बाबूजी

 

बाबूजी

आकाश के लिए 'बाबूजी' का मतलब था अनुशासन, खामोशी और एक ऐसी दुनिया जो सिर्फ़ सही और ग़लत में बंटी थी। उसके बाबूजी, हरिशंकर जी, पोस्ट ऑफिस में क्लर्क थे। उनकी पूरी ज़िंदगी एक सीधी लकीर की तरह थी - सुबह पाँच बजे उठना, पूजा करना, दफ़्तर जाना और शाम को घर आकर हिसाब लिखना। वे चाहते थे कि आकाश भी इसी सीधी लकीर पर चले और एक सरकारी अफ़सर बने।

लेकिन आकाश की दुनिया टेढ़ी-मेढ़ी, रंगीन और सपनों से भरी थी। वह अपनी पुरानी कैमरे की आँखों से दुनिया देखता था। उसे गलियों, पुराने दरवाज़ों और लोगों के चेहरों पर पड़ती धूप में कहानियाँ दिखती थीं।

यह बात बाबूजी को बिल्कुल पसंद नहीं थी। जब भी वे आकाश को कैमरे के साथ देखते, उनकी त्योरियाँ चढ़ जातीं। वे कहते, "इन सबमें कुछ नहीं रखा है। ये फ़ोटो खींचने से घर नहीं चलता। अपनी किताबों पर ध्यान दो।"

आकाश चुपचाप सुन लेता, पर कैमरे को छोड़ नहीं पाता था। वह उसके सपनों का दरवाज़ा था।

एक दिन, आकाश को दिल्ली के एक प्रतिष्ठित आर्ट कॉलेज से फ़ोटोग्राफ़ी कोर्स के लिए स्कॉलरशिप का पत्र मिला। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। वह दौड़कर घर आया, लेकिन जैसे ही उसने बाबूजी को पत्र दिखाया, घर में सन्नाटा छा गया।

बाबूजी ने चश्मा उतारकर मेज पर रखा और शांत लेकिन दृढ़ आवाज़ में कहा, "यह नहीं होगा। तुम कहीं नहीं जा रहे हो। अगले महीने बैंक की परीक्षा है, उसकी तैयारी करो।"

"पर बाबूजी, यह मेरा सपना है!" आकाश ने हिम्मत करके कहा।

"सपने देखने से पेट नहीं भरता, आकाश। मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी मेहनत करके इस घर को बनाया है, ताकि तुम्हें वो सब मिले जो मुझे नहीं मिला। मैं तुम्हें অনিশ্চিত भविष्य की आग में नहीं झोंक सकता," बाबूजी ने अपना अंतिम फ़ैसला सुना दिया।

उस रात आकाश बहुत रोया। उसे लगा कि उसके बाबूजी उसे कभी नहीं समझेंगे। उसकी माँ ने उसे चुपके से कुछ पैसे दिए और कहा, "जा बेटा, अपने सपने को जी ले। तेरे बाबूजी दिल के बुरे नहीं हैं, बस तुम्हारी चिंता करते हैं।"

आकाश घर छोड़कर दिल्ली चला गया।

शुरू के कुछ महीने बहुत मुश्किल थे। बड़े शहर में अकेलापन, पैसों की तंगी और हर तरफ़ से मिलती निराशा। कई बार उसे लगा कि बाबूजी सही थे। लेकिन फिर उसे अपना सपना याद आता और वह दोगुनी मेहनत से जुट जाता।

इधर घर पर, बाबूजी और भी खामोश हो गए थे। वे किसी से आकाश के बारे में बात नहीं करते थे, पर रात में जब सब सो जाते, तो वे अपनी पुरानी ट्रंक खोलते। उस ट्रंक में कुछ पुरानी, अधूरी पेंटिंग्स और रंगों के सूखे हुए डिब्बे पड़े थे। वे घंटों उन्हें देखते रहते।

दो साल बीत गए। आकाश की मेहनत रंग लाई। उसकी तस्वीरों की एक प्रदर्शनी (Exhibition) दिल्ली की एक बड़ी आर्ट गैलरी में लगने वाली थी। उसने यह ख़बर अपनी माँ को दी। माँ बहुत खुश हुईं, लेकिन आकाश ने उदासी से कहा, "काश, बाबूजी भी यह समझ पाते।"

माँ ने एक गहरी साँस ली और कहा, "बेटा, एक राज़ बताऊँ? तुम्हारे बाबूजी भी अपनी जवानी में एक बहुत अच्छे चित्रकार बनना चाहते थे। पर घर की ज़िम्मेदारियों के आगे उन्हें अपना सपना दफ़नाना पड़ा। वो तुमसे नाराज़ नहीं हैं, वो बस डरते हैं कि कहीं तुम्हें भी अपनी तरह अपने सपनों को अधूरा न छोड़ना पड़े।"

यह सुनकर आकाश स्तब्ध रह गया। उसे अपने कठोर पिता के पीछे छिपा एक कलाकार, एक हारा हुआ सपने देखने वाला इंसान दिखाई दिया।

प्रदर्शनी वाले दिन गैलरी लोगों से भरी हुई थी। आकाश की बहुत तारीफ़ हो रही थी, पर उसकी नज़रें किसी को ढूँढ़ रही थीं। तभी उसने देखा, एक कोने में, एक साधारण से कुर्ते-पायजामे में उसके बाबूजी खड़े थे।

वे उस तस्वीर के सामने खड़े थे जो आकाश की सबसे पसंदीदा थी। वो तस्वीर बाबूजी की ही थी - आँगन में अख़बार पढ़ते हुए, उनके चेहरे पर पड़ी सुबह की धूप और उनकी झुर्रियों में छिपी एक ज़िंदगी की कहानी। बाबूजी की आँखों के कोने भीगे हुए थे।

आकाश धीरे-धीरे उनके पास गया और बस इतना कह सका, "बाबूजी, आप..."

हरिशंकर जी ने घूमकर अपने बेटे को देखा। उन्होंने कुछ कहा नहीं, बस आगे बढ़कर उस तस्वीर को धीरे से छुआ, जैसे अपने ही अक्स में अपने बेटे की कामयाबी को महसूस कर रहे हों। फिर उन्होंने आकाश के कंधे पर हाथ रखा। उस स्पर्श में सालों की खामोशी, सारी नाराज़गी और सारा डर पिघल गया। उसमें सिर्फ़ गर्व था, स्वीकृति थी और एक पिता का अनकहा प्यार था।

उस दिन शब्दों की ज़रूरत नहीं थी। एक बेटे ने अपने पिता में अपना सबसे बड़ा प्रशंसक देख लिया था, और एक पिता ने अपने बेटे में अपना अधूरा सपना जी लिया था।

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