मन की दीवारें: एक परिवार की अनकही दूरियाँ
कभी-कभी, एक ही छत के नीचे रहते हुए भी, लोग एक-दूसरे से मीलों दूर हो जाते हैं। यह दूरी सिर्फ कमरों की नहीं, बल्कि मन की दीवारों की होती है - अहंकार, गलतफहमी और अनकहे शब्दों की दीवारें। यह कहानी है ऐसे ही एक परिवार की, जिसने इन दीवारों को प्यार और समझ से गिराकर अपने घर को फिर से घर बनाया।
यह कहानी है श्री बृजमोहन जी, उनके बेटे, आदित्य, और उनकी बहू, स्नेहा की।
बृजमोहन जी, एक रिटायर्ड जज, अपने सिद्धांतों और अनुशासन के पक्के थे। उनके लिए सही और गलत के बीच कोई ধূসর क्षेत्र नहीं था। उनका बेटा, आदित्य, एक सफल वकील था, पर अपने पिता की नज़रों में, वह हमेशा कम ही था। बृजमोहन जी ने कभी खुलकर अपने बेटे की तारीफ नहीं की। उनका प्यार हमेशा एक सख्त मुखौटे के पीछे छिपा रहता था।
यह एक पिता और पुत्र के बीच का संघर्ष था, जहाँ बेटा अपने पिता की स्वीकृति के लिए तरसता था, और पिता अपने प्यार को जताना नहीं जानते थे।
स्नेहा, आदित्य की पत्नी, इस घर में एक ताज़ी हवा के झोंके की तरह आई थी। वह एक समझदार और सुलझी हुई महिला थी। वह अपने ससुर का सम्मान करती थी, पर उनकी कठोरता से थोड़ा डरती भी थी। वह रोज़ देखती कि कैसे उसका पति अपने पिता से बात करने में झिझकता है, और कैसे उसके ससुर अपने बेटे की हर बात में कोई न कोई कमी निकाल ही लेते हैं।
"आदित्य," वह अक्सर कहती, "आप पापाजी से खुलकर बात क्यों नहीं करते? उन्हें बताइए कि आप उनसे कितना प्यार करते हैं।"
"तुम नहीं समझोगी, स्नेहा," आदित्य एक ठंडी साँस भरकर कहता। "उनके लिए मैं हमेशा एक नाकाबिल बेटा ही रहूँगा। उन्होंने आज तक मेरे किसी काम की तारीफ नहीं की।"
मन की दीवारें इतनी ऊँची हो चुकी थीं कि अब उनके आर-पार देखना भी मुश्किल था।
कहानी में मोड़ तब आया, जब आदित्य ने अपनी लॉ फर्म का एक बहुत बड़ा और मुश्किल केस लड़ा। यह एक गरीब किसान की ज़मीन का मामला था, जिसे एक बड़े बिल्डर ने धोखे से हड़प लिया था। आदित्य ने इस केस के लिए दिन-रात एक कर दिया, क्योंकि उसे इसमें अपने सिद्धांतों की एक झलक दिख रही थी, वही सिद्धांत जो उसने अपने पिता से सीखे थे।
बृजमोहन जी भी इस केस पर नज़र रखे हुए थे। वह अखबार में हर रोज़ इस केस की खबरें पढ़ते, पर आदित्य से कुछ नहीं कहते।
केस के फैसले का दिन आया। आदित्य ने अपनी दलीलों और सबूतों से बिल्डर को हरा दिया। उसने न सिर्फ उस गरीब किसान को उसकी ज़मीन वापस दिलाई, बल्कि पूरे शहर में एक मिसाल कायम की।
उस रात, जब आदित्य घर लौटा, तो उसे उम्मीद थी कि शायद आज उसके पिताजी उसे शाबाशी देंगे। पर बृजमोहन जी ने बस इतना कहा, "देर हो गई। खाना खा लो।"
आदित्य का दिल टूट गया। उसकी सारी जीत, सारी मेहनत, एक पल में बेमानी हो गई।
उस रात, आदित्य और स्नेहा के बीच बहुत बहस हुई।
"मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता, स्नेहा!" आदित्य ने गुस्से में कहा। "मैं कल सुबह ही यह घर छोड़कर चला जाऊँगा। मुझे ऐसे माहौल में नहीं रहना, जहाँ मेरे होने या न होने से किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ता।"
स्नेहा ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की, पर आदित्य का मन गलतफहमी और सालों के दबे हुए दर्द से भर चुका था।
अगली सुबह, जब आदित्य अपना बैग पैक कर रहा था, तो स्नेहा ने एक आखिरी कोशिश की।
वह अपने ससुर, बृजमोहन जी, के कमरे में गई। वह पूजा कर रहे थे।
"पापाजी," उसने कांपती आवाज़ में कहा, "आदित्य यह घर छोड़कर जा रहा है।"
बृजमोहन जी ने अपनी आँखें नहीं खोलीं। "जाने दो," उन्होंने शांत स्वर में कहा। "वह अपनी मर्ज़ी का मालिक है।"
"नहीं, पापाजी!" स्नेहा की आवाज़ में आज डर नहीं, एक हिम्मत थी। "आप उसे रोक सकते हैं। वह कहीं नहीं जाना चाहता। वह तो बस आपके मुँह से दो शब्द सुनना चाहता है... तारीफ के, अपनेपन के।"
उसने उनके सामने एक पुराना, चमड़े का एल्बम रख दिया। "यह मुझे कल आपके कमरे की सफाई करते हुए मिला था।"
बृजमोहन जी ने आँखें खोलीं। वह एल्बम उनके कॉलेज के दिनों का था। स्नेहा ने एल्बम खोला। उसके अंदर अखबार की पुरानी कतरनें (cuttings) थीं, जिन्हें बड़ी सहेजकर रखा गया था।
"यह देखिए," स्नेहा ने एक कतरन की ओर इशारा किया। "यह आदित्य के स्कूल के डिबेट कॉम्पिटिशन की खबर है, जिसमें वह जीता था। यह उसके कॉलेज के पहले मुकदमे की... और यह... यह कल के केस की।"
हर कतरन पर लाल स्याही से तारीख और 'मेरा बेटा' लिखा हुआ था।
बृजमोहन जी स्तब्ध रह गए।
"पापाजी," स्नेहा ने nghẹn ngat गले से कहा, "आप दुनिया को दिखाते हैं कि आपको कोई परवाह नहीं, पर आप तो चुपचाप अपने बेटे की हर सफलता का जश्न मनाते रहे हैं। यह अहंकार की दीवार आपने क्यों खड़ी कर रखी है? एक बार उसे गले से लगाकर कह क्यों नहीं देते कि आपको उस पर कितना गर्व है?"
यह एक बहू का त्याग था, जो अपने पति और ससुर के बीच की मन की दीवारों को तोड़ने के लिए अपनी मर्यादा भी लांघ गई थी।
उस एक पल में, बृजमोहन जी का सालों का कठोर मुखौटा पिघल गया। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।
वह दौड़कर आदित्य के कमरे में गए। आदित्य दरवाज़े पर ही खड़ा था, जाने के लिए तैयार।
"मत जा, बेटा," बृजमोहन जी ने बस इतना कहा, और अपने बेटे को कसकर गले से लगा लिया। सालों बाद, एक पिता और पुत्र का वह आलिंगन हुआ था।
"मुझे तुम पर बहुत गर्व है, आदित्य," उन्होंने रोते हुए कहा।
आदित्य भी अपने आँसू नहीं रोक पाया। उसे आज अपने पिता के प्यार का वह रूप दिखा, जिसे वह हमेशा से देखना चाहता था।
यह कहानी हमें सिखाती है कि हमारे रिश्तों में सबसे ऊँची दीवारें ईंट-पत्थर की नहीं, बल्कि हमारे अपने मन की होती हैं। अहंकार, गलतफहमी और अनकहे शब्द इन दीवारों को और भी मोटा करते जाते हैं। पर प्यार, समझ और एक छोटी सी पहल का एक झोंका भी इन दीवारों को गिराने के लिए काफी होता है। ज़रूरत है तो बस उस एक कदम की, जो स्नेहा ने उठाया।
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