अम्मा की चाहत

  अम्मा की चाहत


बिलासपुर गाँव की तंग गलियों से निकलकर आसमान छूने की चाह केदार को मुंबई ले आई थी। उसके पिता एक साधारण किसान थे, और केदार ने बचपन से गरीबी और सीमित साधनों को बहुत करीब से देखा था। उसकी एक ही चाह थी - इतना पैसा कमाना कि दुनिया की हर चीज़ उसके कदमों में हो।
उसकी माँ, शारदा जी, एक सीधी-सादी महिला थीं। उनकी दुनिया अपने बेटे के आस-पास ही घूमती थी। जब केदार शहर जा रहा था, तो माँ ने उसकी आरती उतारी और आँखों में आँसू लिए बस इतना कहा, "अपना ध्यान रखना, बेटा।"
केदार ने अपनी पूरी ताकत अपनी चाह को हकीकत में बदलने में लगा दी। दिन को रात और रात को दिन बना दिया। वह छोटी-मोटी नौकरियों से शुरुआत करके एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर बन गया। उसने एक शानदार अपार्टमेंट खरीदा, महंगी गाड़ी ली और अपने माता-पिता को हर महीने अच्छा खासा पैसा भेजने लगा। उसे लगता था कि वह अपनी सबसे बड़ी चाह पूरी कर रहा है।
हर रविवार वह माँ को फोन करता।
"कैसा है लल्ला?" माँ की आवाज़ में हमेशा एक जैसी ममता होती।
"ठीक हूँ माँ, आप कैसी हो? पैसे मिल गए थे?" केदार पूछता।
"हाँ बेटा, मिल गए थे। तू क्यों इतनी चिंता करता है पैसों की। बस ये बता, गाँव कब आएगा?"
यह एक ऐसा सवाल था जो हर फोन कॉल का हिस्सा होता था। और हर बार केदार का एक ही जवाब होता, "माँ, अभी काम बहुत है। प्रमोशन होने वाला है। एक बड़ा प्रोजेक्ट मिला है। अगली बार पक्का आऊँगा।"
साल बीतते गए। केदार की तरक्की होती गई, उसका बैंक बैलेंस बढ़ता गया, लेकिन गाँव के चक्कर कम होते गए। अब वह पैसे के साथ-साथ महंगे तोहफे भी भेजता - माँ के लिए साड़ी, पिता के लिए शॉल। पर हर बार फोन पर माँ का वही सवाल उसकी सारी उपलब्धियों पर भारी पड़ जाता - "कब आएगा?"
केदार को कभी-कभी गुस्सा आता। वह सोचता, "माँ समझती क्यों नहीं? मैं यह सब किसके लिए कर रहा हूँ? उन्हीं की खुशी के लिए तो!" वह यह नहीं समझ पा रहा था कि उसकी और माँ की 'चाह' में ज़मीन-आसमान का फ़र्क था। केदार की चाह चीज़ों में थी, और माँ की चाह अपने बेटे में।
एक दिन दिवाली थी। केदार ने अपने आलीशान घर को महंगी रोशनियों से सजाया था। मेज पर मिठाइयों और मेवों के डिब्बे भरे पड़े थे। लेकिन उस बड़े से घर में वह बिल्कुल अकेला था। बाहर पटाखों का शोर था, लोगों के हँसने-बोलने की आवाज़ें थीं, पर उसके घर के अंदर एक अजीब सा खोखलापन था।
उसने माँ को फोन किया। "हैप्पी दिवाली माँ!"
"खुश रह बेटा," माँ की आवाज़ थोड़ी कांप रही थी। "बहुत याद आ रही है तेरी... इस दिवाली भी नहीं आया?"
उस एक सवाल ने केदार के अंदर कुछ तोड़ दिया। उसने फोन रखा और चारों ओर देखा। महंगा सोफा, बड़ी सी टीवी, चमकदार झूमर... सब कुछ बेजान और ठंडा लग रहा था। उसे अचानक अहसास हुआ कि उसने जिस चाह के पीछे अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी, वह उसे खुशी तो दे ही नहीं पाई। असली दौलत तो इन बेजान चीज़ों में नहीं, बल्कि उन रिश्तों में थी जिन्हें वह पीछे छोड़ आया था।
उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसे अपनी चाह पर शर्मिंदगी महसूस हुई। उसे माँ की चाह की गहराई समझ में आई। माँ को उसकी दौलत नहीं, उसका वक्त चाहिए था। उसे उसके तोहफे नहीं, उसका साथ चाहिए था।
अगले ही पल, केदार ने एक छोटा सा बैग पैक किया, गाड़ी की चाबी उठाई और पार्किंग की ओर भागा। उसने किसी को कुछ नहीं बताया। रात भर गाड़ी चलाकर जब वह सुबह अपने गाँव के कच्चे घर के दरवाज़े पर पहुँचा, तो सूरज निकल रहा था।
आंगन में उसकी माँ बैठी थीं, उनकी आँखें रास्ते पर ही टिकी थीं, जैसे रोज़ रहती थीं। केदार को देखते ही उनकी सूनी आँखों में एक चमक आ गई।
केदार दौड़कर माँ के पैरों में गिर पड़ा। उसने कुछ नहीं कहा, बस रोता रहा।
माँ ने उसे उठाकर सीने से लगा लिया। उनकी झुर्रियों वाली उँगलियाँ उसके बालों को सहला रही थीं। "आ गया मेरा लल्ला..."
उस दिन केदार को समझ आया कि दुनिया की सबसे बड़ी 'चाह' किसी चीज़ को पाने की नहीं, बल्कि किसी अपने के पास होने की होती है। माँ की उस एक चाह के सामने, उसकी हज़ार चाहतें बौनी पड़ गई थीं। उस कच्चे आंगन में, माँ के आँचल की छाँव में बैठकर उसे जो सुकून मिला, वह उसे दुनिया की कोई दौलत नहीं दे सकती थी।

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