आस्था का महापर्व"
पुरी के छोटे से गांव काशीबासा में रहने वाला बारह वर्षीय गोपाल बचपन से ही भगवान जगन्नाथ का परम भक्त था। उसकी माँ, जानकी, हर साल उसे लेकर पुरी की रथयात्रा में जाया करती थी। लेकिन इस वर्ष जानकी बीमार पड़ गई, और डॉक्टर ने यात्रा से मना कर दिया।
गोपाल की आँखों में आंसू थे। माँ की सेवा और प्रभु का दर्शन – दोनों उसके लिए एक जैसे थे। वह माँ के पैरों में बैठ गया और बोला, “माँ, मैं कहीं नहीं जाऊँगा। इस बार प्रभु यहीं आएँगे।”
जानकी ने उसकी मासूम आस्था को देखकर मुस्कुराते हुए कहा, “अगर भक्ति सच्ची हो, तो भगवान दूर नहीं रहते।”
गोपाल ने गाँव में बच्चों के साथ मिलकर एक छोटा सा रथ बनाया, लकड़ी के तीन पहियों पर एक छोटा-सा मंदिर रखा और उसमें कागज़ की मूर्तियाँ सजाईं – जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा। गांव के बुजुर्गों ने भी उनकी मदद की। ढोल-नगाड़ों के साथ जब छोटा-सा रथ पूरे गांव में चला, तो ऐसा लगा मानो पूरी पुरी आ गई हो।
उसी रात, जानकी ने सपना देखा – भगवान जगन्नाथ खुद उसके दरवाजे आए, मुस्कुराकर कहा, “जहाँ सच्ची आस्था होती है, वहीं हमारा रथ रुकता है।”
सुबह उठते ही जानकी की तबीयत में चमत्कारी सुधार हुआ। गाँव के लोग भी इस बालक की भक्ति से द्रवित हो उठे। उस दिन से काशीबासा में हर साल ‘छोटी रथयात्रा’ मनाई जाने लगी, जिसकी शुरुआत गोपाल ने की थी – श्रद्धा, सेवा और भक्ति से।

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