देवी महोत्सव का रहस्य

 

क्रॉसड्रेसर्स की दिलचस्प कहानी: देवी महोत्सव का रहस्य

देवपुरा गाँव में हर साल चैत्र के महीने में एक अनोखा देवी महोत्सव मनाया जाता था। यह महोत्सव बाकी त्योहारों से बिल्कुल अलग था। नौ दिनों तक चलने वाले इस उत्सव के आखिरी दिन, जिसे 'सखी दिवस' कहा जाता था, गाँव के पुरुष महिलाओं के वस्त्र, श्रृंगार और आभूषण पहनकर देवी के मंदिर तक एक भव्य शोभायात्रा निकालते थे। यह क्रॉसड्रेसिंग का अनूठा उत्सव था, जिसकी जड़ें सदियों पुरानी थीं।

गाँव के लोग इसे परंपरा मानकर निभाते थे, लेकिन इसके पीछे का असली कारण किसी को ठीक से पता नहीं था। बस इतना कहते थे कि यह देवी को प्रसन्न करने का एक तरीका है।

इसी गाँव का लड़का था रवि, जो शहर में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था। वह आधुनिक सोच वाला, तर्कवादी और जिज्ञासु था। उसे यह परंपरा हमेशा से एक अजीब और अतार्किक रीति-रिवाज लगती थी। वह इसे पुरुषों का महिलाओं के रूप में सजना और नाचना-गाना, बस एक मनोरंजन का साधन मानता था।

इस साल, उसने फैसला किया कि वह इस देवी महोत्सव के रहस्य पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाएगा। वह अपने कैमरे के साथ गाँव लौटा, उसका मकसद इस 'अंधविश्वास' की परतें उधेड़ना था।

उसने गाँव के बुजुर्गों से बात की, पर उसे वही घिसे-पिटे जवाब मिले - "यह हमारे पूर्वजों की परंपरा है," "इससे देवी माँ प्रसन्न होती हैं।"

उसका ध्यान गाँव के सबसे सम्मानित व्यक्ति, 80 वर्षीय रामभरोसे काका पर गया। वे 'सखी दिवस' पर सबसे सुंदर स्त्री का रूप धरते थे। उनका श्रृंगार, उनकी चाल, उनकी मुस्कान... सब कुछ इतना स्वाभाविक होता था कि उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता था। रवि ने सोचा कि काका से ही इस रहस्य का पता चल सकता है।

एक शाम, जब रामभरोसे काका अपने आँगन में बैठे थे, रवि उनके पास पहुँचा।

"काका, मैं इस क्रॉसड्रेसिंग परंपरा के बारे में जानना चाहता हूँ। आखिर पुरुष क्यों औरतों के कपड़े पहनते हैं?" रवि ने सीधे सवाल किया।

रामभरोसे काका मुस्कुराए। उनकी आँखों में एक गहरी शांति थी। उन्होंने कहा, "बेटा, यह सिर्फ़ कपड़े बदलना नहीं है। यह भूमिका बदलना है। यह एक दिन के लिए किसी और की ज़िंदगी को जीना है।"

यह जवाब रवि के लिए काफ़ी नहीं था। उसने जोर देकर पूछा, "लेकिन क्यों? इसका कोई तो कारण होगा।"

काका ने एक लंबी साँस ली और बोले, "तुम इस रहस्य को जानना चाहते हो? तो इस बार 'सखी दिवस' पर तुम्हें भी एक सखी बनना होगा। जब तुम एक दिन के लिए औरत बनोगे, तभी इस परंपरा की आत्मा को समझ पाओगे।"

रवि झिझका, पर अपनी डॉक्यूमेंट्री पूरी करने की धुन में वह तैयार हो गया।

'सखी दिवस' के दिन, रामभरोसे काका ने खुद रवि का श्रृंगार किया। उसे एक सुंदर सी साड़ी पहनाई, आँखों में काजल लगाया, माथे पर बिंदिया सजाई और हाथों में चूड़ियाँ पहनाईं। जब रवि ने आईने में खुद को देखा, तो वह हैरान रह गया। वह एक अजनबी स्त्री को देख रहा था।

जैसे ही वह घर से बाहर निकला, उसे एक अजीब सी असहजता ने घेर लिया। लोगों की भेदती हुई निगाहें, कुछ लोगों की दबी हुई हँसी और कुछ की घूरती हुई आँखों ने उसे अंदर तक हिला दिया। उसे पहली बार समझ आया कि एक महिला जब घर से बाहर निकलती है, तो उसे हर पल कैसा महसूस होता है।

शोभायात्रा शुरू हुई। भारी साड़ी, गहने और लंबे बालों के साथ चलना भी एक चुनौती थी। उसे अपने हर कदम पर ध्यान देना पड़ रहा था।

जब वे मंदिर पहुँचे, तो एक और रस्म हुई। सभी 'सखियों' को देवी की आरती के बाद गाँव की महिलाओं के पैर छूकर उनका आशीर्वाद लेना था। जब रवि अपनी माँ के पैर छूने के लिए झुका, तो उसकी माँ ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और उसके कान में धीरे से कहा, "आज तू समझी, बेटी होने का मतलब?"

उस एक पल में रवि को सब कुछ समझ आ गया।

यह परंपरा देवी को प्रसन्न करने के लिए नहीं थी। यह पुरुषों को एक दिन के लिए स्त्री का जीवन जीने का अवसर देती थी। यह उन्हें यह सिखाती थी कि एक औरत होना कितना मुश्किल और कितना सुंदर है। यह उन्हें उनकी माँ, पत्नी, बहन और बेटी के प्रति अधिक संवेदनशील, सम्मानपूर्ण और समझदार बनाती थी।

रामभरोसे काका जब एक दिन के लिए स्त्री बनते थे, तो वे सिर्फ़ कपड़े नहीं बदलते थे, वे अपनी पत्नी की उन अनकही तकलीफ़ों को महसूस करते थे, जो वह साल भर चुपचाप सहती थी। जब कोई युवा लड़का सखी बनता था, तो उसे अपनी बहन की आज़ादी के मायने समझ आते थे।

यह क्रॉसड्रेसिंग का उत्सव सिर्फ़ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं था; यह सहानुभूति और सम्मान का एक गहरा मानवीय पाठ था। यह पुरुषों को उनकी मर्दानगी के खोल से बाहर निकालकर स्त्रीत्व की विशालता का अनुभव कराता था।

उस दिन रवि की डॉक्यूमेंट्री का विषय ही बदल गया। उसने इस परंपरा का मज़ाक नहीं उड़ाया, बल्कि इसकी आत्मा को दुनिया के सामने रखा। उसकी डॉक्यूमेंट्री का नाम था - "सखी दिवस: एक दिन के लिए औरत।"

उसने सीखा कि कुछ परंपराएँ अतार्किक नहीं होतीं, उनकी जड़ें गहरी मानवीय संवेदनाओं से जुड़ी होती हैं। देवपुरा का देवी महोत्सव का रहस्य किसी चमत्कार में नहीं, बल्कि पुरुषों के दिलों में करुणा और सम्मान जगाने की एक अनूठी प्रथा में छिपा था।

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