बच्ची की मासूमियत

 बच्ची की मासूमियत


उस दिन शाम को बाज़ार से लौटते हुए मैं अपनी पाँच साल की बेटी, मिष्टी का हाथ थामे जल्दी-जल्दी घर की ओर बढ़ रही थी। दिन भर की थकान और घर जाकर खाना बनाने की चिंता मेरे दिमाग पर हावी थी। तभी मिष्टी अचानक रुक गई।

"क्या हुआ बेटा? चलो, देर हो रही है," मैंने थोड़ा खींचते हुए कहा।

उसकी नज़रें सड़क के किनारे, एक बूढ़े मोची पर टिकी थीं, जो अपनी छोटी सी, फटी-पुरानी दुकान समेट रहा था। उसके चेहरे पर गहरी उदासी थी, जैसे आज उसकी कमाई बिल्कुल नहीं हुई हो। लोग उसके पास से गुज़र रहे थे, लेकिन कोई उसे देख नहीं रहा था, ठीक मेरी तरह।

मिष्टी ने अपनी तोतली आवाज़ में पूछा, "मम्मा, वो दादाजी रो क्यों रहे हैं?"

मैंने नज़र घुमाई और कहा, "नहीं बेटा, वो रो नहीं रहे हैं। वो बस थके हुए हैं। चलो।" मैंने फिर से उसका हाथ खींचना चाहा।

लेकिन मिष्टी अपनी जगह से हिली नहीं। उसने मेरा हाथ छुड़ाया और धीरे-धीरे उस मोची के पास चली गई। मैं घबरा गई। मैं उसे रोकने के लिए आगे बढ़ी, लेकिन तब तक वो उस बूढ़े आदमी के सामने खड़ी हो चुकी थी।

मोची ने भी चौंककर अपनी झुकी हुई नज़रें ऊपर उठाईं। एक छोटी सी बच्ची उसे देख रही थी।

मिष्टी ने अपनी जेब में हाथ डाला और अपना सबसे कीमती खज़ाना निकाला - एक चॉकलेट, जो मैंने उसे थोड़ी देर पहले ही दिलाई थी। उसने वो चॉकलेट उस बूढ़े आदमी की तरफ़ बढ़ाई और बोली, "दादाजी, आप ये ले लो। मम्मा कहती हैं, जब मन उदास होता है तो मीठा खाने से अच्छा लगता है।"

उस बूढ़े आदमी के मुरझाए हुए चेहरे पर एक पल के लिए हैरानी आई। फिर उसकी आँखों के कोने भीग गए। उसने काँपते हुए हाथों से वो चॉकलेट नहीं ली, बल्कि मिष्टी के सिर पर हाथ फेर दिया। उसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान तैर गई थी, शायद महीनों बाद।

मैं, जो कुछ क़दम दूर खड़ी यह सब देख रही थी, वहीं जम सी गई। मेरी सारी थकान, मेरी सारी जल्दबाज़ी, मेरी सारी चिंताएँ जैसे एक पल में गायब हो गईं। हम बड़े लोग हमेशा बड़ी-बड़ी समस्याओं और बड़े-बड़े समाधानों के बारे में सोचते हैं। हम भूल जाते हैं कि कभी-कभी किसी की उदासी मिटाने के लिए सिर्फ़ एक पल की तवज्जो और थोड़ी सी मिठास ही काफ़ी होती है।

उस बूढ़े आदमी ने मिष्टी से चॉकलेट नहीं ली, पर उसे दुआएँ ज़रूर दीं। मैंने आगे बढ़कर अपनी चप्पल ठीक करवाने के बहाने उसे कुछ पैसे दिए। उसने मना किया, पर मैंने ज़बरदस्ती रख दिए।

घर लौटते हुए मिष्टी मेरे हाथ में अपना हाथ डाले उछल-कूद रही थी। वो शायद भूल भी चुकी थी कि उसने क्या किया था। लेकिन मैं नहीं भूली थी।

उस दिन मेरी नन्ही सी बेटी ने मुझे सिखाया था कि मासूमियत दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है। यह वो रोशनी है जो बिना किसी भेदभाव के हर अंधेरे कोने तक पहुँच सकती है। यह वो दौलत है, जिसे हम बड़े होकर अक्सर खो देते हैं।

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