दादी की रसोई

 

दादी की रसोई

रोहन, एक बड़े शहर में रहने वाला नौजवान था। उसकी रसोई किसी महंगी पत्रिका के पन्ने जैसी थी - चमकदार, साफ़-सुथरी और हर आधुनिक उपकरण से लैस। लेकिन उस रसोई में बने खाने में वो बात नहीं थी, वो स्वाद नहीं था जो उसकी आत्मा को छू सके। अक्सर वह ऑनलाइन खाना मंगवा लेता या महंगे रेस्टोरेंट में खा लेता, पर एक खालीपन हमेशा बना रहता।

एक दिन ऑफिस के तनाव और अकेलेपन से ऊबकर उसे अपने गाँव की याद आई, और गाँव की याद के साथ ही महक उठी 'दादी की रसोई'। वह रसोई, जो आज की आधुनिक रसोइयों की तरह चमकदार तो नहीं थी, पर उसमें एक जादू था।

अगले ही हफ्ते रोहन छुट्टियाँ लेकर अपने गाँव पहुँच गया। घर में घुसते ही उसकी नज़रें दादी को ढूँढ़ने लगीं। दादी अपनी दुनिया में मगन थीं - अपनी रसोई में।

रोहन दबे पाँव रसोई के दरवाज़े पर जाकर खड़ा हो गया। वो रसोई किसी महल से कम नहीं थी। एक कोने में मिट्टी का चूल्हा जल रहा था, जिसकी धीमी आँच पर दाल पक रही थी। दीवार पर बनी अलमारियों में पीतल और तांबे के बर्तन अपनी पुरानी चमक के साथ सजे थे। एक तरफ अचार और मुरब्बों के मर्तबान रखे थे, जिन पर दादी के हाथ से लिखी पर्चियाँ लगी थीं। हवा में भुने जीरे, हींग और घी की मिली-जुली मनमोहक सुगंध तैर रही थी।

दादी वहाँ एक छोटी सी चौकी पर बैठी थीं, चेहरे पर सुकून और ममतामयी मुस्कान लिए। वह सिलबट्टे पर चटनी पीस रही थीं। हर हरकत में एक लय थी, एक ठहराव था। वह सिर्फ खाना नहीं बना रही थीं, बल्कि अपने प्यार और अनुभव को मसालों के साथ घोल रही थीं।

"आ गया मेरा लल्ला," दादी ने बिना देखे ही कहा, जैसे उन्हें रोहन की मौजूदगी का एहसास हो गया हो।

रोहन मुस्कुराता हुआ अंदर आया और दादी के पास बैठ गया। "दादी, आपके हाथ के खाने में ऐसा क्या जादू है, जो कहीं और नहीं मिलता?"

दादी ने मुस्कुराते हुए कहा, "बेटा, कोई जादू नहीं है। ये तो बस इस मिट्टी के चूल्हे की सोंधी खुशबू, इन पुराने बर्तनों का दुलार और मेरा थोड़ा सा प्यार है। शहर में तुम लोग नाप-तौलकर मसाले डालते हो, मैं तो बस अंदाज़े से अपनापन मिला देती हूँ।"

उस दिन रोहन ने चूल्हे पर बनी मोटी-मोटी रोटियाँ, अरहर की दाल और वो सिलबट्टे वाली चटनी खाई। हर निवाले के साथ उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह सिर्फ खाना नहीं, बल्कि दादी का स्नेह और आशीर्वाद खा रहा हो। वो साधारण सा खाना उसे दुनिया के किसी भी महंगे व्यंजन से ज़्यादा स्वादिष्ट लगा।

कुछ दिन गाँव में रहकर रोहन ने देखा कि दादी की रसोई सिर्फ खाना बनाने की जगह नहीं थी। वो घर का दिल थी। वहाँ पड़ोसी चाची मसाले लेने आतीं, तो अपने घर की बातें भी बतातीं। बच्चे खेलते-खेलते आते और दादी के हाथ से गुड़ की डली लेकर भाग जाते। वो रसोई परिवार को जोड़ने का एक केंद्र थी।

जब रोहन शहर वापस लौटने लगा, तो दादी ने उसके लिए ढेर सारे लड्डू और मठरी बाँध दी। रोहन ने कहा, "दादी, मुझे भी अपनी एक रेसिपी दे दो।"

दादी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "सबसे बड़ी रेसिपी है - दिल से बनाना। जब किसी के लिए प्यार से खाना बनाओगे, तो स्वाद अपने आप आ जाएगा।"

जब वह शहर लौटा, तो वह अपने साथ सिर्फ़ गाँव की यादें और लड्डू ही नहीं, बल्कि दादी की रसोई का वो अनमोल सबक भी लाया था। अब उसकी अपनी आधुनिक रसोई उसे बेजान नहीं लगती थी। उसने दादी की तरह दिल से खाना बनाना शुरू किया। अब जब भी वह खाना बनाता, उसे अपनी रसोई में दादी की रसोई की वही महक, वही प्यार और वही अपनापन महसूस होता।

उसने समझ लिया था कि असली स्वाद मसालों में नहीं, बनाने वाले के दिल और उसकी भावनाओं में छिपा होता है।

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