बड़ी दीदी
मेरी बड़ी दीदी, जिसका नाम रिया था, मुझसे पाँच साल बड़ी थी। हम सब उन्हें दीदी कहते थे, लेकिन मेरे लिए तो वो माँ का दूसरा रूप थीं। बचपन में मुझे दीदी बहुत सख्त लगती थीं। हर बात पर टोकना, "रोहन, सीधे बैठो," "रोहन, नाखून मत चबाओ," "चलो, पढ़ने बैठो।" मुझे लगता था जैसे घर में मेरे ऊपर एक और हेडमास्टर बिठा दिया गया है।
जब मैं मिट्टी में खेलकर गंदे कपड़ों के साथ घर लौटता, तो पापा की डाँट से पहले दीदी की ही नज़र पड़ती थी। वो मुझे घूरकर देखतीं और कहतीं, "कितनी बार कहा है, साफ़-सुथरे रहा करो!" लेकिन बाद में चुपके से अपनी चॉकलेट का आधा टुकड़ा भी वही मेरे हाथ में थमा देती थीं। जब कभी मैं स्कूल में किसी से लड़कर आता, तो मेरा पक्ष लेने वाली भी वही होती थीं। वो कहतीं, "मेरे भाई को किसी ने कुछ कहा कैसे?"
समय बीतता गया। दीदी ने 12वीं की परीक्षा बहुत अच्छे अंकों से पास की। उनका सपना था कि वो शहर के बड़े कॉलेज में दाखिला लें और टीचर बनें। घर में खुशी का माहौल था, लेकिन पापा के चेहरे पर चिंता की लकीरें थीं। उन दिनों हमारे घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। पापा की छोटी सी दुकान से घर का खर्च और हम दोनों की पढ़ाई का बोझ उठाना मुश्किल हो रहा था।
एक रात, मैं पानी पीने उठा तो मैंने पापा और माँ को धीरे-धीरे बात करते सुना। माँ कह रही थीं, "रिया का दाखिला कैसे होगा? शहर में रहने का खर्च और कॉलेज की फीस, हम कैसे कर पाएँगे?" पापा ने गहरी साँस लेकर कहा, "कोशिश तो करूँगा, पर रोहन की स्कूल की फीस भी तो देनी है।"
यह सुनकर मेरा दिल बैठ गया। अगले दिन मैंने एक अजीब सी चीज़ देखी। दीदी ने अपनी सारी किताबें और कॉलेज के फॉर्म एक बक्से में बंद कर दिए। उन्होंने पापा के पास जाकर कहा, "पापा, मेरा मन बदल गया है। मुझे शहर नहीं जाना। मैं यहीं घर के पास वाले कॉलेज से प्राइवेट पढ़ाई करूँगी और साथ में छोटे बच्चों को ट्यूशन भी दूँगी। इससे घर में कुछ मदद भी हो जाएगी।"
पापा ने उन्हें समझाने की कोशिश की, लेकिन दीदी अपनी बात पर अड़ी रहीं। उस दिन मुझे पहली बार एहसास हुआ कि मेरी दीदी कितनी बड़ी और समझदार हैं। उन्होंने मेरे भविष्य के लिए अपने सपनों को उस बक्से में बंद कर दिया था।
दीदी ने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। सुबह वो घर का काम करतीं, फिर बच्चों को पढ़ातीं और रात में देर तक जागकर अपनी पढ़ाई करतीं। उनकी मेहनत का ही नतीजा था कि मैं बिना किसी रुकावट के अपनी पढ़ाई पूरी कर सका। उन्होंने अपनी छोटी-छोटी खुशियों को ताक पर रख दिया ताकि मेरी ज़रूरतें पूरी हो सकें।
सालों बाद, जब मुझे एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई और मैं पहली तनख्वाह लेकर घर आया, तो मैंने वो सारे पैसे दीदी के हाथ में रख दिए। उनकी आँखों में आँसू थे, पर वो खुशी के थे।
एक दिन, मैं घर में पुराना संदूक साफ़ कर रहा था, तो मेरे हाथ दीदी की एक डायरी लगी। उसके पहले पन्ने पर लिखा था, "मेरा सपना है कि मैं एक बड़ी टीचर बनूँ और रोहन को एक बड़ा अफ़सर। मेरा सपना शायद अधूरा रह जाए, पर मैं रोहन के सपने को कभी टूटने नहीं दूँगी।"
वो डायरी पढ़कर मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। मैं समझ गया कि आज मैं जो कुछ भी हूँ, उसकी नींव मेरी दीदी के त्याग ने रखी थी।
अगले महीने, मैंने अपनी बचत के पैसों से शहर के एक अच्छे इलाके में एक जगह किराए पर ली और उसके बाहर एक बोर्ड लगाया - "रिया की पाठशाला"। जब मैंने दीदी को चाबियाँ दीं, तो वो हैरान रह गईं।
मैंने उनके हाथ थामकर कहा, "दीदी, आपने मेरे लिए अपना सपना छोड़ा था। आज मैं आपका सपना पूरा करना चाहता हूँ। यह सिर्फ एक कोचिंग सेंटर नहीं, यह आपकी मेहनत और त्याग का सम्मान है।"
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