीज़ को जानने के लिए उत्सुक रहती। जब गाँव के स्कूल में उसका नाम लिखवाया गया, तो कई लोगों ने ताने कसे, पर रामखेलावन ने किसी की नहीं सुनी।
लल्ली पढ़-लिखकर होशियार निकली। वह अपनी कक्षा में हमेशा अव्वल आती। गाँव का स्कूल पाँचवीं तक ही था। जब लल्ली ने पाँचवीं पास की, तो सवाल उठा - अब आगे क्या? शहर का स्कूल आठ किलोमीटर दूर था, और किसी लड़की को अकेले वहाँ भेजना गाँव में पाप समझा जाता था।
उस रात रामखेलावन और उसकी पत्नी शांति के बीच बहुत देर तक बातें हुईं। शांति डरी हुई थी, "लोग का कहेंगे? बिटिया की इज़्ज़त का सवाल है।"
रामखेलावन ने एक लंबी साँस ली और बोला, "लोग तो तब भी कहेंगे जब हमार बिटिया ज़िंदगी भर अँधेरे में रह जाएगी। उसकी आँखों में सपने हैं, शांति। मैं उन सपनों को मरने नहीं दूँगा।"
अगले दिन रामखेलावन ने अपनी पुरानी साइकिल निकाली, उसे ठीक करवाया और लल्ली का दाखिला शहर के स्कूल में करा दिया। अब यह उसका रोज़ का नियम बन गया। सुबह लल्ली को साइकिल पर बिठाकर स्कूल छोड़ना और दोपहर में छुट्टी के समय उसे वापस लाना। चाहे धूप हो, बारिश हो या कड़ाके की ठंड, रामखेलावन का यह नियम कभी नहीं टूटा। लोग हँसते, मज़ाक उड़ाते, पर वह अपने रास्ते पर चलता रहा। वह अक्सर कहता, "यह साइकिल नहीं, हमार बिटिया के सपनों का रथ है।"
साल बीतते गए। लल्ली ने बारहवीं भी अच्छे नंबरों से पास कर ली। अब उसने एक नया सपना देखा था - डॉक्टर बनने का। यह सुनकर तो पूरे गाँव में जैसे भूचाल आ गया। चौधरी साहब ने रामखेलावन को बुलाकर समझाया, "पागल हो गए हो का, रामखेलावन? डॉक्टरी की पढ़ाई में ज़मीन-जायदाद बिक जाती है। लड़की की शादी की उम्र है, उसकी शादी करो।"
रामखेलावन चुपचाप सुनता रहा, पर उसका फ़ैसला अटल था। उसने अपनी दो बीघा ज़मीन का एक हिस्सा बेच दिया और लल्ली का दाखिला मेडिकल कॉलेज में करा दिया। इन पाँच सालों में रामखेलावन और शांति ने हर तरह की तंगी झेली। एक वक्त का खाना खाया, फटे-पुराने कपड़े पहने, पर बिटिया की पढ़ाई में कोई कमी नहीं आने दी।
और फिर वो दिन आया, जिसका पूरे परिवार को इंतज़ार था। लल्ली डॉक्टर बनकर गाँव लौटी। जब वह सफ़ेद कोट पहने घर के आँगन में उतरी, तो रामखेलावन की आँखों से आँसू बह निकले। उसने अपनी बेटी को गले से लगा लिया और बस इतना ही कह सका, "हमार बिटिया..."
एक शाम, गाँव के चौधरी साहब का पोता खेलते-खेलते छत से गिर गया। उसे गहरी चोट आई और वह बेहोश हो गया। शहर का अस्पताल बहुत दूर था। सब घबराए हुए थे। तभी किसी ने कहा, "रामखेलावन की बिटिया को बुलाओ, वो डॉक्टर है!"
लल्ली भागी-भागी आई। उसने तुरंत बच्चे की नब्ज़ जाँची, उसे प्राथमिक उपचार दिया और एक इंजेक्शन लगाया। थोड़ी देर में बच्चे को होश आ गया। लल्ली ने कहा, "खतरे की कोई बात नहीं है, पर सुबह शहर ले जाकर जाँच ज़रूर करवा लीजिएगा।"
उस रात चौधरी साहब खुद रामखेलावन के दरवाज़े पर हाथ जोड़े खड़े थे। उनकी आँखों में पश्चाताप के आँसू थे। उन्होंने कहा, "रामखेलावन, हम ग़लत थे। आज तुम्हारी बेटी ने हमारे कुल का चिराग बचाया है। यह सिर्फ तुम्हारी बिटिया नहीं, अब यह पूरे गाँव की बिटिया है।"
रामखेलावन ने गर्व से अपनी बेटी की ओर देखा, जो अब घर के अंदर बीमार माँ की देखभाल कर रही थी। उसकी आँखों में वही चमक थी, लेकिन आज उसमें एक आत्मविश्वास भी था।
आज गाँव में एक छोटा सा क्लिनिक है, जिसके बाहर लिखा है - "डॉ. लल्ली कुमारी"। रामखेलावन अब बूढ़ा हो चला है, पर वह रोज़ उस क्लिनिक के बाहर एक टूटी चारपाई पर बैठकर अपनी बेटी को काम करते देखता है। और जब भी कोई मरीज़ ठीक होकर उसे दुआएँ देता है, तो वह धीरे से मुस्कुराता है और मन ही मन कहता है, "हमार बिटिया... हमार गरब (गर्व) है।"
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