रक्षा बंधन: यादों की राखी
सुशीला जी ने पूजा की थाली सजाई। उसमें रोली थी, चावल थे, मिठाई थी और एक साधारण सी दिखने वाली रेशम की राखी भी थी। घर के बाहर मोहल्ले में रक्षा बंधन का उल्लास था, बच्चों की हँसी और नए कपड़ों की चमक थी। लेकिन सुशीला जी के घर के अंदर एक खामोश ठहराव था, जो उत्सव के शोर से बिल्कुल अछूता था।
उनके सामने वाले कमरे में, आरामकुर्सी पर उनके बड़े भाई, श्रीकांत जी बैठे थे। सत्तर के हो चले थे, पर उनकी आँखें एक अनजाने शून्य में ताक रही थीं। पिछले कुछ सालों से याददाश्त उनका साथ छोड़ रही थी। कभी-कभी वह अपना नाम भूल जाते, कभी-कभी घर का रास्ता, और अब तो वह अपनी छोटी बहन सुशीला को भी बस एक धुँधली सी पहचान के साथ देखते थे।
सुशीला के लिए रक्षा बंधन का त्योहार अब भाई से उपहार लेने या रक्षा का वचन लेने का दिन नहीं था। यह उनके लिए एक इम्तिहान था - अपने भाई के मन के अँधेरे में यादों का एक छोटा सा दीया जलाने का इम्तिहान।
वह थाली लेकर श्रीकांत जी के पास गईं। "भैया..." उन्होंने धीरे से पुकारा।
श्रीकांत जी ने बिना किसी भाव के उनकी ओर देखा। उनकी आँखों में कोई पहचान नहीं थी।
"आज राखी है, भैया। रक्षा बंधन," सुशीला ने अपने आँसुओं को रोकते हुए कहा।
उन्होंने श्रीकांत की सूनी कलाई पर राखी बाँधने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। श्रीकांत ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। हर साल की तरह यह रस्म अब बस एक तरफा होकर रह गई थी।
लेकिन इस बार सुशीला ने कुछ और सोचा था। राखी बाँधने के बाद उन्होंने थाली से मिठाई नहीं, बल्कि एक पुरानी, काले-सफ़ेद रंग की तस्वीर निकाली। यह उनके बचपन की तस्वीर थी। उसमें पाँच साल की सुशीला अपने सात साल के भाई श्रीकांत को राखी बाँध रही थी और श्रीकांत शरारत से कैमरे की तरफ जीभ चिढ़ा रहा था।
सुशीला ने वह तस्वीर श्रीकांत की आँखों के सामने कर दी। "देखो भैया, यह आप हो... और यह मैं। आपको याद है, इस दिन आपने मेरी राखी खोलकर आम के पेड़ पर बाँध दी थी और कहा था कि अब से यह पेड़ तुम्हारी रक्षा करेगा? फिर जब मैंने रोना शुरू किया, तो आप दौड़कर मेरे लिए इमली वाले लड्डू लाए थे।"
वह बोलती जा रही थीं, और श्रीकांत की शून्य आँखें उस तस्वीर पर टिकी थीं। सुशीला को कोई उम्मीद नहीं थी, पर वह अपने भाई-बहन के रिश्ते की उन अनमोल यादों को फिर से जीना चाहती थीं।
अचानक, कुछ ऐसा हुआ जिसकी सुशीला ने कल्पना भी नहीं की थी। श्रीकांत की उँगलियाँ काँपीं और उन्होंने धीरे से उस तस्वीर को छुआ। उनकी धुँधली आँखों में एक हल्की सी चमक आई, जैसे घने कोहरे में कोई दूर की रोशनी दिखी हो। उनके होंठ हिले और एक बहुत ही धीमा, टूटा हुआ शब्द निकला... "लड्डू..."
सुशीला के लिए यह एक शब्द पूरी कायनात के बराबर था। उनकी आँखों से आँसू झर-झर बहने लगे, पर ये दुख के नहीं, जीत के आँसू थे। उनके भाई ने उन्हें नहीं, उनकी याद को पहचाना था। एक पल के लिए ही सही, वह यादों के उस अँधेरे तहखाने से बाहर आ गए थे।
सुशीला ने अपने भाई का हाथ अपने हाथ में ले लिया। आज उन्हें समझ आया कि रक्षा का वचन सिर्फ़ भाई ही नहीं देता। कभी-कभी बहन को भी भाई की रक्षा करनी पड़ती है - दुनिया के दुखों से नहीं, बल्कि उसकी खोती हुई पहचान से, उसकी मिटती हुई यादों से।
उस दिन सुशीला ने अपने भाई की कलाई पर सिर्फ़ एक धागा नहीं बाँधा था, उन्होंने यादों की एक ऐसी राखी बाँधी थी, जिसने एक पल के लिए समय को भी हरा दिया था। यही उनका रक्षा का वचन था, यही उनके रिश्ते की मर्यादा थी और यही उनके रक्षा बंधन का असली अर्थ था। बाहर का शोरगुल अब भी वैसा ही था, पर उस खामोश कमरे में दो बूढ़े भाई-बहन ने स्नेह और स्मृति का सबसे पवित्र त्योहार मनाया था।
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