दादी का स्नेह

 

दादी का स्नेह

दस साल का विवेक उस दिन बहुत गुस्से में था। क्रिकेट खेलते हुए उससे पड़ोसी शर्मा अंकल के घर की खिड़की का काँच टूट गया था और माँ ने उसे खूब डाँटा था। गुस्से में पैर पटकता हुआ विवेक सीधा दादी के कमरे में घुस गया। वह कमरा उसकी शरणस्थली थी।

दादी का कमरा घर के बाकी हिस्सों से बिल्कुल अलग था। वहाँ धूप-बत्ती की एक मंद-मंद सुगंध हमेशा तैरती रहती। एक कोने में रखे पुराने संदूक और दीवार पर टँगी राम-सीता की तस्वीर उस कमरे को एक शांत और पवित्र स्थान बनाते थे।

दादी उस समय अपनी माला फेर रही थीं। विवेक को देखकर उन्होंने माला एक तरफ रखी और अपनी झुर्रियों वाली आँखों से मुस्कुराते हुए पूछा, "क्या हुआ मेरे राजा बेटे को? आज इतना गुस्सा क्यों है?"

विवेक ने मुँह फुलाकर कहा, "माँ ने मुझे बहुत डाँटा। बस एक काँच ही तो टूटा था।"

दादी ने उसे डाँटने या समझाने की बजाय अपने पास बिठाया और उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगीं। उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस चुपचाप उसके बालों को सहलाती रहीं। उनके स्पर्श में एक ऐसा जादू था कि विवेक का सारा गुस्सा धीरे-धीरे पिघलने लगा।

थोड़ी देर बाद, दादी उठीं और अपने पुराने स्टील के डिब्बे से एक बेसन का लड्डू निकालकर उसके हाथ में थमा दिया। "ले, मुँह मीठा कर। गुस्सा शांत हो जाएगा।"

विवेक के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। जब भी माँ किसी बात पर उसे डाँटतीं, दादी का कमरा और उनका स्नेह उसके लिए मरहम का काम करते थे। माँ का प्यार अनुशासन और नियमों में बँधा था, लेकिन दादी का स्नेह... वह तो बस निर्मल गंगा की धारा की तरह था, जो बिना किसी शर्त के बहता रहता था।

एक बार विवेक बहुत बीमार पड़ गया। उसे तेज़ बुखार था और वह बिस्तर से उठ भी नहीं पा रहा था। माँ दिन-रात उसकी सेवा में लगी थीं। कभी दवा देना, कभी डॉक्टर को बुलाना, कभी उसके लिए दलिया बनाना। माँ की आँखों में चिंता की लकीरें साफ़ दिख रही थीं।

लेकिन उस बीमारी में विवेक ने दादी के स्नेह का एक नया ही रूप देखा।

माँ जब थककर सो जातीं, तो दादी चुपचाप उसके सिरहाने आकर बैठ जातीं। वे रात-रात भर जागकर उसके माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ रखतीं। उनके झुर्रियों वाले हाथ जब उसके तपते हुए माथे को छूते, तो उसे दवा से ज़्यादा आराम मिलता। वे कोई लोरी नहीं गाती थीं, कोई कहानी नहीं सुनाती थीं, बस चुपचाप बैठी रहतीं। उनकी शांत उपस्थिति ही विवेक के लिए सबसे बड़ी ताकत थी।

एक रात, बुखार की बेहोशी में विवेक की आँखें थोड़ी देर के लिए खुलीं। उसने देखा, दादी कुर्सी पर बैठी-बैठी झपकी ले रही थीं, पर उनका एक हाथ अब भी उसके माथे पर रखी पट्टी पर टिका हुआ था, ताकि वह गिरे नहीं। उस आधे-अधूरे उजाले में विवेक को अपनी दादी किसी देवी की तरह लगीं।

उसने महसूस किया कि माँ का प्यार एक चिंता भरा समंदर है, लेकिन दादी का स्नेह एक शांत, गहरा और स्थिर सरोवर है, जो हर हाल में सुकून देता है।

जब विवेक ठीक हुआ, तो सबसे पहले वह चलकर दादी के पास गया। उसने कुछ नहीं कहा, बस जाकर पीछे से उन्हें कसकर गले लगा लिया। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे।

दादी ने मुड़कर उसके आँसू पोंछे और मुस्कुराईं, जैसे वह सब कुछ समझ गई हों।

उस दिन विवेक को समझ आया कि स्नेह जताने के लिए शब्दों की ज़रूरत नहीं होती। दादी का स्नेह उनके स्पर्श में था, उनकी खामोशी में था, उनकी आँखों की चमक में था और उस लड्डू की मिठास में था, जो वह हमेशा अपने राजा बेटे के लिए बचाकर रखती थीं। यह एक ऐसा अनमोल खजाना था, जो किसी शर्त या उम्मीद का मोहताज नहीं था। वह तो बस एक आशीर्वाद था, जो चुपचाप बरसता रहता था।

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