फुलवा
पहाड़ियों और घने जंगलों से घिरे उस छोटे से गाँव में, फुलवा सिर्फ एक नाम नहीं था, वह उस गाँव की आत्मा का एक हिस्सा थी। सांवली-सलोनी, हिरणी जैसी चंचल आँखों वाली दस साल की फुलवा को जंगल का हर पेड़, हर पत्ता और हर फूल पहचानता था। लोग कहते थे कि उसे हवाओं की भाषा और फूलों का संगीत सुनाई देता है। जब पलाश के फूल दहकते, तो वह कहती, "गरमी आने वाली है।" जब महुए की मीठी गंध फैलती, तो वह मुस्कुराकर अपनी माँ से कहती, "अब त्योहार का समय है।"
उसका पूरा दिन जंगल में ही बीतता। सूखी लकड़ियाँ चुनना, बेर तोड़ना और झरनों के किनारे खिले अनजाने फूलों से बातें करना, यही उसकी दुनिया थी। वह जानती थी कि कौन सी जड़ी-बूटी चोट पर लगानी है और किस पत्ते को चबाने से प्यास बुझ जाती है। गाँव के बड़े-बुजुर्ग उसे देखकर मुस्कुराते और कहते, "यह तो जंगल की ही बेटी है।"
एक साल, मानसून के बाद गाँव में एक अजीब सी बीमारी फैल गई। लोग बीमार पड़ने लगे। पेट में दर्द, बुख़ार और कमज़ोरी... एक-एक कर कई घर इसकी चपेट में आ गए। गाँव का वैद्य अपनी पुरानी पोथियों और जड़ी-बूटियों से इलाज करने की कोशिश कर रहा था, पर कोई फ़ायदा नहीं हो रहा था। गाँव में उदासी और डर का माहौल छा गया।
फुलवा भी परेशान थी। उसने देखा कि उसका छोटा भाई भी सुस्त रहने लगा है। एक दिन वह पानी भरने के लिए उस झरने पर गई, जहाँ से पूरा गाँव पानी लेता था। उसकी नज़र झरने के आसपास उगे फूलों पर पड़ी। वे मुरझाए हुए और बेरंग थे। उनके पत्तों पर अजीब से सफ़ेद धब्बे थे। उसे हैरानी हुई, क्योंकि दूसरी जगहों पर वही फूल पूरी तरह खिले हुए थे।
वह दौड़कर घर आई और अपनी माँ से कहा, "माँ, झरने का पानी ठीक नहीं है। वहाँ के फूल बीमार हैं।"
उसकी माँ ने उसे झिड़क दिया, "चुप कर फुलवा! पानी को क्या होगा? हमेशा अपनी ही धुन में रहती है।"
फुलवा ने गाँव के मुखिया को बताने की कोशिश की, पर उन्होंने भी उसे एक बच्ची समझकर टाल दिया। "जा बच्ची, खेल जाकर। ये बड़ों की बातें हैं।"
किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन फुलवा को यकीन था कि गड़बड़ वहीं है। उसने गाँव वालों को उस झरने से पानी लेने से मना किया, पर कोई नहीं माना। बीमारी और तेज़ी से फैलने लगी।
अब फुलवा से रहा नहीं गया। गाँव के दूसरे छोर पर एक पुराना, सूखा हुआ कुआँ था, जिसे लोग इस्तेमाल नहीं करते थे। लेकिन फुलवा जानती थी कि बारिश के बाद उसमें थोड़ा पानी आ जाता है। वह अगले दिन सुबह-सुबह उठी और अकेले ही उस कुएँ पर गई। पानी थोड़ा गंदा था, पर उसके आसपास खिले फूल बिल्कुल स्वस्थ थे। उसने अपनी छोटी सी मटकी में उस कुएँ से पानी भरा और घर ले आई। उसने अपनी माँ से कहा कि आज से हम यही पानी पिएंगे।
दो-चार दिन बीते। फुलवा के घर में कोई और बीमार नहीं पड़ा, बल्कि उसके भाई की तबीयत भी सुधरने लगी। यह बात धीरे-धीरे पड़ोसियों तक पहुँची। पहले एक परिवार, फिर दूसरे परिवार ने शक के साथ ही सही, फुलवा की बात मानकर उस पुराने कुएँ से पानी लाना शुरू कर दिया।
हफ़्ते भर में चमत्कार हो गया। गाँव में नए मरीज़ आने बंद हो गए और पुराने लोग भी ठीक होने लगे। अब पूरे गाँव की आँखें खुल चुकी थीं। मुखिया और वैद्य दोनों शर्मिंदा थे। वे सब उस छोटी सी बच्ची के पास आए, जिसकी बात को उन्होंने खेल समझकर उड़ा दिया था।
मुखिया ने फुलवा के सिर पर हाथ रखकर कहा, "बेटी, तूने हम सबकी जान बचाई है। हम पढ़े-लिखे होकर भी जो नहीं समझ सके, वो तूने अपने फूलों से सीख लिया।"
उस दिन के बाद, फुलवा गाँव की सबसे सम्मानित सदस्य बन गई। लोग अब उससे सिर्फ़ फूलों के बारे में नहीं, बल्कि जीवन की सलाह भी लेने लगे थे। वह अब भी जंगल में जाती, फूलों से बातें करती, पर अब वह अकेली नहीं होती थी। पूरा गाँव जानता था कि उनकी 'फुलवा' कोई साधारण लड़की नहीं, बल्कि जंगल का भेजा हुआ एक आशीर्वाद है, जो उनकी रक्षा के लिए आई है। वह जंगल की बेटी थी, और जंगल ने आज अपनी बेटी का मान रख लिया था।
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