परिवार की जड़ें
प्रयागराज की एक पुरानी गली में "रामभरोसे मिष्ठान भंडार" नाम की एक दुकान थी। यह सिर्फ़ एक दुकान नहीं, बल्कि रामनाथ जी के परिवार का दिल थी। रामनाथ जी ने चालीस साल पहले अपने पिता के साथ इसे शुरू किया था और अब उनके दोनों बेटे, समीर और विवेक, भी उनके साथ काम करते थे।
बड़ा बेटा, समीर, बहुत होशियार और महत्वाकांक्षी था। उसने MBA किया था और उसे लगता था कि इस छोटी सी दुकान में उसकी प्रतिभा बर्बाद हो रही है। छोटा बेटा, विवेक, शांत और संतोषी स्वभाव का था। उसे अपने पिता के साथ काम करने और परिवार की विरासत को आगे बढ़ाने में ही खुशी मिलती थी।
परिवार में सब कुछ ठीक था। सुबह साथ में पूजा होती, दोपहर में सब दुकान पर मेहनत करते और रात को माँ सरला के हाथ की बनी रोटियों पर पूरा परिवार एक साथ हँसता-बोलता। रामनाथ जी को लगता था कि उनकी दुनिया मुकम्मल है।
लेकिन एक दिन, रात के खाने पर समीर ने एक घोषणा की। "बाबूजी, मुझे मुंबई की एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई है। मैं अगले हफ़्ते जा रहा हूँ।"
मेज पर अचानक सन्नाटा छा गया। रामनाथ जी ने चश्मा उतारा और अपने बेटे को ऐसे देखा जैसे कोई अजनबी हो। उन्होंने कहा, "नौकरी? और यह दुकान? यह विरासत? जिस दुकान ने तुम्हें पढ़ाया-लिखाया, उसे छोड़कर तुम किसी और की नौकरी करोगे?"
समीर ने हिम्मत से कहा, "बाबूजी, मैं कब तक जलेबी छानता रहूँगा? मुझे अपनी पहचान बनानी है, बड़ा आदमी बनना है।"
उस रात पिता और बेटे में बहुत बहस हुई। रामनाथ जी का दिल टूट गया। उन्हें लगा कि उनके बेटे ने उनकी मेहनत और सपनों का अपमान किया है। समीर को लगा कि उसके पिता उसकी काबिलियत को समझ नहीं रहे हैं।
अगले हफ़्ते, भारी मन से समीर मुंबई चला गया। माँ सरला रोती रहीं, विवेक ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन रामनाथ जी उसे विदा करने बाहर तक नहीं आए।
घर की रौनक चली गई। अब खाने की मेज पर हँसी नहीं, एक खालीपन होता था। रामनाथ जी चुपचाप हो गए थे। दुकान का काम अब विवेक और रामनाथ जी देखते थे, पर उसमें पहले वाली बात नहीं रही।
दूसरी तरफ, समीर मुंबई में तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था। बड़ी गाड़ी, बड़ा घर, ऊँची तनख्वाह, उसके पास सब कुछ था। लेकिन ऊँची इमारतों और तेज रफ्तार जिंदगी के बीच, उसे अक्सर प्रयागराज की वो गली, अपनी दुकान की मीठी खुशबू और माँ के हाथ की रोटी याद आती थी। उसे एक अजीब सा खालीपन महसूस होता था, जिसे कोई पार्टी या सफलता भर नहीं पाती थी।
दो साल बीत गए।
एक रात, विवेक का फोन आया। उसकी आवाज़ काँप रही थी। "भैया, जल्दी आ जाओ... दुकान में आग लग गई।"
समीर के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई। वह अगली ही फ्लाइट से घर के लिए निकल पड़ा। जब वह अपनी गली में पहुँचा, तो उसका दिल दहल गया। जहाँ कभी "रामभरोसे मिष्ठान भंडार" की रौनक होती थी, वहाँ अब सिर्फ़ जली हुई दीवारें और राख का ढेर था।
उसने देखा, उसके पिता रामनाथ जी उस राख के ढेर के पास पत्थर की मूरत बने बैठे थे, उनकी आँखों में कोई आँसू नहीं थे, बस एक गहरी शून्यता थी। उनकी ज़िंदगी भर की मेहनत उनकी आँखों के सामने जलकर खाक हो गई थी।
समीर दौड़कर अपने पिता के पैरों में गिर पड़ा। "बाबूजी, मुझे माफ़ कर दीजिए।"
रामनाथ जी ने कुछ नहीं कहा, बस अपने बेटे के सिर पर हाथ फेर दिया। उस एक स्पर्श में सारी नाराज़गी, सारा दर्द बह गया।
उस दिन समीर को समझ आया कि जिसे वह छोटी सी दुकान समझकर छोड़ आया था, वह सिर्फ़ दुकान नहीं थी, वह उसके परिवार की जड़ें थीं। उसकी पहचान का आधार थी।
समीर ने फैसला किया कि वह अब वापस नहीं जाएगा। उसने अपनी सारी बचत निकाली, विवेक के साथ मिलकर बैंक से लोन लिया। उसने अपने MBA के ज्ञान का इस्तेमाल किया।
अगले छह महीनों में, उसी जगह पर एक नई, शानदार दुकान खड़ी हो गई। नाम वही था, "रामभरोसे मिष्ठान भंडार," लेकिन अब उसका रूप नया था। दुकान को आधुनिक बनाया गया, ऑनलाइन डिलीवरी शुरू की गई, और नई तरह की मिठाइयाँ भी जोड़ी गईं।
रामनाथ जी अब काउंटर पर नहीं बैठते थे, लेकिन वे रोज़ सुबह आते, अपनी निगरानी में लड्डू बनवाते और अपने दोनों बेटों को एक साथ काम करते देख उनकी आँखों में एक नई चमक आ जाती।
एक दिन, दुकान में बहुत भीड़ थी। समीर कैश काउंटर संभाल रहा था, विवेक ग्राहकों को, और रामनाथ जी एक कुर्सी पर बैठे सब देख रहे थे। सरला जी चाय लेकर आईं। चारों ने एक साथ चाय पी, ठीक वैसे ही जैसे सालों पहले पीते थे।
समीर ने अपने पिता की ओर देखकर कहा, "बाबूजी, मैं बड़ा आदमी तो नहीं बन पाया।"
रामनाथ जी ने मुस्कुराकर उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, "बड़ा आदमी पैसे और पद से नहीं, अपनी जड़ों से जुड़कर बनता है। आज तू पहले से कहीं ज़्यादा बड़ा हो गया है।"
परिवार फिर से पूरा हो गया था, और उनकी दुकान की मिठाइयों में अब सिर्फ़ चीनी की नहीं, बल्कि रिश्तों की मिठास भी घुल गई थी, जो पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूत थी।
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