स्थान देवता
देवगढ़, जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर था, देवताओं का गढ़ माना जाता था। यह पहाड़ियों की गोद में बसा एक शांत, हरा-भरा गाँव था। गाँव के ठीक बाहर, एक विशाल वट वृक्ष सदियों से खड़ा था। उसकी जटाएँ धरती में समाकर नए तनों का रूप ले चुकी थीं, जिससे वह एक छोटा-मोटा जंगल ही प्रतीत होता था। गाँव वाले उसे साधारण पेड़ नहीं, बल्कि अपने 'स्थान देवता' का निवास मानते थे। उनका मानना था कि 'वनराज बाबा' इसी वृक्ष में वास करते हैं और पूरे गाँव की रक्षा करते हैं।
इसी गाँव का लड़का था अर्जुन, जो अब शहर में एक बड़ा इंजीनियर बन चुका था। वह तर्क और विज्ञान में विश्वास रखता था और गाँव की इन मान्यताओं को अंधविश्वास से ज़्यादा कुछ नहीं समझता था।
एक दिन अर्जुन गाँव लौटा, लेकिन इस बार छुट्टियों पर नहीं, बल्कि एक सरकारी परियोजना के प्रमुख के रूप में। सरकार ने विकास के नाम पर एक नया राजमार्ग बनाने का फैसला किया था, और दुर्भाग्य से, उसका नक्शा ठीक उसी प्राचीन वट वृक्ष के बीच से होकर गुज़रता था।
जैसे ही यह खबर गाँव में फैली, हाहाकार मच गया। गाँव के मुखिया, रामभरोसे काका और अन्य बुजुर्ग अर्जुन के पास पहुँचे।
"बेटा अर्जुन, यह तुम क्या अनर्थ करने जा रहे हो?" काका ने चिंता से कहा। "जिस पेड़ ने हमारे पुरखों को छाँव दी, जहाँ हमारे स्थान देवता का वास है, उसे कैसे काट सकते हो?"
अर्जुन ने उन्हें समझाने की कोशिश की, "काका, आप लोग समझते क्यों नहीं? यह सड़क गाँव में तरक्की लाएगी। स्कूल, अस्पताल, बाज़ार सब पास आ जाएँगे। एक पेड़ के लिए हम पूरे गाँव का विकास नहीं रोक सकते।"
एक बुज़ुर्ग ने कहा, "यह सिर्फ़ पेड़ नहीं, हमारी आस्था है, हमारे रक्षक हैं। अगर वनराज बाबा रूठ गए, तो गाँव पर विपदा आ जाएगी।"
अर्जुन हँस पड़ा। "कैसी बातें करते हैं आप लोग? यह सब मन का वहम है।"
बहस बढ़ती गई, पर कोई नतीजा नहीं निकला। अर्जुन ने काम शुरू करने का आदेश दे दिया।
पहले ही दिन अजीब घटना घटी। पेड़ के पास पहुँचते ही सबसे बड़ी जेसीबी मशीन खराब हो गई। उसे ठीक करने में पूरा दिन लग गया। अगले दिन, जब एक मज़दूर ने पेड़ की एक छोटी शाखा पर कुल्हाड़ी चलाई, तो अचानक मधुमक्खियों के एक विशाल झुंड ने उन पर हमला कर दिया। कई मज़दूर घायल हो गए।
अर्जुन ने इसे महज़ एक संयोग माना।
तीसरे दिन, आसमान बिल्कुल साफ़ था, लेकिन जैसे ही मज़दूर पेड़ के पास पहुँचे, काले बादल घिर आए और ऐसी मूसलाधार बारिश हुई कि चारों तरफ पानी भर गया। काम फिर रुक गया।
गाँव वाले इसे स्थान देवता का प्रकोप मान रहे थे, लेकिन अर्जुन अपनी ज़िद पर अड़ा था। उसका तर्कवादी दिमाग इन घटनाओं को प्रकृति का संयोग मानकर खारिज कर रहा था।
उस रात, अर्जुन को नींद नहीं आई। उसे अपनी दादी की कही बातें याद आने लगीं। कैसे वह बचपन में उसे उसी पेड़ के नीचे ले जाकर कहती थीं, "इस पेड़ से कुछ माँगना नहीं, बस इसका आदर करना। यह देवता है, यह सुनता है, महसूस करता है।"
अगली सुबह, गुस्से और झुंझलाहट में, अर्जुन ने फैसला किया कि वह खुद इस अंधविश्वास को तोड़ेगा। वह एक छोटी क्रेन लेकर खुद ही पेड़ की ओर चल पड़ा। गाँव वाले उसे रोकने के लिए जमा हो गए, वे हाथ जोड़कर विनती कर रहे थे।
"हट जाओ सब!" अर्जुन चिल्लाया। "आज मैं साबित कर दूँगा कि यहाँ कोई देवता नहीं है।"
उसने क्रेन का पंजा पेड़ की एक मोटी डाल की ओर बढ़ाया। जैसे ही धातु ने पेड़ की छाल को छुआ, एक अजीब सी शांति छा गई। हवा रुक गई, पक्षियों का चहचहाना बंद हो गया। फिर, एक गहरी, गूंजती हुई सरसराहट उस पूरे वट वृक्ष से उठी, मानो कोई गहरी नींद से जाग रहा हो।
अचानक, एक तेज़ हवा का झोंका आया, जिससे पेड़ की सबसे ऊँची शाखा से एक सूखा, भारी फल ठीक अर्जुन के सामने ज़मीन पर गिरा। वह बाल-बाल बचा था। उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। उसने ऊपर देखा। उसे लगा जैसे पेड़ की हज़ारों पत्तियाँ उसे घूर रही हैं। उसे उस पेड़ में सिर्फ़ लकड़ी और पत्ते नहीं, बल्कि एक जीवंत, शक्तिशाली और प्राचीन चेतना का एहसास हुआ। उसे लगा जैसे वह पेड़ नहीं, बल्कि गाँव की धड़कती हुई आत्मा है, जो सदियों से सबका ध्यान रख रही है।
उसका विज्ञान, उसका तर्क, सब उस एक पल के अनुभव के सामने बौने पड़ गए। उसके हाथ काँपने लगे और उसने तुरंत क्रेन बंद कर दी।
वह नीचे उतरा और कांपते कदमों से रामभरोसे काका के पास गया। उसने हाथ जोड़ लिए, "काका, मुझसे भूल हो गई। आप लोग सही थे।"
उस दिन के बाद, अर्जुन ने अपनी सारी इंजीनियरिंग उस परियोजना को बदलने में लगा दी। उसने सरकार को एक नया प्रस्ताव भेजा, जिसमें सड़क को पेड़ के चारों ओर से घुमाकर ले जाने का सुझाव था। इसमें खर्च और समय दोनों ज़्यादा थे, लेकिन अर्जुन ने इसकी पैरवी की।
आखिरकार, नया नक्शा मंजूर हो गया। सड़क बनी, तरक्की भी आई, लेकिन गाँव के रक्षक, स्थान देवता का घर सुरक्षित रहा।
अर्जुन ने उस दिन सीखा कि हर चीज़ को विज्ञान और तर्क के तराज़ू पर नहीं तौला जा सकता। कुछ आस्थाएँ सदियों के अनुभव और प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव से जन्म लेती हैं। स्थान देवता कोई मूर्ति या कल्पना नहीं, बल्कि उस स्थान की आत्मा, उसका पर्यावरण और वहाँ के लोगों की सामूहिक आस्था का ही एक रूप है, जिसका सम्मान करना ही सच्ची प्रगति है।
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