हमारा गाँव

 

हमारा गाँव

मेरा गाँव, रामपुर, कोई नक्शे पर मिलने वाला बड़ा शहर नहीं था। यहाँ ऊँची इमारतें नहीं, बल्कि आम के बाग थे। यहाँ गाड़ियों का शोर नहीं, बल्कि सुबह-सुबह चिड़ियों का चहचहाना और मंदिर से आती घंटी की आवाज़ थी। और इस गाँव की आत्मा बसती थी उस पुराने पीपल के पेड़ के नीचे बनी चौपाल पर, जहाँ मेरे दादाजी अपने हमउम्र दोस्तों के साथ बैठा करते थे।

मैं, रोहन, उसी गाँव में पला-बढ़ा था। लेकिन मेरे सपनों में गाँव की पगडंडियाँ नहीं, बल्कि शहरों की चौड़ी सड़कें थीं। मुझे लगता था कि असली ज़िंदगी तो शहर में है, जहाँ मौके हैं, पैसा है, और एक पहचान बनाने का अवसर है।

मैं अक्सर दादाजी से कहता, "दादाजी, क्या रखा है इस मिट्टी और धूल में? यहाँ तो भविष्य ही नहीं है।"

दादाजी मुस्कुराते हुए अपनी सफ़ेद मूंछों पर ताव देते और कहते, "बेटा, भविष्य इमारतों में नहीं, जड़ों में होता है। और हमारी जड़ें इसी मिट्टी में हैं।"

पर मुझे उनकी बातें दकियानूसी लगती थीं। बारहवीं पास करते ही मैं दिल्ली चला गया। एक अच्छी नौकरी, चकाचौंध से भरी ज़िंदगी, और दोस्तों के साथ पार्टियाँ। शुरू में सब कुछ एक सपने जैसा लगा। मैं अपने गाँव को, वहाँ की धीमी ज़िंदगी को भूल सा गया था। मैं अपने माता-पिता को पैसे तो भेजता था, पर उनसे बात करने का समय कम ही मिलता था।

शहर की तेज़ रफ़्तार में मैं भी दौड़ रहा था। हर कोई यहाँ एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में था। यहाँ हज़ारों की भीड़ में भी इंसान अकेला था। बीमार पड़ने पर पड़ोसी को पता तक नहीं चलता था। जब कभी मैं अपनी बालकनी से बाहर देखता, तो मुझे सिर्फ कंक्रीट का जंगल नज़र आता, वो हरे-भरे खेत नहीं जो आँखों को सुकून देते थे। मुझे माँ के हाथ की बनी रोटी और छाछ की याद आने लगी। मुझे दादाजी की वो बातें याद आने लगीं।

एक दिन, माँ का फ़ोन आया। उनकी आवाज़ में चिंता थी। "बेटा, तेरे दादाजी की तबीयत ठीक नहीं है। बस दिन भर तुझे ही याद करते रहते हैं।"

मैं सब कुछ छोड़कर अगली ही ट्रेन से गाँव के लिए निकल पड़ा।

जब मैं कई सालों बाद अपने गाँव की सीमा में दाखिल हुआ, तो एक अजीब सा सुकून महसूस हुआ। ट्रेन की खिड़की से आती हवा में मिट्टी की वही सोंधी खुशबू थी। स्टेशन पर उतरते ही मुझे लगा जैसे मैं अपनी माँ की गोद में लौट आया हूँ।

घर पहुँचा तो देखा, दादाजी चारपाई पर लेटे हुए थे, कमज़ोर लेकिन उनकी आँखों में मुझे देखकर एक चमक आ गई। मैं उनके पास बैठ गया और उनका हाथ पकड़ लिया। उन्होंने धीरे से कहा, "आ गया मेरा शहरी बाबू? थक गया होगा भागते-भागते।"

उनकी बात मेरे दिल में तीर की तरह लगी।

अगले कुछ दिन मैंने गाँव में बिताए। मैं सुबह दादाजी के साथ खेतों में टहलने जाता। मैंने देखा कि गाँव अब भी वही था, लेकिन कुछ बदल भी रहा था। कुछ घरों में ट्रैक्टर आ गए थे, और नौजवान लड़के इंटरनेट के ज़रिए खेती के नए तरीके सीख रहे थे।

एक शाम मैं और दादाजी उसी पीपल के पेड़ के नीचे बैठे थे, जहाँ गाँव के बच्चे खेल रहे थे। सूरज डूब रहा था और आसमान नारंगी रंग में रंगा हुआ था। दादाजी ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा, "देख रोहन, शहर तुम्हें दौड़ाता है, गाँव तुम्हें ठहराता है। शहर तुम्हें भीड़ में खो देता है, गाँव तुम्हें खुद से मिलाता है। यहाँ हर चेहरा अपना है, हर सुख-दुःख साझा है। यही हमारी असली दौलत है।"

उस दिन मुझे उनकी बात का असली मतलब समझ आया। मैंने अपनी सारी बचत और शहर के अनुभव को गाँव के भविष्य से जोड़ने का फ़ैसला किया। मैंने गाँव में ही एक छोटा सा कंप्यूटर ट्रेनिंग सेंटर खोलने की योजना बनाई, ताकि गाँव के बच्चे भी डिजिटल दुनिया से जुड़ सकें। मैंने जैविक खेती (Organic Farming) के बारे में जानकारी इकट्ठी की और उसे गाँव वालों के साथ साझा किया।

अब मुझे दिल्ली की ऊँची इमारतें नहीं लुभाती थीं। मुझे अपने गाँव के आसमान में ही अपने सपनों की ऊँचाई दिखने लगी थी।

मैंने सीखा कि असली तरक्की अपनी जड़ों को छोड़कर भागने में नहीं, बल्कि अपनी जड़ों को सींचकर उन्हें और मज़बूत बनाने में है। शहरों की ऊँची इमारतें सिर तो उठा सकती हैं, पर सुकून की छाँव तो गाँव के पुराने पीपल के पेड़ ही देते हैं। और मेरा गाँव, मेरा रामपुर, अब मेरे लिए सिर्फ एक जगह नहीं, बल्कि मेरी पहचान और मेरा सुकून था।


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