दादा की सीख
अरुण, शहर की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में पला-बढ़ा एक नौजवान था। उसके लिए सफलता का मतलब था - तेज़ी से आगे बढ़ना, कम समय में ज़्यादा हासिल करना। उसे धैर्य शब्द से ही चिढ़ थी।
गर्मियों की छुट्टियों में वह बेमन से अपने गाँव आया हुआ था। उसे गाँव की धीमी रफ़्तार वाली ज़िंदगी बड़ी उबाऊ लगती थी। उसके दादाजी, रामप्रसाद जी, अस्सी के हो चले थे, पर आज भी उनकी दिनचर्या में वही पुराना ठहराव और अनुशासन था।
एक दोपहर अरुण ने देखा कि दादाजी घर के पीछे खाली पड़ी ज़मीन में एक आम का छोटा सा पौधा लगा रहे हैं। वह उनके पास जाकर थोड़ा मज़ाक के अंदाज़ में बोला, "दादाजी, यह क्या कर रहे हैं? इस पौधे को पेड़ बनने और फल देने में तो दस-बारह साल लग जाएँगे। तब तक आप..." वह कहते-कहते रुक गया।
दादाजी ने उसकी अनकही बात समझ ली। वे मुस्कुराए और बोले, "शायद मैं इसके फल खाने के लिए न रहूँ, बेटा।"
"तो फिर यह मेहनत क्यों?" अरुण ने हैरानी से पूछा।
दादाजी ने पौधे की जड़ में प्यार से मिट्टी डालते हुए कहा, "बेटा, मैंने अपने जीवन में जितने भी मीठे आम खाए हैं, वे सब मेरे दादा या परदादा के लगाए हुए पेड़ों के थे। उन्होंने यह सोचकर पेड़ नहीं लगाए थे कि फल सिर्फ़ वही खाएँगे। उन्होंने आने वाली पीढ़ियों के लिए लगाए थे। मैं भी अपना कर्ज चुका रहा हूँ। हर काम सिर्फ़ अपने फ़ायदे के लिए नहीं किया जाता, कुछ काम आने वालों के लिए भी किए जाते हैं।"
अरुण को यह बात कुछ ख़ास समझ नहीं आई। उसे यह सब पुरानी बातें लगीं।
कुछ दिनों बाद, अरुण ने देखा कि गाँव में एक नया कुआँ खोदा जा रहा है। उसने सोचा कि शहर की तरह यहाँ भी बोरवेल क्यों नहीं खुदवा लेते, जिसमें एक-दो दिन लगते हैं। कुआँ खोदने में तो महीनों लग जाएँगे।
उसने अपनी यह बात दादाजी को बताई। दादाजी उसे कुएँ के पास ले गए। वहाँ गाँव के लोग मिलकर खुदाई कर रहे थे। कोई मिट्टी निकाल रहा था, तो कोई ईंटें लगा रहा था।
दादाजी ने समझाया, "बेटा, बोरवेल पानी तो दे देगा, पर वह ज़मीन का पानी तेज़ी से खींचकर उसे सुखा भी देगा। कुआँ धीरे-धीरे बनता है, यह ज़मीन के जल स्तर को बनाए रखता है। और सबसे बड़ी बात, देखो... इसे बनाने में पूरा गाँव एक साथ काम कर रहा है। यह सिर्फ़ पानी का स्रोत नहीं, बल्कि एकता का प्रतीक भी बन रहा है। जो चीज़ सब्र और मेहनत से बनती है, वह ज़्यादा समय तक साथ निभाती है।"
अरुण चुपचाप सुनता रहा।
छुट्टियाँ खत्म होने पर जब वह शहर लौट रहा था, तो दादाजी ने उसे अपने हाथ से लिखी एक छोटी सी डायरी दी। उसमें कोई लंबी-चौड़ी बातें नहीं थीं, बस खेती-बाड़ी और प्रकृति से जुड़े छोटे-छोटे नियम लिखे थे। एक पन्ने पर लिखा था - "फसल बोने और काटने के बीच के समय को 'इंतज़ार' नहीं, 'देखभाल' कहते हैं। जीवन भी ऐसा ही है।"
यह पंक्ति अरुण के दिल में उतर गई। शहर लौटकर उसने अपने काम करने का तरीका बदल दिया। अब वह हर प्रोजेक्ट को सिर्फ़ पूरा करने की जल्दी में नहीं रहता था, बल्कि उसे धैर्य और लगन से सँवारता था। उसने अपने सहकर्मियों की मदद करना और टीम के साथ मिलकर काम करना सीखा।
सालों बाद, जब अरुण एक बड़ी कंपनी में ऊँचे पद पर था और एक सफल इंसान बन चुका था, तब वह फिर अपने गाँव लौटा। दादाजी अब नहीं रहे थे, लेकिन घर के पीछे वह छोटा सा आम का पौधा अब एक लहलहाता हुआ पेड़ बन चुका था और उस पर मीठे-मीठे फल लगे थे।
अरुण ने उस पेड़ के नीचे बैठकर एक आम तोड़ा और उसे खाते हुए उसकी आँखों से आँसू बह निकले। आज उसे दादाजी की हर बात का मतलब समझ आ रहा था।
सफलता सिर्फ़ मंज़िल तक पहुँचने का नाम नहीं है, बल्कि उस सफ़र को धैर्य, मेहनत और दूसरों की भलाई की सोच के साथ तय करने का नाम है। उसे दादा की सबसे बड़ी सीख मिल चुकी थी - जीवन में कुछ भी स्थायी पाने के लिए उसे 'उगाना' पड़ता है, सिर्फ़ 'खरीदना' नहीं।
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