घर की मर्यादा
सविताबेन का घर, जिसे सब 'आंगन वाला घर' कहते थे, शहर के एक पुराने मोहल्ले में था। उस घर की दीवारें पुरानी थीं, पर नींव बहुत गहरी थी। और उस नींव का नाम था - मर्यादा। लेकिन यह मर्यादा नियमों या पाबंदियों की नहीं थी; यह समझ, सम्मान और खामोशी की मर्यादा थी।
सविताबेन के दो बेटे थे और दो बहुएँ। छोटा बेटा नीरज और उसकी पत्नी आरती शहर के सबसे महंगे स्कूल में पढ़ाते थे। वे घर में आधुनिक सोच और नई बहसों की हवा लाते थे। बड़ा बेटा, प्रकाश, शांत और गंभीर था, और उसकी पत्नी, राधिका, उस घर की आत्मा थी। वह कम बोलती थी, उसकी मुस्कान में एक ठहराव था और उसकी आँखों में एक अनकही गहराई।
राधिका को घर में आए दस साल हो गए थे, पर एक बात थी जो किसी ने कभी नहीं पूछी। हर साल, सावन के महीने के आखिरी मंगलवार को, राधिका एक मौन व्रत रखती थी। उस दिन वह किसी से बात नहीं करती थी, बस अपने काम में लगी रहती और शाम को छत पर जाकर घंटों आसमान को देखती रहती थी।
शुरू-शुरू में आरती को यह बहुत अजीब लगा। उसने एक बार अपनी सास, सविताबेन से पूछा भी, "माँजी, भाभी ऐसा क्यों करती हैं? कोई पूजा है क्या?"
सविताबेन ने बस मुस्कुराकर कहा, "यह उसकी श्रद्धा है, बेटी। हमें बस उसका सम्मान करना है।"
कोई और सवाल नहीं पूछा गया। यह उस घर की मर्यादा थी। किसी के निजी एकांत में दखल नहीं देना।
वक्त बीतता गया। एक साल, सावन का वही आखिरी मंगलवार आया। उस दिन घर में बहुत मेहमान थे। राधिका सुबह से ही चुपचाप रसोई में लगी थी। उसका चेहरा शांत था, पर उसकी आँखों में एक अजीब सी नमी थी, जिसे सिर्फ सविताबेन ने पढ़ा।
दोपहर में, जब सब मेहमान आँगन में बैठे बातें कर रहे थे, पोस्टमैन एक चिट्ठी देकर गया। वह राधिका के नाम थी। राधिका ने कांपते हाथों से चिट्ठी ली और बिना खोले उसे अपनी साड़ी के पल्लू में छिपा लिया।
आरती ने यह देख लिया। उसकी उत्सुकता बढ़ गई। शाम को उसने देखा कि राधिका छत पर अकेली बैठी है और उस चिट्ठी को बार-बार चूम रही है, और उसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं।
आरती से रहा नहीं गया। वह अपनी सास के पास गई। "माँजी, मैंने देखा... भाभी छत पर रो रही हैं। उनके पास एक चिट्ठी है। ज़रूर कोई बड़ी तकलीफ है। हमें पूछना चाहिए, उनकी मदद करनी चाहिए। ऐसे चुप रहना कहाँ की समझदारी है?"
सविताबेन ने आरती का हाथ पकड़ा और उसे अपने कमरे में ले गईं। उन्होंने अपना पुराना संदूक खोला और उसमें से एक छोटा सा मखमल का बटुआ निकाला। उसमें एक बच्चे के छोटे-छोटे चाँदी के कंगन रखे थे।
सविताबेन ने धीमी, कांपती आवाज़ में कहा, "यह राधिका के हैं। जब वह ब्याह कर आई थी, तो एक रात उसने मुझे यह दिए थे और कहा था, 'माँजी, इन्हें सँभालकर रख लीजिए।'"
आरती हैरान थी। "पर यह तो किसी बच्चे के हैं।"
सविताबेन की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने कहा, "मैंने उस रात उसकी आँखों में एक माँ का दर्द देखा था, जिसे उसने हमेशा के लिए अपने अंदर दफ़न कर लिया था। मैंने कभी नहीं पूछा कि ये कंगन किसके हैं, वह बच्चा कहाँ है, क्या हुआ था। पूछती तो शायद उसके ज़ख्म को कुरेद देती। कुछ दर्द ऐसे होते हैं जिन्हें इंसान अकेले ही सहना चाहता है।"
वह रुकीं, फिर बोलीं, "हर साल सावन के उस मंगलवार को वह उसी अनकहे दर्द को जीती है। वह चिट्ठी शायद उसी दुनिया से आती है, जो उसकी अपनी है, बिल्कुल निजी। घर की मर्यादा सिर्फ़ ज़ोर से बोलने या हँसने पर रोक नहीं लगाती, बेटी। घर की असली मर्यादा तो किसी के मौन का सम्मान करने में है। किसी के आँसुओं को बिना वजह जाने, बस उसे बह जाने देने में है। किसी को यह भरोसा दिलाने में है कि तुम्हारा अतीत चाहे जो भी हो, यह घर तुम्हारा है और हमेशा रहेगा।"
आरती की आँखें भर आईं। उसे आज 'घर की मर्यादा' का असली मतलब समझ आया था। यह किसी को बाँधने वाली ज़ंजीर नहीं, बल्कि किसी की टूटी हुई आत्मा को सहेजने वाला एक सुरक्षित आँचल था।
वह चुपचाप छत पर गई। राधिका अभी भी वहीं बैठी थी, उसकी पीठ आरती की तरफ थी। आरती ने कुछ नहीं कहा। वह बस चुपचाप उसके पीछे थोड़ी दूरी पर बैठ गई। उसने राधिका को यह एहसास दिलाया कि वह अकेली नहीं है, पर उसके एकांत का पूरा सम्मान है।
कुछ देर बाद, राधिका ने अपने आँसू पोंछे और मुड़कर आरती को देखा। उसकी आँखों में सवाल नहीं, बल्कि एक गहरी कृतज्ञता थी। आज पहली बार, उसके मौन को किसी ने साझा किया था, तोड़ा नहीं था।
उस शाम, उस घर की छत पर दो औरतें खामोशी में एक-दूसरे के साथ बैठी थीं, और उस खामोशी में ही उस 'घर की मर्यादा' की सबसे पवित्र आरती हो रही थी।
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